महर्षि दयानन्द और शिक्षा-पद्धति


महर्षि दयानन्द और शिक्षा-पद्धति


      महर्षि दयानन्द ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के द्वितीय समुल्लास का शुभारम्भ अथ शिक्षा प्रवक्ष्यामः और तृतीय समुल्लास का शुभारम्भ अथ अध्ययनाध्यापन विधिं वक्ष्यामः से किया है। इस वर्णन से भी यही पता चलता है कि शिक्षा, विद्या का उपादानकारण है। महर्षि दयानन्द द्वारा प्रतिपादित शिक्षा-विषयक विचारों को विस्तारपूर्वक जानने के लिए द्वितीय समुल्लास का अध्ययन करना आवश्यक है। यहाँ हम उनके दिये सूत्रों का उल्लेख कर देना पर्याप्त समझते हैं।


       १. जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात् जब एक माता, दूसरा पिता, तीसरा आचार्य होवे, तभी मनुष्य ज्ञानवान् होता है।


       २. जब तक पूरी विद्या न हो तब तक माता सुशीलता का उपदेश करे।


       ३. जब तक सन्तान का जन्म न हो तब तक बुद्धि, बल, रूप, आरोग्य, पराक्रम, शान्ति आदि गुणकारक द्रव्यों का ही सेवन करती रहे।


       ४. जब जन्म हो तब अच्छे सुगन्धियुक्त जल से स्नान, नाड़ीछेदन करके सुगन्धियुक्त घृतादि का होम करे।


       ५. जब बोलने लगे तब उसकी माता बालक की जिह्वा जिस प्रकार कोमल होकर स्पष्ट उच्चारण कर सके वैसा उपाय करे। जो जिस वर्ण का स्थान, प्रयत्न...""हस्व, दीर्घ, प्लुत अक्षरों का ठीक-ठीक बोल सकना, मधुर, गम्भीर, सुन्दर स्वर, अक्षर, मात्रा, पद, वाक्य, संहिता, अवसान भिन्न-भिन्न श्रवण होवे।


        ६. जब वह कुछ-कुछ बोलने व समझने लगे तब सुन्दरवाणी और बड़े, छोटे, मान्य, पितामाता, राजा, विद्वान् आदि से भाषण, उनसे वर्तमान और उनके पास बैठने की भी शिक्षा करें, जिससे कहीं उनका अयोग्य व्यवहार हो के सर्वत्र प्रतिष्ठा हुआ करे। जैसे सन्तान जितेन्द्रिय, विद्याप्रिय और सत्संग में रुचि करें वैसा प्रयत्न करते रहें।


         ७. जब पाँच पाँच वर्ष के लड़का-लड़की हों तब नागरी अक्षरों का अभ्यास करावें, अन्य देशीय भाषाओं के अक्षरों का भी, उसके पश्चात् जिनसे अच्छी शिक्षा, विद्या, धर्म, परमेश्वर, माता, पिता, आचार्य, विद्वान, अतिथि, राजा, प्रजा, कुटुम्ब, बन्धु, भगिनी, भृत्य आदि से कैसे-कैसे वर्तना, इन बातों के मन्त्र, श्लोक, सूत्र, गद्य, पद्य भी अर्थ-सहित कंठस्थ करावें, जिनसे सन्तान किसी धूर्त के बहकाने में न आवें; और जो-जो विद्या धर्मविरुद्ध भ्रान्तिजाल में गिरानेवाले व्यवहार हैं उनका भी उपदेश कर दें।


         ८. जब तक हम लोग गृह-कर्मों के करनेवाले जीते हैं तभी तक तुमको विद्याग्रहण और शरीर का बल बढ़ाना चाहिये-इसी प्रकार की अन्य-अन्य शिक्षा भी माता और पिता करें; इसीलिए मातृमान् पितृमान् शब्द का ग्रहण उक्तवचन में किया है अर्थात् जन्म से ५वें वर्ष के आरम्भ में द्विज अपने सन्तानों का उपनयन करके जहाँ पूर्ण विद्वान् और पूर्ण विदुषी स्त्री, शिक्षा और विद्यादान करनेवाली हों वहाँ लड़के और लड़कियों को भेज दें।


         ९. यही माता-पिता का कर्त्तव्य-कर्म, परमधर्म और कीर्ति का काम है जो अपनी सन्तानों को तन, मन, धन से विद्या, धर्म, सभ्यता और उत्तम-शिक्षायुक्त करना।


         १०.इसलिये वे ही धन्यवादार्ह और कृतकृत्य हैं कि जो अपने सन्तानों को ब्रह्मचर्य, उत्तमशिक्षा और विद्या से शरीर और आत्मा का पूर्ण बल बढ़ावें।


         ११.कन्यानां सम्प्रदानं च कुमाराणां च रक्षणम् । राजा को योग्य है कि सब कन्या और लड़कों को उक्त समय से उक्त समय तक ब्रह्मचर्य में रखकर विद्वान् करना; जो कोई इस आज्ञा को न माने तो उसके माता-पिता को दण्ड देना अर्थात् राजा की आज्ञा से आठ वर्ष के पश्चात लड़का वा लड़की किसी के घर में न रहने पावें, किन्तु आचार्यकुल में रहैं। जब तक समावर्तन का समय न आवे तब तक विवाह न होने पावें।


         यह बालशिक्षा में थोड़ा-सा लिखा। इतने ही से बुद्धिमान् लोग बहुत समझ लेंगे। 


         अधिविद्य-कक्षा का द्वितीय उपघटक भिक्षा हैपाणिनि मुनि ने भिक्षा पद का अर्थ भिक्षा ही माना है और उसके साथ अलाभ और लाभ भी दिया है-भिक्षायामलाभेलाभे वा। भिक्षा वह पद्धति है जिससे कुमार ब्रह्मचारी हर प्रकार की आर्थिक चिन्ताओं से मुक्त होकर विद्याध्ययन में लगा रह सके। यहाँ तक कि जीवन की परम आवश्यक भूख का समाधान भी भिक्षा द्वारा हो जाता है। पाणिनि मतानुसार कहीं भिक्षा का प्राप्ति होती भी है, कहीं नहीं भी होती, इसकी चिन्ता किये बिना वह गृह-गृह जाकर पुकार लगाता है-भवति! भिक्षां देहि। इस भिक्षा-पद्धति से दोनों ओर लाभ होता है-कुमार बड़ों का सम्मान कर स्वयं विनयी होना सीखता है। जिस गृह से कुछ प्राप्ति नहीं हुई, अलाभ ही रहा, तो भी वह सम्मानसूचक भवति पद का प्रयोग कर गृह-माता का सत्कार करता अपने में विनय का आधान करता है। वह मन ही मन कहता है-दे उसका भी भला जो न दे उसका भी भला। इसीलिए तो नीतिकार ने कहा-विद्या ददाति विनयम्


       वैदिक आश्रम-व्यवस्था में गृहस्थाश्रम को ज्येष्ठ आश्रम कहा गया है। गृहाश्रमी ही ऐसा व्यक्ति है कि जो अपने से इतर आश्रमियों को भिक्षा प्रदान करता है। उसके द्वारा किये जानेवाले पञ्च महायज्ञों में पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ और बलिवैश्वदेवयज्ञ इसी प्रक्रिया का पालन हैं। उसके गृह पर उसके पिता और उसका पुत्र जब भिक्षा माँगते हैं तो दादा-पोता दोनों ही गृह-देवी को भवति भिक्षां देहि कहकर झोली फैला देते हैं। इसी प्रकार संन्यासी भी इन्हीं शब्दों में भवति भिक्षां देहि कहकर गृह-देवी का सम्मान करता है और अपने में किसी प्रकार का दर्प, अभिमान नहीं आने देता। उसे भिक्षा का लाभ हो या अलाभ, वह सब जगह अपना हाथ उठाकर आशीर्वाद देता हुआ एक घर से दूसरे घर की ओर चला जाता है। जहाँ उसे उदर-पूर्ति की भिक्षा प्राप्त हो गई, वहीं बन्द कर देता है। संन्यासी मात्र आठ ग्रास लेता है उससे अधिक नहीं, वानप्रस्थ सोलह ग्रास लेता है उससे अधिक नहीं, ब्रह्मचारी यथेच्छ भोजन करने के निमित्त अपना भिक्षापात्र खोले रहता है।


        उपरिवर्णित भिक्षाचरण से चारित्रिक लाभ तो होता ही है, अलाभ का प्रश्न ही नहीं। दाता और गृहीता १. तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः, २. मा गृधः, ३. कस्य स्विद्धनम्। इन तीन पाठों को प्रतिदिन दोहराता है और धीरे-धीरे यह पाठ दाता गृहस्थ का और गृहीता तीन आश्रमियों के आचरण का अङ्ग बन जाते हैं। इस प्रकार अधिविद्य-संहिता के द्वितीय उपघटक भिक्षा का वर्णन हुआ।


        अधिविद्य-कक्षा के तृतीय घटक को परीक्षा नाम दिया गया है, जिसका उद्देश्य कुमार ब्रह्मचारी को परितः ईक्षण करना आना चाहिये। इसकी विशेष व्याख्या हम कुछ पंक्तियों के पश्चात् करेंगे। उससे पूर्व अधिविद्य कक्षा के चौथे घटक दीक्षा शब्द पर विचार कर लेना उपयुक्त समझते हैं।


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