व्यावहारिक धर्म : स्वर्णिम सिद्धान्त


व्यावहारिक धर्म : स्वर्णिम सिद्धान्त


         व्यावहारिक धर्म ही नकद धर्म है। यज्ञ, पूजा-पाठ, जप-तप व्रतादि सभी (उनके प्रचलित रुप में मानो) उधार धर्म है। पारस्परिक सद्व्यवहार और शिष्टाचार ही वैदिक स्वर्ग का मूलाधार है। महाभारतकार महर्षि व्यास ने भीष्म पितामह द्वारा इस व्यावहारिक धर्म का निरुपण यों कराया है-


श्रूयतां धर्मं सर्वस्व श्रुत्वा चैवावर्धार्यताम्।


आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।। 


           हाँ यह व्यावहारिक धर्म सब धर्मों (विविध कर्त्तव्य कर्मों) _ का सार या आधार है। और यह तो स्पष्ट ही है कि व्यावहारिक धर्म तो केवल पढ़ने-सुनने का नहीं धारण करने की वस्तु है। यह धर्म है- (आत्मनः प्रतिकूलानि) जो अपनी आत्मा के विरुद्ध है, जिसे अपने लिये नहीं चाहते (परेषाम् न समाचरेत्) उसे दूसरों के लिये व्यवहार में मत लाओअर्थात् जो व्यवहार तुम दूसरों से अपने लिये चाहते हो, वही दूसरों के साथ करो।


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