महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का जीवन वृत्त


कर्णवास में राव कर्णसिंह की उदंडता 


              पहली भेंट में राव कर्णसिह की धमकी, कई लोगों द्वारा वर्णनः तिलक, गंगापूजन, मूर्तिपूजा का खण्डन करतेथेः रंगाचार्य से शास्त्रार्थ का आह्वान- उस मेले पर इस ओर के किसान लोग बहुत इकट्ठे होते हैं और बरौली के रईस राव कर्णसिंह बड़गूजर (ठाकुर) क्षत्रिय सदा गंगास्नान को आते थे । उस वर्ष भी आये और स्वामी जी से मिले । यह क्षत्रिय थोड़े ही दिन पहले लालच के वश में रंगाचार्य के शिष्य होकर दग्ध (चक्रांकित) हो चुके थे और गंगा की बड़ी भक्ति से आराधना करते थे। उनके और उनके साथियों के खड़े तिलक और रामपटा का चक्रांकित तिलक देखकर स्वामी जी महाराज हँसे और बड़े आदर-सत्कार से बैठने को कहा परन्तु रईस साहब स्वामी जी के उद्देश्य को पहले ही से सुन चुके थे (क्योंकि वह इसी कस्बे कर्णवास में ब्याहे हुए है) । मुख को कछ थोड़ा सा बिगाड़कर बोले कि कहां बैठे ? स्वामी जी ने आज्ञा दी कि जहाँ इच्छा हो। इस पर रईस ने कहा कि जहां तुम बैठे हो उस स्थान पर बैठेंगे । स्वामी जी महाराज शीतलपाटी के एक सिरे की ओर हट कर कहने लगे कि आइये बैठिये । बैठते ही रईस ने क्रोध-भरे वाक्यों से कहा कि बाबा जी ! 'तुम्हारा यह गंगा आदि को न मानना अच्छा नहीं। यदि हमारे सामने कुछ खंडन-मंडन की बातें की तो बुरा परिणाम होगा ।' स्वामी जी महाराज ने उनके कटु वाक्यों को सहन कर और किंचित् भी चिन्ता न करते हुए, सिंहवत् श्रृंगाल से कुछ भी भयभीत न होकर, बड़ी गम्भीरता, शान्ति और मधुर वाक्यों से धर्म का उपदेश करते हुए चक्रांकित मत का भी भली प्रकार खंडन किया और कहा कि तुम अपने रंगाचार्य को शास्त्रार्थ के निमित उद्यत करो। हम उनके सम्प्रदाय का खंडन करने को तैयार हैं। यह सुन रईस ने कुपित हो मूर्खता में आ कुछ दो-एक कटु वाक्य कहे। इन पर ठाकुर किशनसिंह जी ने बड़ी शूरता से उसी समय रईस से कहा कि "बस ! अब आगे कुछ बका तो ये आपकी जिह्वा भारी मारपीट करा देगी । भले मनुष्यों को सभा में योग्य बोलना चाहिये । आप धर्मोपदेश कर रहे महात्मा को कटु वाक्य न कहिये । यदि सुनना नहीं चाहते तो चले जाइये " यह तीव्र वचन सुनकर रईस बरौली चुपके से उठकर अपने डेरे को चले गये और सभास्थ लोगों ने रईस की बड़ी निन्दा की परन्तु स्वामी जी महाराज ने इतना कह कर बस किया-


                धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
                तस्माद्धर्मो न हातव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ।। और फिर वैसा उपदेश करने लगे।


(इसी वृतान्त को)-पंडित भूमित्र जी कहते है कि जब राव कर्णसिंह रईस बरौली यहाँ गंगास्नान के अवसर पर स्वामी जी के दर्शन को आये तो स्वामी जी ने देखकर संस्कृत में कहा कि तुम ने क्षत्रिय होकर यह चंडाल की सी आकृति क्यों कर ली? उसने न समझा और कहा कि मैं समझा नहीं हूँ । स्वामी जी ने गुरु टीकाराम को कहा कि तुम समझा दो । वह डरने लगे क्योंकि उसके साथ दस बारह शस्त्रधारी मनुष्य थे । स्वामी जी ने झिड़क कर कहा कि तुम भय मत करो, जैसा मैंने कहा है वैसा ही समझा दो । इसलिए टीकाराम ने उसको भाषा में समझा दिया कि स्वामी जी महाराज यह कहते हैं कि आपने क्षत्रियों का धर्म छोड़कर यह भिखारियों का चिन्ह मस्तक पर क्यों धारण किया हुआ है? परन्तु वह समझ गया और एकाएक लाल-पीला होकर स्वामी जी को गाली देने लगा। स्वामी जी उसकी गाली को सुनकर हँसकर कहने लगे कि यदि तुम शस्त्रार्थ करना चाहते हो तो जयपुर, धौलपुर के राजाओं के साथ जा लड़ो और यदि शास्त्रार्थ करना चाहते हो तो अपने गुरु रंगाचार्य को वृन्दावन से बुला लो और शास्त्रार्थ कराओ और ताम्रपत्र पर अपने गुरु की और मेरी यह प्रतिज्ञा लिखवाओ कि यदि तुम्हारा वह मत झठा है तो रंगाचार्य सात जन्म नरक में रहे और यदि मेरा वेदोक्त मत झूठा हो तो मैं सात जन्म तक नरक निवास करूँ । अन्यथा यह तुम्हारी मूर्खता है कि जो तुम बे-समझे-बूझे बालकों के समान व्यवहार करते हो । इस पर वह और भी अधिक मारपीट को उद्यत हुआ और (उसने) तलवार की मूठ पर हाथ रखा । उसके साथ बलदेब प्रसाद पहलवान था उसने कहा कि नहीं मैं इसको ठीक करता हूँ । वह आगे बढ़ा और स्वामी जी पर हाथ डालना चाहा परन्तु स्वामी जी ने ज्योंही उसके हाथ को पकड़कर धक्का (झटका) दिया, वह पीछे जा पड़ा । उस समय स्वामी जी ने कहा कि रे धूर्त ?' । इस पर ठाकुर किशनसिंह जी लट्ठ लेकर खड़े हो गये और कहा कि यदि तुम महात्मा को तनिक भी छेड़ोगे तो मारे लट्ठों के तुम्हारा अभिमान चूर्ण कर देंगे। इसलिए वे दुम दबाकर वहां से चल दिये । उस समय स्वामी जी के पास पचास के लगभग मनुष्य बैठे हुए थे।


              पंडित कृष्णवल्लम, पुजारीमन्दिरकर्णवास ने इस वृतान्त को इस प्रकार वर्णन किया- 'राव साहब स्वामी जी के पास गये । बातचीत के बीच में कहा कि तुम महाराज रगाचार्य के सामने कीड़े के तुल्य हो और फिर कहा कि तुझसे उसके आगे जूतियों उठाते है ।' स्वामी जी ने कहा कि ' रंगाचार्यस्य का गणना मम समीपे एक आगतः सहस्त्रा आगता लक्षा आगताः शास्त्रार्थ करु' । उसने फिर उसकी अनुचित प्रशंसा की और स्वामी जी को कटुवाक्य ही नहीं कहे प्रत्युत बुरी गालियां दी । उस समय वीरासन पर बैठे हुए थे l एक हाथ तलवार की मूठ पर था और दूसरा हाथ कभी मूठ पर और कभी उनकी आर संकेत करता था एक पांव पर अपना भार रखे बैठा हआ गाली देता था और क्रोध स लाल हो रहा था परन्तु स्वामी जी पद्मासन पर बैठे हुए हँसते जाते थे और यही कहते जाते थे 'रंगाचार्यस्य' इत्यादि ।


             मास्टर गोपाल सिंह वर्मा क्षत्रिय, कर्णवास निवासी, ने इस प्रकार वर्णन किया-'कि जब राव साहब स्वामी जी के दर्शनों को गये तो स्वामी जी ने पछा कि तुमने शरीर क्यों दग्ध कराया हुआ है और क्यों चक्रांकित हुए ? तुम क्षत्रिय हो तुमको ऐसा करना उचित नहीं है । ' इतनी बात स्वामी जी से सुनकर वह बिगड़ा और कहा कि 'यह हमारा परम मत है, इसको तुम किस प्रकार बुरा कहते हो और हम अभी रंगाचार्य स्वामी को वृन्दावन में पत्र भेजते हैं; शास्त्रार्थ से जो ठीक हो वही मत सच्चा है । तुमने हमारे मत को बुरा कहा हम तुमको इसका मजा चखायेंगे ।' स्वामी जी ने इसके उत्तर में कहा कि 'यदि त हमसे लड़ना चाहता है तो अपने सिपाहियों में से एक-एक को खड़ा कर दे और जो शास्त्रार्थ करना चाहे तो रंगाचार्य को यहां पर बुलाने और एक पत्र इस प्रतिज्ञा का लिखकर (तू जो गंगा जी को मानता है ) तू गंगा जी में दे कि जो हारे वह अपने धर्म को छोड़े। 'तलवार पर भी उसने हाथ रखा था, मैं उस समय उस्थित न था— यह सब सुना है ।



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