नारी का समाज में स्थान


नारी का समाज में स्थान


सन्तुष्टो भार्यया भर्ता भर्ना भार्या तथैव च।


यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम्॥


                              यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।


                                     यौतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः॥


शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम्।


न शोचन्ति जामयो तु यत्रैता वर्द्धते तद्धि सर्वदा।


                                   तस्मादेताः सदा पूज्या भूषणाच्छादनाशनैः।


                              भूतिकामैर्नरैनित्य सत्कारसु त्सवेषु च।।


(मनुस्मृति)


        अर्थ-जिस कुल में पत्नी से प्रसन्न पति और पति से पत्नी सदा प्रसन्न रहती है उस कुल में निश्चित कल्याण होता है। यदि दोनों आपस में अप्रसन्न रहें तो उस कुल में नित्य लड़ाई झगड़ा रहता है।


      जिस घर में नारियों का सत्कार होता है उस घर में उत्तम गुण, उत्तम पदार्थ तथा उत्तम सन्तान होते हैं और जिस घर में स्त्रियों का सम्मान नहीं होता उस घर में चाहे कुछ भी यत्न करो सुख की प्राप्ति नहीं होती।


      जिस घर वा कुल में स्त्रियां शोकातुर हो दु:ख पाती हैं वह कुल शीघ्र ही नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है और जिस घर वा कुल में स्त्रियां आनन्द, उत्साह और प्रसन्नता से भरी रहती हैं वह कुल सदा बढ़ता रहता है।


      इस कारण से ऐश्वर्य की इच्छा रखने वाले पुरुषों को चाहिये कि इन स्त्रियों को सत्कार के अवसरों और उत्सवों में भषण. वस्त्र, खान, पान आदि से सदा प्रसन्न रखें।


      समाज के निर्माण में पुरुष और स्त्री का दोनों का बराबर का स्थान है। पुरुष और स्त्री गृहस्थ की गाड़ी के दो बराबर के पहिये हैं। गृहस्थ की उन्नति के लिए आवश्यक है कि ये दोनों ठीक प्रकार से एक दूसरे को सहयोग देते चलें। पुरुष और स्त्री दोनों के अपने अपने गुण हैं, अपने अपने क्षेत्र तथा अधिकार हैं। दोनों एक दूसरे के प्रतिद्वन्दी नहीं हैं अपितु सहयोगी तथा पूरक हैं। पुरुष इसलिए पुरुष है कि उसमें पौरुष अर्थात् बल पराक्रम है, दुष्ट का दमन तथा श्रेष्ठ की रक्षा में समर्थ है। माता - निर्मात्री भवति 'माता' इसलिए इसका नाम है क्योंकि वह सन्तानों का निर्माण करती हैं। उन्हें जन्म देकर पालन पोषण करती है तथा उत्तम शिक्षा देती है। लज्जा तथा शालीनता नारों के स्वाभाविक गुण हैं। परन्तु आवश्यकता पड़ने पर नारी भी पुरुष का पौरुष धारण कर सकती है जैसे झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने किया था ।


        मानवता के सिद्धान्त पुरुष तथा स्त्री दोनों के लिए बराबर के हैं। दोनों ही को एक विवाह करने की आज्ञा है। अगर पुरुष विधुर होने पर दूसरा विवाह कर सकता है तो स्त्री भी विधवा होने पर दूसरा विवाह कर सकती है। परन्तु यह नियम होना चाहिये कि विधुर पुरुष का विवाह विधवा स्त्री से ही हो। सती प्रथा, बाल विवाह, अनमेल विवाह तथा पर्दा प्रथा वेद और वैदिक संस्कृति के विपरीत हैं। दहेज प्रथा समाज पर लानत है और कालाधन इसके लिए जिम्मेदार है।


        नारी को भोग विलास की वस्तु समझना, उसके शरीर का प्रदर्शन विज्ञापनों में करना, सिनेमाओं में तस्वीरों द्वारा उसके शरीर तथा हाव भाव के प्रदर्शन से पुरुषों का घटिया किस्म का मनोरंजन करके उनकी जेब से पैसे ऐंठना भारतीय सभ्यता और वैदिक संस्कृति के विरुद्ध हैं।


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