महर्षि दयानन्द और शिक्षा

महर्षि दयानन्द और शिक्षा 


        वे वर्तमान युग के प्रथम महान् शिक्षा-शास्त्री थे। शिक्षा विषयक उनके क्रान्तिकारी विचार सत्यार्थ प्रकाश के द्वितीय व तृतीय समुल्लास में विस्तार से वर्णित हैं। महर्षि के अनुसार शिक्षा उसको कहते हैं-'जिससे विद्या, सभ्यता, धर्मात्मता, जितेन्द्रियता आदि की वृद्धि हो और अविद्या आदि दोष छूटे। व माता और पिता को आचार्य से भी पहला शिक्षक मानते हैं।'


मातृमान्, पितृमोन्, आचार्यवान् पुरुषो वेद।" (शतपथ)


      अनिवार्य शिक्षा का विचार सर्वप्रथम महर्षि ने ही प्रस्तुत किया। गुरुकुल शिक्षा प्रणाली, जिसमें बालक और बालिकाओं के लिए पृथक्-२ शिक्षा की व्यवस्था हो, यह चिन्तन ऋषि दयानन्द की देन है। वे मानते थे कि राजा से रंक तक खान-पान और वस्त्रादि की समानता गुरुकुलों में हो। चरित्र-निर्माण शिक्षा का मूलाधार है और शिक्षा आस्तिकता एवं नैतिकता से अनुप्राणित हो। यह गुरुकुल की शिक्षा से ही सम्भव है। 'विद्या धर्मेण शोभते' यह सूत्र ऋषिराज ने हमें दिया।


         ऋषि दयानन्द और नारी- नारी के विषय में ऋषि दयानन्द के विचार बहुत ऊँचे हैं। वे एक २॥ वर्षीय बालिका को मातृशक्ति कहकर नमन करते हैंवैदिक युग में नारी का जो गौरवमय स्वरूप था उसे उलटकर बीच के काल-खण्ड में नारी की छवि अत्यधिक विकृत कर दी गई थी। किसी ने उसे 'नरक' का दरवाजा कहा तो किसी ने सर्पिणी से भी अधिक विषैली बताया। किसी ने नारी को 'अधम से अधम अति नारी' कहकर स्मरण किया तो किसी ने उसे 'सहज अपावन' माना। महर्षि दयानन्द ने युगों के पश्चात् 'पुरन्धि र्योषाम् आजायताम्' तथा 'स्त्री हि ब्रह्मा वभूविथ' आदि वैदिक सूक्तियों के प्रकाश में नारियों को राष्ट्र-जीवन का आधार तथा गृहस्थ यज्ञ का ब्रह्मा के रूप में पुनः गौरवान्वित किया। महर्षि ने नारी को यज्ञ करने, यज्ञोपवीत धारण करने, गायत्री मन्त्र का अनुष्ठान 'करने तथा ओंकार-जप करने आदि का पुनः अधिकार प्रदान किया। महर्षि मनु को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा है-


यत्र नायस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।


        अर्थात् जहाँ नारियों का सम्मान होता है वहाँ देव लोग निवास करते हैं। नारियों की शिक्षा का द्वार महर्षि ने खोला और उन्हें वेदादि का अधिकार दिलाया। गृहस्थ आश्रम को 'स्वर्ग' बताते हुए इस स्वर्ग की अधिष्ठात्री नारी को उन्होंने पूज्या बताया, बहु-विवाह, बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह और अनमेल विवाह का निषेध किया और विधवा-विवाह का समर्थन किया, सती-प्रथा का पति के शव के साथ स्त्री के आत्म दाह का उन्होंने विरोध किया। 


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