ननद -भावज व्यवहार 


ननद -भावज व्यवहार


             ननद यह कैसा प्यारा शब्द है। हर ननद को कितना चाव होता है, अपनी प्यारी-प्यारी भाभी के शुभागमन की कैसी प्रतीक्षा होती है! और इसी प्रकार भावज को स्नेह मूर्ति एक नई बहिन पाने की कैसी भावभरी उत्कण्ठा होती है ! सौभाग्यशाली हैं वे परिवार. जिनमें ननद-भावज के बीच यह चाव, यह उछाह और उत्कण्ठा अन्त तक बनी रहती है। होता प्रायः यह है कि वह पुत्री जो माँ के प्यार और दुलार को अब तक एकान्ततः भोगती रही है, उस प्यार में एक और हिस्सेदार को पाती है तो भावज के प्रति उसके मन में प्रतिस्पर्धा का भाव जग जाता है। अब अपनी भाभी की झूठी सच्ची शिकायत करके अपनी माँ के कान भरना ही उसका व्यापार बन जाता है। माँ यदि बद्धिमान न हई. कान की कच्ची हई तो पहले अपनी वधू के प्रति सन्देह बुद्धि जगती है और फिर स्थाई संघर्ष खडा हो जाता है। परिवार का सुख-शान्ति मुख्यतया सासवधू के सम्बन्ध का माधुर्य बहुत कुछ ननद पर निर्भर है। ननद यदि बड़ी है तो अपनी भावज को पुत्रिवत् प्यार करे और यदि छोटी है तो भावज को मातृवत् आदर दे। यदि लगभग समान आयु की है तो उसे अपनी सच्ची सखी और बहिन माने। भावज को भी इसी रुप में प्रतिदान देना चाहिये।


            ऐसी स्थिति में यदि उसकी भावज की ओर से कुछ भूलें भी होती हैं तो भी वह अपनी माता को भावज  के विरोध में नहीं आने देगीप्रायः माँ अपनी पुत्री को सबसे अधिक विश्वस्त समझती हैं। इस विश्वास का उपयोग ननद को पारिवारिक जीवन को स्वर्ग बनाने में करना चाहिये। इस विश्वास के दुरुपयोग से ही कितनी ही ननदों के कारण, केवल ननद का दुर्बुद्धि, पक्षपात और असत्य व्यवहार से परिवारों की एकता टूक-टूक हो जाती है। आखिर प्रत्येक स्त्री जहाँ माँ है, पत्नी है, पुar . है, बहिन है, सास है वधू है वहाँ ननद भी है। ननद के रुप में वह अपने कर्त्तव्य को सही रूप में निभाकर फटे दिलों को एक कर महान् पुण्य की भागी हो सकती है।


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