नागपुर के साथ अंग्रेजों का विश्वासघात

नागपुर के साथ अंग्रेजों का विश्वासघात


(वीर सावरकर द्वारा लिखित)


      जब रंगो बापूजी (नागपुर के राजा) लंदन को जाने की सिद्धता (तैयारी) करने में व्यस्त थे तभी एक नयी घटना ने डलहोजी का मन हर लिया। नागपुर राज्य का पतला और सिमटा हुआ पौधा उखाड़ फेंकने का अनायास बहाना मिला था। नागपुर के एकमात्र अधिपति भोसले अपनी आयु के ४७वें वर्ष में अचानक स्वर्ग सिधारे। बरार का यह अधिपति रघोजी अंग्रेज सरकार का माननीय मित्र था।


      और यही अंग्रेजों की मित्रता भोसले के विनाश का सामान हुआ। जिन्हें भान था कि अंग्रेज उनसे द्वेष करते हैं वे ही बच गये। किन्तु अंग्रेजों को अपने गले का हार मानने की मूर्खता जिन्होंने की थी उन्हीं का, अनहद निर्दयता और विश्वासघात से, अंग्रेजों ने सत्यानाश कर डालाबरार का राज्य कोई अंग्रेजों के बाप की जमींदारी नहीं थी; या अंग्रेजों की मर्जीपर ही जिन की हस्ती अवलंबित हो ऐसा कोई सामंतराज्य भी न था। फिरंगी सरकार के समान वह एक स्वतंत्र और स्वयंपूर्ण राज्य था। जे सिलव्हियन ने अंग्रेजों को साफ शब्दों में ललकारा था “किस कारण से और किस न्याय के दिखावे से (चाहे वह पाश्चात्य हो या पौर्वात्य) अंग्रेजों को हक है कि वे केवल इसलिए किसी के राज्य को जब्त करे कि उसका राजा नि:संतान मरा"।


      सचमुच वह सब एक हथकंडे का इंद्रजाल था। एक उड़ा ले और दूसरा साथी चुपचाप उसे छिपाये रखे ! एक सिर काट ले और दूसरा साथी चिल्ला-चिल्ला कर पुकारता जाय 'किस न्याय या निर्बंध के आधार पर तुमने यह काम किया है? मानो, चोरों और खूनी डाकुओं को अपने काम की पुष्टि में किसी न्याय, निबंध की आवश्यकता होती है ? सन् १८५३ में निदान डलहौजी ने अपने “मित्रों के" गले पर खूनी खंजर फेर ही दिया ! और केवल इसी बहाने कि भोसले ने दत्तक गोद न लिया। राजा रघोजी को प्रबल आशा थी कि उन्हें पुत्र अवश्य होगा किन्तु एकाएक उनका अन्तकाल हुआ। फिर भी उनकी धर्मपत्नी रानी को दत्तक गोद लेने का पूरा अधिकार था। हाँ, इसके पहले मृत राजाओं की रानियों ने गोद लिए दत्तक पुत्र को अंग्रेजों ने न माना होता तो हमें कुछ कहना न यता था, किन्तु यह तो सब जानते हैं कि १८२६ में दौलतराव शिंदे की वित रानी के गोद लिए हुए, १८३४ में धारके राजाकी विधवा के लिए और १८४१ में किसनगढ़ की रानी के लिए हुए दत्तक को अंग्रेजी मान लिया था। एक दो नहीं, कई एक दत्तविधानों को अंग्रेजों ने मा दी थी। किन्तु, ध्यान रहे; ये सब दत्तविधान मान लेना उस समय अंग्रेजी के लाभ में था। हाँ, इस बार राजा रघोजी की रानी का दत्तक मान लेना उनके स्वार्थ के विरुद्ध था, जिससे स्पष्ट है कि अंग्रजों का हानि-लाभ ही उनकी नीति का आधार था। नागपुर नरेश ने दत्तक नहीं लिया और सातारे के छत्रपति ने गोद लिया, इससे दोनों के राज्यों पर अंग्रेजों ने कब्जा जमायातर्कशास्त्र भी यहाँ लाचार हो जाता है।


      नागपुर प्रांत जब्त कर डलहौजी ने ७६८३२ वर्ग मील का प्रदेश. जिसकी जनसंख्या ४६,५०,००० और वार्षिक आय ५० लाख की थी. हड़प लिया। असहाय रानियाँ अपना सिर पीटती रो रही थीं उसी क्षण राजमहल के द्वार खटखटाये गये। दरवाजों को धड़ाम से खोलकर अंग्रेजी सेना अंदर घुस पड़ी; अस्तबल से घोड़ों को खोल दिया गया; ऊपर चढ़ी हुई रानियों को बलपूर्वक नीचे उतार कर, हाथियों को मवेशी बाजार में बेचने भेजा गया; सोने चांदी के अलंकार राजमहल से लूट कर गली-गली में नीलामी कर दिये गये। रानी के गले की शोभा बढ़ाने वाली कंठमाला बाजार की मिट्टी में मलिन हुई। एक हाथी के मात्र सौ रुपये इस हिसाब से सभी हाथी बेच मारे गये। और, फिर, इसमें क्या आश्चर्य कि वे घोड़े, जो डलहौजी के प्रतिदिन के खाने से भी अधिक मूल्यवान् तथा अच्छी खुराक पाकर पुष्ट थे, बीस-बीस रुपर्डी में बेचे गये। और घोड़ों की उस जोड़ी को, जिन पर स्वयं राजा रघूजी सवार होते थे, पांच रुपर्डी में दिये गये। हौदे के साथ हाथी, और जीन चढ़ाये घोड़े तो बेच डाले अवश्य; फिर भी, देखो, उन रानियों के गहने उनकी देह पर पड़े हुए हैं! क्यों न उस जेवर को बेचा जाय? और आखिर, अन्य वस्तुओं के समान इन जेवरों को भी रास्ता दिखाया गया; बेचारी रानियों की देह पर फूटी मणि भी न रही ! किन्तु तिस पर भी अंग्रेजों से 'मित्रता' न छूटी। इसलिए उन्होंने राजमहल की भूमि खोदना प्रारंभ किया। हाय रे दैव! रानियों के अंत:पुर के शय्यागारों को अपवित्र करने को अंग्रेजी कुदाली सँवारी गयी ! पाठक, चौंको मत, व्यथित न बनो ! क्यों कि, अभी तो अंग्रेजी कुदाली ने अपना काम शुरू ही किया है; उसे आगे चलकर बहुत काम करना है-वह कर रही है। देखो, रानी का पलंग भी मने तोड-फोड़ दिया और अब उसके नीचे की भूमि खोदी जा रही कैं। कैसे कहें ? महारानी अन्नपूर्णाबाई उस समय अपनी घड़ियाँ गिन रही थीनागपुर के श्रेष्ठ भोसले घराने की यह विधवा राजमाता राज्य तथा घराने के अपमान से दु:खित कराह रही थी, तभी उसकी बगल के दालान के उसी के शय्यास्थान के नीचे, अंग्रेजों की कुदाली अपना विध्वंसन-कार्य बढ़ा रही थी। बगल के दालान के आर्त कराहों का साथ देने का इस कुदाली की दनदनाहट का कैसा घोर पार्श्वसंगीत ! और इस भीषण बनाव का कारण? यही कि राजा रघूजी भोसले किसी पुत्र को गोद लेने के पहले स्वर्ग सिधारे! 


      अपने प्राचीन राजवंश पर मढ़े गये असहनीय अपमान की आग से तड़पती हुई, रानी अन्नपूर्णाबाई ने अंतिम साँस ली। फिर भी राणी बंका की यह आशा मरी नहीं कि 'अब भी अंग्रेज न्याय करेगा'। उसकी वह आशा भी अंतिम साँस छोड़ गई; हाँ, किन्तु अंग्रेज बॅरिस्टरों को भरपेट खिलाने के पहले नहीं ! फिर रानी बंका ने क्या किया? फिरंगियों से 'राजनिष्ठ' रहकर अपनी शेष आयु समाप्त की ! जब झाँसी की बिजली की कड़कड़ाहट हुई और रानी बंका ने जब देखा कि उसके बेटे अपनी तलवारें सँवारकर स्वराज्य-संग्राम के महायज्ञ में जा रहे हैं, तब भोसले की इसी विधवा रानी बंका ने उन्हें धमकाया कि 'मैं स्वयं जाकर अंग्रेजों को तुम्हारे षडयंत्र की खबर देती हूँ और तुम्हें कत्ल करवाती हूँ।' बंका ! उस महान् लब्धप्रतिष्ठ वंश की कलंकरूप बनी पापिनी ! जा, गहरे-बहुत गहरे नरक में जा, वहीं तझे आसरा मिलेगा ! किन्तु, क्या मालूम, अपने राष्ट्र से विश्वासघात करनेवाले जीव को नरक में भी स्थान मिलता है या नहीं?


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