मुर्दा जलाना चाहिए, गाड़ना नहीं
मुर्दा जलाना चाहिए, गाड़ना नहीं।
मर्दा जमीन में गाड़ने से वह भूमि न खेत, न बगीचा और न बसने के काम की रहती है। इस प्रकार लाखों और करोड़ों लोगों को जमीन में दबा दिया जाए तो कितनी भमि व्यर्थ में रुक जाए। सन्दूक में डालकर गाड़ने से बहुत दुर्गन्ध होकर पृथिवी से निकलकर हवा को बिगाड़ती है जिससे रोग बढ़ते हैं।
उससे कुछ थोड़ा बुरा जल में डालना है क्योंकि उसको जल जन्तु चीर फाड़ के खा लेते हैं। परन्तु जो कुछ हड्डी और मल बचा रहता है वह सड़कर दुःख कारक होता है। उससे भी थोड़ा बुरा जंगल में छोड़ना है क्योंकि उसको मांसाहारी पशु, पक्षी नोच कर खा जाते हैं। फिर भी हड्डी आदि जो कुछ बचा रहता है वह सड़कर दुर्गन्ध फैलाता है जिससे संसार का अहित होता है। मुर्दे को जलाना ही सर्वोत्तम है।
अगर मुर्दे को ठीक ढंग से जलाया जाए तो दुर्गन्ध नहीं होताढाक की लकड़ी और उस पर देशी घी की आहुति से मुर्दा जलाया जाए। अगर, तगर, केशर आदि भी डाल सके तो अच्छा है। अगर अकेली लकड़ी से ही मुर्दा जलाया जाए तब भी गाड़ने आदि से बहुत अच्छा है। जलाने से एक वेदी में ही लाखों मुर्दे जलाए जा सकते हैंकबरों को देखकर डर भी लगता है। इसलिए गाड़ना तो सबसे ज्यादा बुरा है।
देशभक्ति की बात तो यह है कि देश में सब मुर्दे जलाए जाएं। मुर्दे गाड़ने पर कानूनी तौर पर प्रतिबन्ध हो। इस बात को मजहब से न जोड़ा जाए अपितु राष्ट्रहित की बात है इसलिए राष्ट्रीयता से ही जोड़ा जाए।
दाह संस्कार के पश्चात् कर्त्तव्य-मुर्दा जलाने के पश्चात् सब लोग अपने कपड़े धोकर नहा लें। जिस घर में मौत हुई हो उस घर को धोकर साफ कर लें तथा वहां हवन-यज्ञ करें कि जिससे मृतक की गन्दी हवा घर से बाहर निकल जाए तथा शुद्ध हवा आ जाएउसके पश्चात् तीसरे दिन परिवार का कोई सदस्य शमशान भूमि में जाकर चिता से अस्थियां और राख उठाकर उसी शमशान भूमि में कहीं रख दे या जमीन में गाड़ दे। इसके आगे मृतक के प्रति और कुछ करने का वेदों में विधान नहीं है।
हां, अगर कोई संम्पन्न हो तो जीते जी अपना धन विद्या के प्रचार के लिए या अनाथ बच्चों के पालन आदि के लिए दे सकता है। उसके मरे पीछे उसक सम्बन्धी भी ऐसा कर सकते हैं। परन्तु ध्यान रहे कि जैसे गाय का बछड़ा भागकर अपनी माँ के पास ही जाता है ऐसे ही कर्मफल कर्म करने वाले को ही मिलता है, किसी दूसरे को नहीं। यह वेद का वचन है।
मृत्यु के पश्चात् जीव कुछ देर तक ईश्वर के अधीन बिना स्थूल शरीर के रहता है। उस अवस्था में जीव का संसार से तथा सांसारिक पदार्थों से कोई सम्बन्ध नहीं होता। ऐसी स्थिति में उसके लिए उसके पहले के सम्बन्धी कुछ भी करें उसको कोई लाभ नहीं होता। फिर ईश्वर जीव को उसके कर्मों के अनुसार उचित स्थान पर गर्भाशय में भेजता है। तब उसे नए माता पिता आदि मिलते हैं।