निष्क्रमण संस्कार


निष्क्रमण संस्कार


मानव जीवन की नवनिर्माण योजना के इस छटे संस्कार का नाम नि ष्क्रमण संस्कार है। संस्कार का नाम ही स्पष्ट करता है कि बाहर निकलना । अर्थात् अब तक बालक घर के कमरे में ही बन्द रहा थामाता उस की दिन भर देखभाल करती थी । यद्यपि अब भी रहेगा तो वह माता की ही देखरेख में , किन्तु अब उसे खुली हवा व सूर्य के प्रकाश में निकलने का अवसर भी मिलेगा । यह सर्व विदित है कि सूर्य का प्रकाश अन्धकार, दुर्गन्ध व रोगाणुओं का नाश कर जीवनी शक्ति को बढाने वाला होता है। संसार में जितने जीव व वनस्पतियां हैं, उनके जीवन का आधार भी यही सूर्य ही तो है। यदि सूर्य अपना प्रकाश, अपना तेज न दे तो यह वायु दूषित हो जावेगी। सभी ओर दुर्गन्ध ही दुर्गन्ध होगी, कुछ दिखाई न देगा , कुछ पैदा नहीं होगा तथा पृथ्वी से जीवनी  शक्ति का नाश हो जावेगा । आज जो हम सूर्य की प्रकृतिक वायु को छोड बन्द कमरों में रहने लगे हैं या कमरों में पर्दै लगाकर अन्दर बिजली जलाकर रहने लगे हैं, इससे हम अपने स्वास्थ्य का नाश कर रहे हैं । इस संस्कार का अभिप्रायः है कि बालक में जीवनी शक्ति का संचार हो इसलिए बालक के मस्ति ष्क में यह संस्कार डाला जाता है कि और शक्ति ही जीवनदायी शक्ति है। इसी के संसर्ग से ही प्राण शक्ति को बल मिलता है तथा इसी में विचरण करने वाला ही दीर्घ जीवी हो सकता हैअतः सौर शक्ति का विपुल लाभ अवश्य उठावें


      । आज के समाज में इस महत्त्व पूर्ण संस्कारको नि ष्प्रयोजन माना जाने लगा है। प्राणवायु के संचार तथा सूर्य से शक्ति प्राप्त कराने वाले इस संस्कार के महत्त्व को समझते हुए यह संस्कार जन्म के पश्चात् तीसरे शुक्ल पक्ष को करना चाहिये। हां! यदि बच्चा हृष्ट पुष्ट है तो यह संस्कार जन्म के दो महीने पूर्ण होने के बाद करना चाहिये अन्यथा तीन महीने बाद इस संस्कार के माध्यम से माता बच्चे को खुली हवा व प्रकाश में लावे ताकि इस से बालक की पुष्टि में वृद्धि हो तथा वायु व प्रकाश का आनन्द ले सके । इससे पूर्व ऐसा न करने का भाव यही है कि छोटा बालक सर्दी गर्मी से जल्द प्रभावित होता है तथा रोगग्रस्त हो जाता है। इस अवस्था तक इस की प्रतिरोध क्षमता उसमें आ जाती है। इससे उसे पूरी मात्रा में विटामिन डी मिलेगा तथा उसमें चिडचिडा पन व बेचैनी नहीं आने पावेगी। यह संस्कार लम्बी आयु की कामना करने वाला है। इस संस्कार का प्रत्येक मन्त्र सो वर्ष जीने की प्रेरणा देता है ताकि हम जीवन व्यापार को सफलता पूर्वक सम्पन्न कर सके।


      इस संस्कार से केवल खुली वायु व सूर्य के तेज की प्राप्ति ही उद्देश्य नही है अपितु चन्द्र की शीतलता भी बच्चे को देने की परम्परा है । संस्कारतो दिन में होता है, जबकि सूर्य अपना तेज दिखा रहा होता है । इस के दर्शन से बाल्क को जहां खुली वायु से पौष्टिकता मिलती है, वहां धूप व प्रकाश से उसे कैलशियम की भी विपुल मात्रा मिलती है, सूर्य का तेज मिलता है। केवल तेज भी जीवन का सन्तुलन बिगाड देता है।


      इस सन्तुलन को बनाए रखने के लिए रात्रि के समय माता बालक को चन्द्र दर्शन भी करवाते हैं ताकि तेज प्राप्ति के साथ ही सारी उसे शीतलता भी प्राप्त हो।


      अब बालक को उत्तम वस्त्र पहना कर ऐसे भवन में रखा जाना चाहिये ,जहां इसे ऋतु अनूकूल जलवायु मिल सके तथा इस में रहते हुए आच्छे खिलौनों के साथ खेल सके। ताकि उसके विकास में कोई बाधा न आने पावे । इस प्रकार प्रसन्न जीवन बिताते हुए वह सौ वर्ष की सफल आयु प्राप्त करने की और बढ़ सके। इस अवस्था में बालक को प्रतिक्षण अकारण ही डराते रहना उसके विकास को बाधित करेगा । अतः भूत चडेल, राक्षास आदि का भय दिखाते हुए उसे भयभीत न किया जावे।


      हमारे मनीषियों ने मानव नवनिर्माण की योजाना के अन्तर्गत जो कुछ भी बनाया है, बताया है , उसे हमें बिना किसी प्रश्न के सम्पन्न करना चाहिये । यह सब प्रयोजन मूलक व वैज्ञानिक है। अतः सभी संस्कारों को प्रसन्नता पूर्वक करते हुए बालक को बार बार उसके कर्त्त व्यों का बोध करवाया जावे, यह न समझा जावे कि इन संस्कारों का कोपयोजन नहीं हैइसी से ही बालक गुणवान, यशस्वी, कीर्ति फैलाने वाला बनकर सर्व कल्याण के कार्य करते हुए शतव पीय जीवन पा सकेगा |


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