महर्षि दयानन्द तीनों ऐषणाओं से परे थे


          ऐषणाएं यानि इच्छाएं जिनसे मनुष्य बंधा हआ रहता है। ये तीन प्रकार की होती है। (1) वित्तेषणा (2) पत्रेषणा (3) लोकैषणा। इन तीनो एषणाओं ने महर्षि दयानन्द को छुआ तक नहीं था. जबकि इन तीनो ऐषणाओं से सभी मनुष्य लिप्त रहते हैं। इन्हीं की प्राप्ति में मनुष्य अपना पूरा जीवन समाप्त कर देता है, फिर भी ये ऐषणाएं पूर्ण नहीं हाता। मनुष्य अपनी ऐषणाओं को प्राप्त करने के लिए जितना अधिक प्रयत करता है और इनको कुछ सीमा तक प्राप्त भी करता है। परन्त इनकी प्राप्ति से मनुष्य की भूख कभी नहीं मिटती बल्कि भूख और अधिक बढ़ती जाती है। इसलिए ऐषणाओं की प्राप्ति करना मनुष्य के लिए सुख का साधन नहीं बल्कि दु:ख का कारण है। इसीलिए यजुर्वेद ने अपने चालीसवें अध्याय के प्रथम मन्त्र में कहा है:


          तेन त्यकृने भुपीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् अर्थात् इस संसार का त्याग भाव से योग करो यानि इसमें लिप्त न हो। लालच न करो। यह धन किसी का नहीं है यानि ईश्वर का हैं। महर्षि दयानन्द का जीवन इस वेद मन्त्र के अनुसार था। उनको किसी प्रकार का आकर्षण बाँध नहीं सकता था। महर्षि का अपने मन के ऊपर पूरा अधिकार था। मन उनके अधीन था इसलिए स्वामी जी मन को जिधर ले जाना चाहते थे मन उसी तरफ चलता था। मन पर पूरा नियन्त्रण रखने वाला व्यक्ति ही अपने जीवन में सफल हो सकता है। महर्षि के अपने जीवन में सफल होने का सब से बड़ा कारण यही था कि उनका अपने मन के ऊपर पूरा नियन्त्रण था। इसीलिए उनका इन तीनों ऐषणाओं पर पूरा अधिकार था। वे इनमें लिप्त नहीं थे। इसका संक्षिप्त विवरण इसी भांति है।


           1. वितैषणा: महर्षि जी के पिता कर्षण जी तिवाड़ी एक अच्छे जमीदार थे, रूपयों का लेन-देन भी करते थे और मौरवी राज्य की तरफ से इनको काफी अधिकार मिले हुए थे। वे एक अच्छे सत्ताधारी थे और प्रबन्ध को बनाए रखने के लिए वे कुछ सैनिकों को भी अपने पास रखते थे। इस प्रकार स्वामी जी एक अच्छे धनाड्य परिवार में पैदा हुए थे और अपने माता-पिता जी पहली सन्तान होने से काफी लाड-चाव में उनका जीवन बीता था। पैसे की उनके पास कोई कमी नहीं थी फिर भी वे सच्चे शिव की खोज तथा मृत्यु के रहस्य को जानने के लिए नौजवानी काल में ही केवल 22 वर्ष की आयु में ही अपने घर को छोड दिया और देश को अज्ञान, अंधविश्वास व पाखण्डों से मुक्ति दिलाने के लिए अनेको दुःखों व कष्टों को सहते हुए देश के चारों 'कोणों में भ्रमण किया और अपने जीवन में भी कितने ही अवसरों पर उन्हें लोभ व लालच दिया गया. पर उस लगोंट घाटी सन्यासी ने अपने सिद्धान्तों पर अटल रहने के लिए उन लालच व प्रलोभनों को ठुकरा दिया और असत्य से कभी समझौता नहीं किया। वैसे तो उनके जीवन में ऐसी अनेकों घटनाएँ आती हैं। पर यहाँ पर केवल दो घटनाओं को लिख देना पर्याप्त समझता ह। (1) महर्षि जी अपने जीवन के अंतिम दिनों में यह सोचकर कि साधारण व्यक्तियों को समझाने की बजाय मुझे राजा-महा राजाओं से मिलकर उन्हें वैदिक धर्म की बातें समझानी - चाहिए। ताकि वेद प्रचार का कार्य तथा परोपकारी कार्य अधिक मात्रा में किये जा सके। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए स्वामी जी उदयपुर के महाराज सज्जन सिंह के पास पहुंचे। महाराज स्वामी जी से बहुत अधिक प्रभावित हुए और उनको अपना गुरु मान कर वेद पढ़ने लगे। एक दिन महाराज ने कहा कि स्वामी जी आप केवल मूर्ति पूजा का विरोध न करें बाकी सब काम आप अपनी इच्छानुसार करते रहे ताम आपको एक लिंग महादेव के मन्दिर का महन्त बना दूंगा जिसम वार्षिक लाखों रूपयों की आमदानी है. आप अपनी जिन्दगा आरामस काट सकेंगे। स्वामी जी ने महन्त बनने से इंकार कर दिया. तब महाराज सज्जन सिंह ने कहा कि स्वामी जी आपको मालूम है कि आप किसस बातें कर रहे हो, तब स्वामी जी ने कहा कि मुझे मालूम है कि म किससे बातें कर रहा हूँ. राजन! आपकी आज्ञा का में उल्लंघन तो मैं अभी दौड़ लगाकर आपके राज्य की सीमा से निकलना चाहूं तो रात भर में निकल सकता हूँ परन्तु उस परम पिता परमात्मा का आज्ञा का उल्लंघन करूँ तो उसके राज्य से बाहर कभी नहीं निकल सकता, इसलिए आप ही बतावें कि मैं आपकी आज्ञा मानूं या ईश्वर का आज्ञा तब महाराज ने कहा कि स्वामी जी आपको इतना बड़ा पद कोई नहीं दे सकता. आप विचार करें कि आपको क्या करना चाहिए. तब स्वामी जी ने कहा कि राजन् यही सही है कि मुझे इतना बड़ा पद देने वाला कोई नहीं मिलेगा. तो आपको भी इतने बड़ पद को ठुकराने वाला भी कोई नहीं मिलेगा। इन उत्तरों से महाराज बहुत खुश हुए और स्वामी जी से क्षमा प्रार्थना करने लगे। यह था स्वामी जी का वित्तेषणा के प्रति विरोधी भाव। दूसरी घटना यह है कि स्वामी जी जब उत्तराखण्ड का भ्रमण कर रहे थे तब वे जोशी मठ पहुँचे। जोशी मठ का महन्त स्वामी जी के आकर्षक शरीर, बल, बुद्धि, विद्या से बहुत प्रभावित हुए और स्वामी जी से कहा कि आप इस मठ के महन्त बन जाओ. मैं सन्यासी बनना चाहता हूँ, तब स्वामी जी ने कहा कि महन्त जी. मैंने पिता जी की करोड़ों की सम्पत्ति को ही ठोकर मार दी. तो आपको सम्पति का महत्व ही क्या है। मैं तो किसी बड़े उद्देश्य के लिए घूम रहा है. मझे आपके मठ का महन्त नहीं बनना. यह कहकर आगे निकल गये। यह थी स्वामी जी की वित्तेषणा के प्रति उदासीनता।


             2. पुत्रैषणाः पुत्रैषणा होने का तो प्रश्न ही नहीं है। यदि पत्रैषण होती तो विवाह ही करवा लेते। जब स्वामी जी के माता-पिता को यह ज्ञान हो गया कि मूल शंकर जो स्वामी जी का बचपन का नाम था। में कुछ बैराग्य के भाव आये हुए हैं। इसलिए विवाह कर देना चाहिए और विवाह की तैयारी भी करने लगे। जब मूलशंकर को यह जानकारी हो गई कि तुम्हारे विवाह की तैयारी हो रहे है, तब उसने माता-पिता को साफ कह दिया कि मैं विवाह नहीं कराऊँगा। छोटी बहन और चाचा की मृत्यु के बाद, मूलशंकर का वैराग्य और भी बढ़ गया था। बाईस वर्ष की भरी जवानी में उसने गृह त्याग कर दिया। जीवन भर पूर्ण ब्रह्मचारी रह कर अपना उद्देश्य शिव की खोज में पुरे जीवन की आहूति दे दी। इससे साफ सिद्ध होता है कि स्वामी ज की विवाह करवाने की बिल्कुल ही इच्छा नहीं थी। तब पुषणा होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। स्वामी जी के जीवन में एक घटना आती है कि एक बहुत सुन्दर औरत ने स्वामीजी से कहा कि मैं स्वामी जी मैं आप जैसा सुन्दर पुत्र चाहती हूँ, तब स्वामी जी ने कहा, माता जी! मैं तो आपका ही पुत्र हूँ, आप मुझे ही अपना पुत्र समझे। इससे बड़ा उदाहरण पुत्रैषण न होने का और क्या हो सकता है?


            3. लोकैष्णा: महर्षि का जीवन पढ़ने से ज्ञात होता है कि स्वामी जी ने कितने ही बहादुरी के काम किये। जैसे चार घोड़ों की बग्गी को पीछे से पकड़ कर रोक लेना, लड़ते हुए दो खुंखार साण्डों के सींग पकड़ कर अलग-अलग कर देना। कर्ण सिंह जेसे बलशाली की तलवार पकड़ कर दो दुकड़े कर देना। अपने प्राण बचाने के लिए कितनों को पछाड़कर कर फिर ऊँची दीवार को फलांग कर अपने प्राणों की रक्षा करना आदि अनेक घटनाएं है. परन्तु स्वामी जी ने कभी भी अभिमान भरी बात नहीं कही और अपराधी को सदैव सजा न देकर क्षमा दान ही दिया। इससे उनकी निरभिमानता, विनम्रता. दयालुता आदि गुण स्पष्ट प्रकट होते हैं। जो व्यक्ति निरभिमानी. विनम्र, दयालु व परोपकारी होता है, वह कभी भी यश का भूखा नहीं होता। इसलिए महर्षि दयानन्द में लोकैषणा नाम मात्र भी नहीं थी।


             इस प्रकार हम देखते हैं कि महर्षि जी ने इन तीनों ऐषणाओं पर विजय प्राप्त कर रखी थी l


 


खुशहाल चन्द्र आर्य
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