मनुष्य कौन


मनुष्य कौन


(महर्षि दयानन्द के शब्दों में) 


      मनुष्य उसी को कहना कि मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख दुःख और लाभ हानि को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी न डरे और धर्मात्मा (न्यायकारी) निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं (सदाचारियों) का चाहे वे अनाथ, निर्बल और गुण रहित (विद्या रहित) क्यों न हों, उनकी रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी (दुराचारी) चाहे चक्रवर्ती, सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् (विद्वान्) भी हो तथा उसका नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे। अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सदा किया करे। इस काम में चाहे उसको कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो चाहे प्राण भी चले जाएं परन्तु इस मनुष्यपन रूप धर्म से पृथक् कभी न होवे।


      जितने मनुष्य से भिन्न जातिस्थ प्राणी हैं उनमें दो प्रकार का स्वभाव-बलवान् से डरना, निर्बलों को डराना और पीड़ा करना अर्थात् दूसरों का प्राण तक निकाल के अपना मतलब साध लेना देखने में आता है। जो मनुष्य ऐसा ही स्वभाव रखता है उसको भी इन्हीं जातियों में गिनना उचित है। परन्तु जो निर्बलों पर दया, उनका उपकार और निर्बलों पर पीड़ा देने वाले अधर्मी बलवानों से किञ्चित्मात्र भी भय, शंका न करके इनको पर पीड़ा से हटा के निर्बलों की रक्षा, तन, मन और धन से सदा सहायता करना, वही मनुष्य जाति का निज गुण है। (व्यवहारभानु)


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