महर्षि दयानन्द और राजनीति


महर्षि दयानन्द और राजनीति


            वे राजनीति को उपेक्षा नहीं नहीं करते, वरन् राजनीति को भी धर्म का अंग मानते हैं। राजनीति को उन्होंने 'राजधर्म' कहा है और इसके लिए उन्होंने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ-प्रकाश में एक पूरा प्रकरण-छठा समुल्लास लिखा है। वे एकतन्त्र निरंकुश शासन को अमान्यता देते हैं।


'त्रीणि राजाना विदथे पुरूणि परि विश्वानि भूषथः सदांसि।'


आदि वेद मन्त्रों को उद्धृत करते हुए वे तीन सभाएँ-विद्यार्य सभा, धर्मार्य सभा, राजार्य सभा नियत करने को प्रेरणा करते हैंउनकी मान्यता है कि राजा जो सभापति, तदाधीन सभा, सभाधीन राजा और सभा प्रजा के आधीन और प्रजा राजसभा के आधीन रहेइस प्रकार महर्षि द्वारा प्रस्तुत राज्य-व्यवस्था में प्रजातन्त्र के दोषों की सम्भावना नहीं है। मनुस्मृति के आधार पर महर्षि ने राजपरिषद् मन्त्रि परिषद् के सदस्यों की योग्यता, दण्ड-व्यवस्था का स्वरूप राजा और सभासदों की जितेन्द्रियता, मन्त्रियों की योग्यता एवं सदाचरण आदि का बड़ा विशद निरूपण किया है। वे लिखते हैं-


एकोऽपि वेद विद्धर्म यं व्यवस्येद् द्विजोत्तमः।


स विज्ञेयः परो धर्मो नाज्ञानामुदितोऽयुतैः॥५॥


                                                                                               -षष्ठ समुल्लास,


          अर्थात् यदि एक अकेला सब वेदों का जानने हारा द्विजों में उत्तम संन्यासी जिस धर्म की व्यवस्था करे, वही श्रेष्ठ धर्म है। क्योंकि अज्ञानीजन सहस्रों, लाखों, करोड़ों मिलके भी जो कुछ व्यवस्था करें, उसको कभी न मानना चाहिए।


           महर्षि के शब्दों में राजा और प्रजा की परिभाषा इस प्रकार है-'प्रजा उसको कहत हैं कि जो पवित्र गुण-कर्म-स्वभाव को धारण करके पक्षपात रहित, न्याय धर्म के सेवन से राजा और प्रजा की उन्नति चाहती हुई, राज विद्रोह रहित राजा के साथ पुत्रवत् वर्ते।(स्वमन्तव्यामन्तव्य १८) 'राजा उसको कहते हैं जो शुभ गुण-कर्मस्वभाव से प्रकाशमन्, पक्षपात रहित, न्यायधर्म की सेवी प्रजाओं में पितृवत् वर्ते और उनको पुत्रवत् मान के उनको उन्नति और सुख बढ़ाने में सदा यत्न किया करें। -                                -स्वमन्तव्यामन्तव्य 


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