नरक निरूपण


नरक निरूपण


 


अत्यन्त कोपं कटुका च वाणी,


दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम्|


नीच प्रसंग ! कुलहीन सेवा,


चिन्हानि देहे नरक स्थितानाम्॥


-चाणक्य नीति अ० ७१६


       अर्थात् अत्यन्त क्रोध, कटु-वचन, दरिद्रता, दुष्टों का संग अपने जनों से वैर, कुलहीनों (धूर्ती) की सेवा, ये सब चिन्ह नरक वासियों की देह में रहते हैं अर्थात् ऐसे नर-नारी जहाँ रहते हैं वहीं नरक है | 


      एक अन्य श्लोक में ऐसे नारकीय गृह को श्मशान कहा है-


न विप्र पादोदक कर्दमानि, न वेद शास्त्रः ध्वनि गर्जितानि


स्वाहा स्वधाकार विवर्जितानि श्मशान तुल्यानि गृहाणि तानि।।


-चाणक्य नीति


      अर्थात् जिन गृहों में विद्वान ब्राह्मणों के चरण धोने से कीचड़ नहीं हो जाती, जहाँ वेद-शास्त्रों की ध्वनि नहीं गूंजती, और जिन घरों में पञ्च महायज्ञ नहीं किये जाते वे घर श्मशान के समान हैं।


      एक अन्य कवि ने कितने सरल शब्दों में इसी सचाई को प्रस्तुत किया है-


अन्न पुराना, घी नया, हो सज्जन भरतार।


घर में चपल तुरंग हो, स्वर्ग निशानी चार॥


      पुरुष वर्ग इसी बात को यों कह सकता है-


अन्न पुराना घी नया, हो सतवन्ती नार| 


चौथे पीठ तुरंग की, स्वर्ग निशानी चार॥


     नरक के चिन्ह निम्न प्रकार कहे हैं-


तन पर मैले कापड़े, सिर पर मैले बार


देना हो करजा घना, दुष्ट मिले भरतार॥


    पुरुष वर्ग इसी चरण को यों कह सकता है-


देना हो करजा घना, हो कलिहारी नार !


      निष्कर्ष यह कि जिस गृहस्थ के सभी सदस्य स्वस्थ, संयमी, सत्य एवं मधुर भाषी और अनृणी हों, शुद्ध साधनों से जीवनोपयोगी सभी आवश्यक सामग्री प्राप्त हो, जिस गृहस्थ में उदारता, दानशीलता प्रभु भक्ति, अभिवादन शीलता, परदुःख कातरता आदि सद्गुण हों जहाँ स्त्रियाँ आदर्श पत्नी और आदर्श मातायें या सास हों, पुरुष जहाँ आदर्श पति और आदर्श पिता या श्वसुर हों, जहाँ वालक-बालिकायें आदर्श पुत्र-पुत्रियाँ और आदर्श भाई-बहिन हों, जहाँ भाभी-देवर, ननद-भौजाई और देवरानी-जेठानी के सम्बन्ध मधुर हों, तथा जिस गृहस्थ के सभी सदस्य एक दूसरे के प्रति, पड़ौसी, समाज और राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य-पालन में (इसे ईश्वराज्ञा मानकर) संलग्न हों-ऐसाआदर्श गृहस्थ ही सच्चा स्वर्ग है। ऐसा स्वर्ग प्रयत्न पूर्वक इसी जीवन में साध्य है।


      ऐसे आदर्श गृहस्थों की अधिकता के कारण कभी हमारा सम्पूर्ण भारत देश ही 'स्वर्गभूमि' माना जाता था और यहाँ के सभी ३३ करोड़ निवासी ही देवता माने जाते थे।


      इस 'वैदिक स्वर्ग' का चित्रण महर्षि याज्ञवल्क्य के समक्ष कही गई केकेय प्रदेश के महाराज अश्वपति की इस गर्वीली वाणी में हुआ है-


न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न च मद्यपः।


नाना हिताग्नि विद्वान् न स्वैरी स्वैरिणी कृतः॥


      अर्थात् मेरे सम्पूर्ण जनपद (राष्ट्र) में न तो एक भी चोर है, न कंजूस (अनुदार) और न मद्यपी (किसी नशीली वस्तु का सेवन करने वाला) है। मेरे सम्पूर्ण राज्य में एक भी परिवार ऐसा नहीं जिसमें अग्निहोत्र न होता हो, एक भी अविद्वान नहीं और न एका भी व्यभिचारी है, फिर व्यभिचारिणी तो कहाँ हो सकती है ?


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