महर्षि दयानन्द की सृष्टि-विषयक मान्यता

महर्षि दयानन्द की सृष्टि-विषयक मान्यता  


                              ऋषि दयानन्द के सृष्टि-विषयक विचार इस प्रकार हैं"-


         सृष्टि-उसको कहते हैं-जो पृथक् द्रव्यों का ज्ञान युक्ति पूर्वक मेल होकर नाना रूप बनना।''


                                                                                                                                            - स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाशः 


         "सृष्टि का प्रयोजन-यही है कि जिसमें ईश्वर के सृष्टि निमित्त गुण-कर्म-स्वभाव का साफल्य होना। जैसे किसी ने किसी से पूछा कि-नेत्र किसलिए हैं? उसने कहा-देखने के लिए। वैसे ही सृष्टि करने के ईश्वर के सामर्थ्य की सफलता सृष्टि करने में है और जीवों के कर्मों का यथावत् भोग करना आदि भी।" 


                                                                                                                                           - स्वमन्तव्यामन्तव्यप्र०


          सृष्टि सकर्तृक-है, इसका कर्त्ता पूर्वोक्त ईश्वर हैक्योंकि सृष्टि की रचना देखने और जड़ पदार्थ में अपने-आप यथायोग्य बीजादि स्वरूप बनने का सामर्थ्य न होने से 'सृष्टि का कर्ता' अवश्य है।


                                                                                                                                          - स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश


                                 बन्ध और मोक्ष के विषय में ऋषि दयानन्द के विचार


      'बन्ध- सनिमित्तक अर्थात् अविद्या-निमित्त से है। जो-जो पापकर्म ईश्वर-भिन्नोपासना अज्ञानादि सब दुःखफल करने वाले हैं। इसलिए यह बन्ध है कि जिसकी इच्छा नहीं और भोगना पड़ता है।


                                                                                                                                             - स्वमन्तव्यामन्तव्य 


           "मुक्ति- अर्थात् सर्व दुःखों से छूटकर बन्धरहित सर्वव्यापक ईश्वर और सृष्टि में स्वेच्छा से विचरना, नियत समय पर्यन्त मुक्ति के आनन्द को भोग के पुनः संसार में आना।"


                                                                                                                                              - स्वमन्तव्यामन्तव्य 


             मुक्ति के साधन-ईश्वरोपासना अर्थात् योगाभ्यास, धर्मानुष्ठान, ब्रह्मचर्य से विद्याप्राप्ति, आप्त विद्वानों का संग, सत्यविद्या, सुविचार और पुरुषार्थ आदि है।"


                                                                                                                                            - स्वमन्तव्यामन्तव्य


            यहाँ यह स्मरणीय है कि जिन सत्कर्मों की साधना से मुक्ति प्राप्त होती है, वह सान्त हैं अत: उनका फल अनन्त नहीं हो सकता। मुक्ति का अर्थ जीवात्मा का परमात्मा में विलय नहीं है। मुक्ति से पुनरावृत्ति होती है, इस वैदिक मान्यता को महर्षि स्वीकार करते हैं। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष फल चतुष्टय की प्राप्ति को ऋषि दयानन्द मानव जीवन का लक्ष्य बताते हैं। 'अर्थ' की प्राप्ति भी ऋषि की वैदिक चिन्तन धारा में आवश्यक है। अर्थ या धन की उपेक्षा नहीं है-


                                                             'वयं स्याम पतयो रणीणाम्।' 'वयं भगवन्तः स्याम॥'


            आदि अनेक वेद मन्त्रों में भक्त भगवान् से ऐश्वर्य (अर्थ) प्राप्ति की कामना करता है। किन्तु महर्षि के शब्दों में 'अर्थ' वह है "जो धर्म ही से प्राप्त किया जाए, और जो अधर्म से प्राप्त किया जाए उसको 'अनर्थ' कहते हैं।'' 'अर्थ' के साथ ही 'काम' उसका उपयोग भी आवश्यक है। किन्तु 'अर्थ' और 'काम' दोनों को बीच में रखकर नियन्त्रित कर दिया गया है। अर्थात् अर्थ और काम दोनों के मूल में धर्म हो और लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति हो। जैसा कि पहले बता चुके हैं-


 'अहं ब्रह्मास्मि 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या'


'सर्व खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किचन'


           ऐसा कहकर जो संसार और संसार के व्यवहारों को झूठा बताते हैं, वे स्वयं झठे हैं।


           नवीन वेदान्तियों के इस विचार को ऋषि दयानन्द नहीं मानते। कर्म और पुरुषार्थवाद पर चौका फेरने वाला यह विचार ऋषि को मान्य नहीं। अद्वैतवाद की व्याख्या ऋषि दयानन्द के अनुसार यह नहीं है कि ईश्वर के अतिरिक्त कोई दूसरा पदार्थ नहीं है, किन्तु ऋषि मानते हैं ईश्वर के तुल्य कोई नहीं है। इसलिए परमात्मा अद्वितीय है'द्वा सुपर्णा सयुजा सखायः' इत्यादि वेद मन्त्रों के आधार पर महर्षि दयानन्द अद्वैतवाद का खण्डन और वैदिक त्रैतवाद की स्थापना करते हैं। 'एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति' का भी यह अर्थ नहीं है कि मात्र ईश्वर ही है, उसके अतिरिक्त और दूसरा पदार्थ नहीं है, वरन् इसका सत्यार्थ है-ईश्वर एक है, दूसरा ईश्वर नहीं है। एक से अधिक ईश्वर नहीं हैं।


 


 


                                                                                                                                             


 


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