महर्षि दयानन्द की वेद विषयक मान्यता

महर्षि दयानन्द की वेद विषयक मान्यता


तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतऽऋचः सामानि जज्ञिरे।


छन्दासि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत्॥ -यजु०


      आदि अनेक वेद मन्त्रों के आधार पर ऋषि दयानन्द ने वेदों की अपौरुषेयता को स्वीकार किया। इस सम्बन्ध में विचार करते हुए महर्षि की मान्यता है कि नैमित्तिक ज्ञान की धारा को प्रवाहित करने के लिए ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता है जैसा कि महर्षि कणाद ने माना है-


“स पूर्वेषामपि गुरुः कालैनानवच्छेदात्।"


     अर्थात् ईश्वर मानव का प्रथम गुरु है, जहाँ से ज्ञान की धारा वही है। कर्मफल की सम्यक् व्यवस्था के लिए भी ईश्वरीय ज्ञान, ईश्वरीय कानून-संहिता या संविधान की आवश्यकता है। और जैसे भौतिक नेत्रों की सहायता के लिए ईश्वर ने प्रकाश के केन्द्र भौतिक सूर्य को दिया, वैसे ही बुद्धि या ज्ञान-चक्षु की सहायता के लिए ज्ञान के सूर्य या ईश्वरीय ज्ञान को आवश्यकता है।


       ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता सुसिद्ध होने पर यह विचारणीय हो जाता है कि वेद ही ईश्वरीय ज्ञान क्यों है?


      ईश्वरीय ज्ञान मानव-सृष्टि के आरम्भ में होना चाहिए। वह पूर्ण होना चाहिए। उसमें सृष्टि-नियम के प्रतिकूल कुछ नहीं होना चाहिए। ईश्वरीय-ज्ञान-विज्ञान के अनुकूल होना चाहिए। उसमें देश-विदेश का इतिहास व भूगोल नहीं होना चाहिए-वह सार्वकालिक, सत्य शाश्वत, सार्वभौमिक होना चाहिए। इन सब आधारों पर वेद ही ईश्वरीय ज्ञान है, ऐसी ऋषि की मान्यता है। 


जैसे ईश्वर प्रदत्त सूर्य, वायु, जल आदि सबके लिए हैं वैसे ही ईश्वरीय ज्ञान भी सबके लिए है।


“यथेमां वाचं कल्याणो"


आदि मन्त्रों के आधार पर ऋषि दयानन्द ने बताया कि पवित्र वेद का ज्ञान ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अतिशूद्र और स्त्रियों आदि सभी के लिए समान रूप से है। बीच के काल खण्ड में यह अवैदिक मान्यता बन गई थी-- 


“स्त्री शूदौ नाधीयताम् इति श्रुतेः"


 अर्थात् स्त्री और शूदों को वेद के अध्ययन का अधिकार नहीं है। ऋषि दयानन्द ने वेद मन्त्रों के आधार पर तथा अनेक ऐतिहासिक उदाहरण देते हुए इस अवैदिक मान्यता का तीव्रतम प्रतिवाद किया है-


इमं मन्त्र पत्नी पठेत्।


युवानं कन्या विन्दते पतिम्॥


        आदि उदाहरण देते हुए महर्षि ने स्त्रियों का वेदाधिकार सिद्ध किया है।


       चारों वेदों में किसी काल-विशेष या देश-विदेश का कोई इतिहास या भूगोल नहीं है। पवित्र वेदों में राम, कृष्ण, अर्जुन, गंगा, यमुना, सरस्वती आदि शब्दों को देखकर कई बार भ्रम होता है कि वेद में दशरथ-पुत्र राम, वसुदेव-पुत्र कृष्ण, कुन्ती-पुत्र अर्जुन आदि का इतिहास और गंगा-यमुना आदि भौगोलिक नदियों का वर्णन है। किन्तु जैसा कि महर्षि मनु ने स्पष्ट किया है। वेदों में इन लौकिक पुरुषों व नदियों का वर्णन नहीं है, किन्तु वेद से नाम लेकर लोक में नाम रखे गये हैं।


        महर्षि दयानन्द वेदों को ईश्वर प्रणीत मानते हैं, वे संहिता अर्थात् मन्त्र भाग को निर्धान्त स्वत: प्रमाण मानते हैं। वे लिखते हैं कि वेद स्वयं प्रमाण रूप हैं, जिनका प्रमाण होने में किसी अन्य ग्रन्थ की अपेक्षा नहीं है, जैसे-सूर्य, प्रदीप अपने स्वरूप के स्वत: प्रकाशक और पृथ्वी आदि के प्रकाशक होते हैं, वैसे चारों वेद हैं। और वेदों के ब्राह्मण, शतपथ आदि ब्राह्मण, छः अंग, छः उपांग, चार उपवेद आदि को परतः प्रमाण अर्थात् वेदों के अनुकूल होने से प्रमाण और जिनमें वेद-विरुद्ध वचन हैं उनको महर्षि दयानन्द अप्रमाण मानते हैं।


 


 


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