महर्षि दयानन्द की दृष्टि में वेद

महर्षि दयानन्द की दृष्टि में वेद


मनुष्य जाति यद्यपि एक है, तथापि मान्यतायें, विचार धारायें विभिन्न हैं। ये विभिन्नतायें शास्त्रों के मानने न मानने से उत्पन्न हुई हैं। मनुष्य हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, आर्यसमाज आदि धाराओं में बँटा हुआ है। इन धाराओं में आर्यसमाज व हिन्दू वेद को मानते हैं। हिन्दुओं में भी सब हिन्दू नहीं । ब्रह्माकुमारी, जय गुरुदेव, राधास्वामी, स्वामी नारायण सम्प्रदाय आदि तो वेदों से बहुत दूर हैं, मानते ही नहीं। जैन, बौद्ध वेदों के विरोधी हैं ही। शैव, वैष्णव आदि कुछ हिन्दू ही हैं, जो वेदों को मानते हैं


हिन्दू व आर्यसमाज में भेद का कारण


वेद को मानने वाले हिन्दुओं और आर्यसमाज में बहुत बड़ा भेद है। हिन्दू संहिताओं के साथ ब्राह्मण, आरण्यक, स्मृति आदि को भी वेद मानते हैं, पर आर्यसमाज मात्र 4 संहिताओं को ही वेद मानता है। 


आर्य समाज की सभी मान्यताएँ, सिद्धान्त महर्षि दयानन्द के चिन्तन एवं वैदिक शास्त्रों के आधार पर हैंमहर्षि दयानन्द ने शास्त्रों का आलोडन कर जो सत्य तथ्य स्थापित किया, वह सत्य तथ्य वेद के आधार पर निर्दिष्ट किया। महर्षि दयानन्द वेद को सब सत्य विद्याओं का पुस्तक मानते हैं और सब सत्य विद्याओं का आदि ग्रन्थ भी मानते हैं। महर्षि दयानन्द ने वेद विषयक जो सिद्धान्त दिये हैं, जो परिभाषायें की हैं, वे बड़ी ही मननीय व चिन्तनीय हैं।


वेद नाम 


वेद संज्ञा किनकी है? इसकी सुस्पष्टता महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्यभमिका, सत्यार्थ प्रकाश, आर्योद- देश्यरत्नमाला आदि स्वग्रन्थों में भली भाँति की है। यथा -


अथ कोऽयं वेदो नाम? मन्त्रमागसंहितेत्याह। कित्रच 'मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्' इति कात्यायनोक्तेाह्मणभागस्यापि वेदसंज्ञा कुतो न स्वीक्रियत इति? मैवं वाच्यम् । न ब्राह्मणानां वेदसंज्ञा भवितुर्महति। कुतः? पुराणेतिहाससंज्ञकत्वाद्वेदव्याख्यानात् ऋषिभिरुक्तत्वादनीश्वरोक्तत्वात् कात्यायनभिन्नैऋषि भिर्वेदसंज्ञायामस्वीकृतत्वान्मनुष्यबुद्धिरचितत्वाच्चेति।


अर्थात् यह वेद किसका नाम है? मन्त्रसंहिताओं का नाम है। अच्छा तो 'मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्' इस कात्यायन उक्ति के अनुसार ब्राह्मणभाग की भी वेदसंज्ञा क्यों स्वीकार नहीं की जाती?


ऐसा न कहें, ब्राह्मणों की वेदसंज्ञा नहीं हो सकती क्यों? क्योंकि उनकी पुराण, इतिहास संज्ञा होने से, वेदों का व्याख्यान होने से, ऋषियों के द्वारा उक्त होने से ईश्वर द्वारा उक्त न होने से, कात्यायन भिन्न ऋषियों द्वारा वेदसंज्ञा में अस्वीकृत होने से, और मनुष्य बद्धि द्वारा रचित होने से. ब्राह्मणग्रन्थ वेदसंज्ञक नहीं हो सकते 


वेद संज्ञा का निर्देश करते हुए प्रश्नोत्तर शैली में महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में लिखाप्रश्न - वेद किन ग्रन्थों का नाम है?


उत्तर - ऋक्, यजुः, साम और अथर्व मन्त्र संहिताओं का, अन्य का नहीं | 


 महर्षि दयानन्द ने आर्योददेश्यरत्नमाला में वेद की , परिभाषा करते हुए लिखा है -


जो ईश्वरोक्त सत्य विद्याओ से युक्त ऋक संहितादि 4 पुस्तक हैं, जिनसे मनुष्यों का सत्यासत्य का ज्ञान होता है, उनको वेद कहते हैं।


आदि सृष्टि में वेदों का ज्ञान किन्हें और कैसे मिला?


वेद का ज्ञान किस प्रकार प्राप्त हआ. इसका व्याख्यान करते हुए ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में महर्षि दयानन्द ने लिखा है __


न कस्यचिदेहधारिणः सकाशात्कदाचित्कोऽपि वेदानां रचनं दृष्टवान् । कुतः? निरवयवेश्वरात्तेषां प्रादुर्भावात् । अग्निवाय्वादित्याङ्गिरस्तु निमित्तीभूता।


......... अग्निवायुरव्यगिरोमनुष्यदेहधारिजीवद्वारेण परमेश्वरेण श्रुतिर्वेदः प्रकाशीकृत इति बोध्यम्।।


अर्थात् किसी देहधारी के समीप से कभी भी किसी ने भी वेदों की रचना नहीं देखी। क्यों? क्योंकि, उन वेदों का निराकार ईश्वर से प्रादुर्भाव हुआ है। अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिरा तो मात्र वेद देने का माध्यम बने हैं। .... अग्नि,है। अग्नि, वायु, आदित्य, आत्माओं में वेदार्थ प्रकाश माध्यम बने हैं। .... अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा इन चारों मनुष्यों को जैसे वादित्र को कोई बजावे वा काठ की पुतली को चेष्टा करावे, इसी प्रकार ईश्वर ने उनको निमित्त मात्र किया था, क्योंकि उनके ज्ञान से वेदों की उत्पत्ति नहीं हुई।) -ऋ.भा.भू.वेदोत्पत्ति.. पृ.2011 वेद ज्ञान प्रदान का विषय स्पष्ट करते हुए महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में लिखा -


प्रश्न - किनके आत्मा में कब वेदों का प्रकाश किया?


उत्तर - अग्नेर्वा ऋग्वेदो जायते, वायोर्यजुर्वेदः, सूर्यात् सामवेदः। 


अर्थात् प्रथम सृष्टि की आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अगिरा इन ऋषियों के आत्मा में एक एक वेद का प्रकाश किया।


प्रश्न - यो वै ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै।। 


यह उपनिषद् का वचन है - इस वचन में ब्रह्मा जी के हृदय में वेदों का उपदेश किया है। फिर अग्न्यादि ऋषियों के आत्मा में क्यों कहा?


उत्तर – ब्रह्मा के आत्मा में अग्नि आदि के द्वारा स्थापित कराया। देखो! मनु ने क्या लिखा है -


अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम्।


दोह यज्ञसिद्ध्यर्थमृग्यजुःसामलक्षणम्।।


जिस परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न करके अग्नि आदि चारों महर्षियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराए और उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और अङ्गिरा से ऋग, यजु., साम और अथर्ववेद का ग्रहण किया


ईश्वर द्वारा वेदों का अर्थ ज्ञान 


वेदों का ज्ञान ईश्वर ने ही दिया है और वेद के अर्थों का ज्ञान भी ईश्वर ने ही कराया है। महर्षि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश में लिखते हैं - प्रश्न - वेद संस्कृत भाषा में प्रकाशित हुए और वे अग्नि आदि ऋषि लोग उस संस्कृत भाषा को नहीं जानते थे, फिर वेदों का अर्थ उन्होंने कैसे जाना? उत्तर – परमेश्वर ने जनाया, उत्तर – परमेश्वर ने जनाया, और धर्मात्मा योगी, महर्षि लोग जब जब, जिस जिस के अर्थ की जानने की इच्छा करके ध्यानावस्थित हो परमेश्वर के स्वरूप में समाधिस्थ हुए तब तब परमात्मा ने अभीष्ट मन्त्रों के अर्थ जनाये जब बहुतों के आत्माओं में वेदार्थ प्रकाश हुआ तब ऋषि मुनियों ने वह अर्थ और ऋषि मुनियों के इतिहास पूर्वक ग्रन्थ बनाए । उनका नाम ब्राह्मण अर्थात् ब्रह्म जो वेद उसका व्याख्यान ग्रन्थ होने से ब्राह्मण नाम हुआ।


वेद की भाषा संस्कृत 


 वर्तमान में जगत् में अनेक भाषाएं हैं, पर इन भाषाओं में संस्कृत भाषा ही आदि भाषा है, सब भाषाओं की जननी है। इसीलिए वेद संस्कृत में परमपिता परमात्मा ने प्रदान किए। इस सम्बन्ध में महर्षि दयानन्द ने लिखा है -


प्रश्न – किसी देश भाषा में वेदों का प्रकाश न करके संस्कृत में क्या किया?


उत्तर - जो किसी देश भाषा में प्रकाश करता तो ईश्वर पक्षपाती हो जाता, क्योंकि जिस देश की भाषा में प्रकाश करता, उनको सुगमता और विदेशियों को कठिनता वेदों के पढ़ने पढ़ाने की होती। इसलिए संस्कृत ही में प्रकाश किया, जो किसी देश की भाषा नहीं। और वेद भाषा अन्य सब भाषाओं का कारण है। उसी में वेदों का प्रकाश किया। .


वेदों की संज्ञा श्रुति 


वेदों की संज्ञा वेद है, क्योंकि इनके द्वारा सभी विद्यायें जानी जाती हैं, इनमें सब विद्यायें हैं, इनसे सब विद्याओं को प्राप्त करते हैं, इनके द्वारा सब विद्याओं का विचार किया जाता है। (विदन्ति जानन्ति, विद्यन्ते भवन्ति, विन्दन्ति विन्दन्ते लभन्ते, विन्दतेविचारयन्ति सर्वे मनुष्याः सर्वाः सत्यविद्या यैर्येषु वा तथा विद्वांसश्च भवन्ति ते 'वेदाः।


वेदों की श्रुति संज्ञा क्यों है? यह स्पष्ट करते हुए महर्षि दयानन्द लिखते हैं -


तथाऽऽादसृष्टिमारभ्याद्यपयन्त ब्रह्माादाभः सवाः सत्यविद्याः श्रूयन्तेऽनया सा श्रुतिः।


अर्थात् आदि सृष्टि से लेकर अद्यपर्यन्त ब्रह्मा आदि के द्वारा सभी सत्य विद्यायें इसके द्वारा सुनी जाती हैं, इसलिए वह श्रुति है।


वेद नित्य


ईश्वर नित्य है, उसके द्वारा दिया गया वेद ज्ञान भी नित्य है। वेदों की नित्यता में महर्षि दयानन्द का कथन है -


ईश्वरविद्यामयत्वेन वेदानां नित्यत्वं वयं मन्यामहे |.....I तेषामीश्वरज्ञानेन सह सदैव विद्यमानत्वात् । यथास्मिन् कल्पे वे देश शब्दाक्षरार्थसम्बन्धाः सन्ति तथैव पूर्वमासन्नगे भविष्यन्ति च । कुतः? ईश्वरविद्याया नित्यत्वादव्यभिचारित्वाच्च । अत एवेदमुक्तमृग्वेदे सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् इति।।


अर्थात् ईश्वर के विद्यामय होने से हम वेदों का नित्यत्व मानते हैं...... । वेदों का ईश्वर के ज्ञान के साथ सदा ही विद्यमान होने से । जैसे इस कल्प में वेदों में शब्द अक्षर, अर्थ सम्बन्ध है, वैसे ही पूर्व था और आगे भी होगा। क्यों? क्योंकि र आगे भी होगा। गों? कि ईश्वर की विद्या नित्य है और अव्यभिचारी हैऋग्वेद में कहा गया है - धाता ईश्वर ने पूर्व कल्प के समान सूर्य चाँद बनाए हैं। इसी प्रकार सत्यार्थप्रकाश में कहा -


प्रश्न - वेद नित्य हैं वा अनित्य?


उत्तर - नित्य हैं, क्योंकि परमेश्वर के नित्य होने से उसके ज्ञान आदि गुण भी नित्य हैंजो नित्य पदार्थ हैं उनके गण कर्म, स्वभाव नित्य और अनित्य द्रव्य के अनित्य होते हैं।


प्रश्न - क्या यह पुस्तक भी नित्य है?


उत्तर - नहीं, क्योंकि पुस्तक तो पन्ने और स्याही का बना है, वह नित्य कैसे हो सकता है? किन्तु जो शब्द, अर्थ और सम्बन्ध हैं, वे नित्य हैं। सत्या.सप्त..पृ.193 ।।


वेद चार ही क्यों?


ऋग, यजुः, साम, अथर्व ये वेदों के 4 विभाग हैं। यहाँ सन्देह होता है कि ईश्वर ने 4 विभाग ही क्यों किए? क्यों नहीं 1 वेद ही प्रदान किया? इस संदेह का निवारण करते हुएमहर्षि दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के प्रश्नोत्तर विला में लिखा है -


प्रश्न: - अथ किमर्था वेदानां चत्वारो विभागाः सन्ति?


उत्तरम् – भिन्नभिन्नविद्याज्ञापनाय ।


प्र. - कास्ताः ?


स. – त्रिधा गानविद्या भवति, गानोच्चारणविद्याया द्रुतमध्यमविलम्बितभेदयुक्तत्वात् । यावता कालेन हस्वस्वरोच्चारणं क्रियते. ततो दीर्घोच्चारणे द्विगुणः, प्लुतोच्चारणे त्रिगुणश्च कालो गच्छतीति । अत एवैकस्यापि मन्त्रस्य चतसृषु संहितास पाठः कृतोऽस्ति । तद्यथा – 'ऋग्भिस्स्तुवन्ति यजुभिर्यजन्ति, सामभिर्गायन्ति ।' ऋग्वेदे सर्वेषां पदार्थानां गुणप्रकाशः कृतोऽस्ति, तथा यजुर्वेदे विदितगुणानां पदार्थानां सकाशात् क्रिययाऽनेकविद्योपकारग्रहणाय विधानं कृतमस्ति, तथा सामवेदे ज्ञानक्रियाविद्ययोर्दीर्घविचारेण फलावधिपर्यन्तं विद्याविचारः एवमथर्ववेदेऽपि त्रयाणां वेदानां मध्ये यो विद्याफलविचारो विहितोस्ति तस्य पूर्तिकरणेन रक्षणोन्नती विहिते स्तः । 


अर्थात् किसलिए वेदों के 4 विभाग किए गए हैं? भिन्न भिन्न विद्याओं के ज्ञापन के लिएवे कौन सी हैं? समाधान – गान विद्या 3 प्रकार की है, गानोच्चारण विद्या के द्रुत, मध्यम, विलम्बित भेद युक्त होने से। जितने काल में हस्व स्वर उच्चारण किया जाता है, उससे दुगुने काल में दीर्घ का उच्चारण और प्लुत के उच्चारण में तिगना काल लगता है।


इस कारण एक मन्त्र का भी चारों संहिताओं में पाठ किया गया है। वह जैसे – ऋग्वेद के मन्त्रों से स्तुति की जाती है, यजुर्वेद के मन्त्रों से यज्ञ होता है। सामवेद के मन्त्रों से गायन किया जाता है। (अतः पृथक-पृथक वेदों के 4 विभाग हैं) 


दूसरी बात ऋग्वेद में सभी पदार्थों के गुणों का प्रकाश किया गया है। यजुर्वेद में जाने हुए गुण वाले पदार्थों के माध्यम स क्रिया काण्ड द्वारा अनेक विद्या के उपकार के ग्रहण के लिए क्रियाकाण्ड का विधान है। सामवेद में ज्ञान एवं क्रिया इन 2 विद्याओं का दीर्घ विचार द्वारा फल की अवधि पर्यन्त विचार किया गया है। इसी प्रकार अथर्ववेद में भी तीनों वेदों में जो विद्याफल का विचार विहित है उसकी पूर्ति करने के लिए रक्षा और उन्नति विहित किए हैं। इत्यादि प्रयोजन के लिए वेदों क 4 विभाग किए गए हैं।


वेद स्वतः प्रमाण व निर्धान्त


किसी भी विषय, ग्रन्थ आदि का प्रतिपादन करत ह उनकी प्रामाणिकता के लिए अन्य ग्रन्थों के तर्क, प्रमाणों कीआवश्यकता होती है। वेद इनसे भिन्न हैं, वे स्वतः प्रमाण हैं. परतः प्रमाण नहीं। इस संदर्भ में महर्षि दयानन्द का मन्तव्य है


 य ईश्वरोक्ता ग्रन्थास्ते स्वतः प्रमाणं कर्तुं योग्याः - सन्ति, ये जीवोक्तास्ते परतः प्रमाणाश्चि । ईश्वरोक्तत्वाच्चत्वारो वेदाः स्वतः प्रमाणम् । कुतः? तदुक्तौ भ्रमादिदोषाभावात् तस्य सर्वज्ञत्वात्, सर्वविद्यावत्त्वात्, सर्वशक्तिमत्त्वाच्च तत्र वेदेषु वेदानामेव प्रामाण्यं स्वीण्य स्वा- कार्य, सूर्यप्रदीपवत् । यथा सूर्यः प्रदीपश्च स्वप्रकाशेनैव प्रकाशितौ सन्तौ सर्वमूर्त्तद्रव्य- प्रकाशकौ भवतः, तथैव वेदाः स्वप्रकाशेनैव प्रकाशिताः सन्तः सर्वानन्यविद्याग्रन्थान् प्रकाशयन्ति । ये ग्रन्था वेदविरोधिनो वर्तन्ते, नैव तेषां प्रामाण्यं स्वीकर्तुं योग्यमस्ति। वेदानां तु खलु अन्येभ्यो ग्रन्थेभ्यो विरोधादप्यप्रामाण्यं न भवतितेषां स्वतः प्रामाण्यात्तद्भिन्नानां गन्थानां वेदाधीनप्रामाण्याच्च ।


अर्थात् जो ईश्वरोक्त ग्रन्थ हैं, उनको स्वतः प्रामाण्य मानना योग्य है। जो जीवोक्त ग्रन्थ हैं, वे परतः प्रमाण मानने योग्य होते हैं। ईश्वरोक्त होने से चारों वेद स्वतः प्रमाण हैं। क्यों? ईश्वर के कथन में भ्रम आदि दोष नहीं होते, उनके सर्वज्ञ . होने से, सर्वविद्यायुक्त होने से, सर्वशक्तिमान् होने से । अर्थात् वेद भ्रम आदि दोषों से रहित होते हैं। वेदों के विषय में वेदों का ही प्रामाण्य स्वीकार करना चाहिए। जैसे सूर्य और दीपक अपने प्रकाश से ही प्रकाशित होते हुए सभी अन्य विद्या ग्रन्थों को प्रकाशित करते हैं। जो ग्रन्थ वेद विरोधी होते हैं, उनका प्रामाण्य स्वीकार करने योग्य नहीं होता। वेदों का तो निश्चय से अन्य ग्रन्थों से विरोध होने पर भी अप्रामाण्य नहीं होता, वेदों के स्वतः प्रामाण्य होने से, और तद्भिन्न ग्रन्थों का वेद के आधीन प्रामाण्य होने से।


ब्राह्मणादि ग्रन्थ परतः प्रमाण


ब्राह्मणादि ग्रन्थ परतः प्रमाण हैं । इस विषय में महर्षि दयानन्द के वचन हैं – जो स्वतः प्रमाणभूत, मन्त्रभाग संहिता कहे जाने वाले 4 वेद कहे गए हैं, उनसे भिन्न, उनके व्याख्यान भूत ब्राह्मणग्रन्थ वेदों के अनुकूल होने पर ही प्रमाण योग्य होते हैं।


उसी प्रकार 1127 वेदार्थ की व्याख्यानभूत वेद थि की व्याख्यानभूत वद शाखाएं भी वेद के अनुकूल होने पर ही प्रमाण करने योग्य हैं।। (1. ये स्वतः प्रमाणभूता मन्त्रमागसंहिताख्याश्चत्वारो वेदा उक्तास्तदिभन्नास्तद्वयाख्यानभूता ब्राह्मणग्रन्था वेदानुकूलतयाप्रमाणमर्हन्ति । तथै वै कादशतानि सप्तविंशतिश्च वेदशाखा वेदार्थव्याख्याना अपि वेदानुकूलतयैव प्रमाणमर्हन्ति।


तात्पर्य स्पष्ट है ब्राह्मणादि ग्रन्थ परतः प्रमाण हैं, स्वतः प्रमाण नहीं


राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द को उत्तर देते हुए भ्रमोच्छेदन में महर्षि दयानन्द ने कहा है -


जो ईश्वरोक्त है वही वेद होता है, जीवोक्त को वेद नहीं कहते। जितने ब्राह्मणग्रन्थ हैं, वे सब ऋषि मुनि प्रणीत और संहिता ईश्वर प्रणीत हैं। जैसा ईश्वर के सर्वज्ञ होने से तदुक्त, निर्धान्त, सत्य और मत के साथ स्वीकार करने योग्य होता है, वैसा जीवोक्त नहीं हो सकता, क्योंकि वे सर्वज्ञ नहीं। परन्तु जो जो वेदानुकूल ब्राह्मणग्रन्थ हैं, उनको मैं मानता और विरुद्धार्थों को नहीं मानता हूँ । वेद स्वतः प्रमाण और ब्राह्मण परतः प्रमाण हैं।


वेदों में इतिहास नहीं 


लोक में शब्द व्यवहार की परम्परा वेद से आई है, यह नितांत सत्य है। बहुत से जन लोक प्रसिद्ध शब्दों को वेदों में देखकर ऐसी धारणा बना लेते हैं कि वेदों में लौकिक इतिहास है। ऐसे लोगों के विचार को परिशुद्ध करते हुए महर्षि लिखते है  -


चारों वेदों के सूक्तों के ऊपर ऋषियों के नाम निर्दिष्ट हैं, तो यहाँ यह सन्देह होता है कि वेद ईश्वर ने बनाए हैं पुनः ऋषियों के नाम क्यों उल्लिखित हैं? महर्षि दयानन्द ने इस सन्देह का निवारण करते हुए निर्दिष्ट किया है - 


यतो वेदानामीश्वरोक्त्यनन्तरं येन येनर्षिणा यस्य यस्य मन्त्रस्यार्थो यथावद्विदितस्तस्मात्तस्य तस्योपरि - तत्तदषे माल्लेखनं कृतमस्ति कतः? यैरीश्वरध्यानान्ग्रहाभ्यां महता प्रयत्नेन मन्त्रार्थस्य प्रकाशितत्वात्, तत्कतमहोपकारस्मरणार्थं तन्नामलेखनं प्रतिमन्त्रस्यापारकर्तुं योग्यमस्त्ययः


अर्थात् अनन्तर अर्थात् जिस कारण ईश्वर के द्वारा प्रकाश होने के अनन्तर जिस जिस ऋषि ने जिस जिस मन्त्र का अर्थ यथावत ज्ञात किया, अतः उस मन्त्र के ऊपर उस उस ऋषि का नामोल्लेख किया गया है। क्यों? क्योंकि उनके द्वारा ईश्वर के ध्यान और अनुग्रह से, बड़े प्रयत्न से मन्त्र का अर्थ प्रकाशित किया गया है। उनके द्वारा किए गए महान् उपकार के स्मरण के लिए उनका नाम लेखन प्रति मन्त्र के ऊपर करने योग्य हैअतः किया गया है।


महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में भी लिखा है -


ऋषयो मन्त्रदृष्टयःन्त्रान्सम्प्रादुः। 


जिस जिस मन्त्रार्थ का दर्शन, जिस जिस ऋषि को हुआ और प्रथम ही जिसके पहले उस मन्त्र का अर्थ किसी ने प्रकाशित नहीं किया था, किया और दूसरों को पढ़ाया भीइसलिए अद्यावधि उस उस मन्त्र के साथ ऋषि का नाम स्मरणार्थ लिखा आता है। जो कोई ऋषियों को मन्त्रकर्ता बतलावें, उनको मिथ्यावादी समझे । वे तो मन्त्रों के अर्थ प्रकाशक हैं


ऋषियों ने मन्त्रार्थ क्यों किया?


 ऋषियों ने वेदों के मन्त्रों का दर्शन किया, पुनः उनका पठन पाठन भी कियाऋषियों के इस कार्य का महत्त्व बताते हुए ऋषि दयानन्द कहते हैं -


मन्त्रार्थाश्च प्रकाशितवन्तः। कस्मै प्रयोजनाय? उत्तरोत्तं वेदार्थप्रचाराय । ये चावरेऽध्ययनायोपदेशाय च ग्लायन्ति तान वेदार्थविज्ञापनायेमं नैघण्टुकं निरुक्ताख्यं ग्रन्थं त ऋषयः समाम्नासिषुः, सम्यगम्यासं कारितवन्तः। येन वेदं वेदाङ्गानि यथार्थविज्ञानतया सर्वे मनुष्या जानीयुः। 


अर्थात ऋषियों ने मन्त्रों के अर्थों का प्रकाश किया। किस प्रयोजन के लिए? उत्तरोत्तर वेद प्रचार के लिए। और जो आगे के लोग अध्ययन और उपदेश के लिए असमर्थ होते हैं, उनको वेदार्थ ज्ञान के लिए इस निघण्टु और निरुक्त ग्रन्थ का उनऋषियों ने ग्रथन किया, भली प्रकार अभ्यास भी कराया। जिससे वेद और वेदाङ्ग अर्थानुकूल विज्ञान के साथ सभी मनुष्य जान सकें।


तात्पर्य स्पष्ट है ऋषियों ने वेद प्रचार का परम्परा को  स्थिर रखने के लिए वेदों के अर्थ एवं निघण्टु, निरुक्त आदि ग्रन्थ बनाए।


वेदों के पुस्तक रूप का काल


वेदों का एक नाम अति है। यह नाम बताता है कि वेदों का पठन पाठन श्रुति परम्परा से होता आया है। जब श्रुति परम्परा से वेद का ज्ञान होता है, तो वेदों का पुस्तक रूप कैसे हो गया? यह जिज्ञासा होती है। इस सम्बन्ध में महर्षि दयानन्द का कथन है 


इक्ष्वाकु यह आर्यावर्त का प्रथम राजा हुआ। इक्ष्वाकु की ब्रह्मा से छठी पीढ़ी है। पीढ़ी शब्द का अर्थ बाप से बेटा यही न समझें, किन्तु एक अधिकारी से दूसरा अधिकारी ऐसा जानें। पहला अधिकारी स्वायम्भुव मनु था।


इक्ष्वाक के समय में लोग अक्षर, स्याही आदि लिखने की रीति को प्रचार में लाए. ऐसा प्रतीत होता है। क्योंकि इक्ष्वाकु के समय में वेद को बिल्कुल कण्ठस्थ करने की रीति कुछ कुछ बन्द होने लगी। जिस लिपि में वेद लिखे जाते थे, उसका नाम देवनागरी ब्राह्मी लिपि ऐसा है। कारण देव अर्थात् विद्वान् इनका जो नगर ऐसे विद्वान नगर लोगों ने अक्षर द्वारा अर्थ संकेत उत्पन्न करके ग्रन्थ लिखने का प्रचार प्रथम प्रारम्भ किया। 


इस प्रकार महर्षि दयानन्द के वेद विषयक विचार सुस्पष्ट एवं तथ्यपूर्ण हैं। महर्षि दयानन्द ने जिस प्रकार वेदों के नाम, वेदों की रचना, नित्यता आदि का सुस्पष्टीकरण किया है, उसी प्रकार वेदार्थ करने के नियम, वेदार्थ के प्रकार, छन्द, देवता, वेदों की उत्पत्ति के वर्ष आदि का भी ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में निर्देश किया है, जिनसे सभी सन्देहों का निवारण हो जाता है


 


 


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