निर्लोभ महात्मा


निर्लोभ महात्मा


       धन-दौलत का लोभ बड़ा प्रबल हैरुपये के लालच में फंसकर मनुष्य सच-झूठ की कुछ परवा नहीं करतावह लक्ष्मी की झंकार सुनकर अपने सारे सत्य सिद्धान्त छोड़ देने को तैयार हो जाता है। माया का मोह बड़ा प्रबल हैपरन्तु दयानन्द ने काम, क्रोध और लोभ-मोह सबको जीत लिया थाकोई भी लालच उनको सत्य से न डिगा सकता था।


      एक समय की बात है, स्वामीजी महाराज कुछ दिन से उदयपुर में ठहरे हुए थे। राणा सज्जनसिंहजी की महाराज के प्रति बड़ी भक्ति थीवे रोज सबेरे आकर महाराज का उपदेश सुना करते थे। एक दिन स्वामीजी अकेले बैठे थे। उसी समय श्रीराणाजी पधारे और नम्रता के साथ कहने लगे, "भगवन, वैसे तो उदयपुर का सारा राज्य एकलिंग महादेव के मन्दिर को दान दिया हुआ है, परन्तु राज्य का जितना भाग उस मन्दिर के साथ लगा हुआ है उसकी आमदनी भी कई लाख" है। यदि आप मूर्ति-पूजा का खण्डन छोड़ दें तो इस मन्दिर की गद्दी आपकी हो जायगी। आप इतनी बड़ी जायदाद के मालिक हो जाएंगे। इसके सिवा राजगुरु भी आप ही होंगे।"


       राणा के ये शब्द सुन स्वामीजी झुंझला कर बोले, “आप मुझे लालच दिखाकर सचाई से हटाना चाहते हैं! ईश्वर की आज्ञा को भंग कराना चाहते हैं! आपके राज्य से तो मैं एक दौड़ लगाकर बाहर जा सकता हूँ परन्तु जगदीश्वर के राज्य को छोड़कर कहाँ जाऊँ? लाखों लोग मेरे भरोसे ही मूर्ति-पूजा को वेद-विरुद्ध मानते हैं। मुझे ऐसे शब्द कहने का साहस फिर कभी न कीजिए। संसार की कोई भी शक्ति मुझे भगवान से परे नहीं ले जा सकती। मैं उस सर्वशक्तिमान परमेश्वर की आज्ञा मानूं या आपकी?


     राणा यह सुनकर चुप रह गये और थोड़ी देर बाद बोले, नदी आपकी परीक्षा करने के लिए ही यह कहा था। आप धन्य हैं। आपकी नलीम गिरा सकता है, और न मय।


    स्वामीजी में स्त्री-जाति के प्रति सम्मान का भाव बहुत अधिक था। उन्होंने अपने किसी भी ग्रन्थ में कहीं भी स्त्रियों की निन्दा नहीं की।


     ऋषि दयानन्द स्त्री जाति को पूर्ण स्वतंत्रता देने के पक्ष में थे। वे उन्हें वेद तक पढ़ने का अधिकार मानते थे। महाराज के मन में माताओं के लिए कितना सम्मान का भाव था, इसका पता आगे लिखी घटना से लगता है।


    चित्तौड़ की बात हैएक दिन व्याख्यान के बाद अनेक पण्डितों के साथ स्वामीजी बाहर घूमने जा रहे थे। मूर्ति-पूजा पर ही बात-चीत हो रही थी। सामने गाँव का एक देवालय आ गया। उस समय वहाँ बहुत से छोटे-छोटे बच्चे खेल रहे थे। स्वामीजी ने वहाँ अचानक सिर झुका दिया और फिर आगे चल पड़े।


     एक साथी पण्डित ने कहा, 'स्वामीजी, मृर्ति-पूजा का खण्डन चाहेकितना करी, परन्तु देवताओं की शक्ति का प्रभाव प्रकट हुए विना नहीं रहतामन्दिर के सामने आपका सिर अपने आप झक ही गया।'


      महाराज यह सुनते ही वहीं ठहर गये, और उन बच्चों में खेलती हुई एक चार बरस की नंग-धडंग बालिका की ओर इशारा करके बोले, 'देखते नहीं हो, यह मातृ-शक्ति है, जिसने हम सबको उत्पन्न किया है!' यह सनते ही सब पर सन्नाटा छा गया ।


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