महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज

महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज


             आर्यसमाज की स्थापना ऋषि दयानन्द ने किसी नये मत या सम्प्रदाय के रूप में नहीं की, वरन् जब उनके कुछ भक्तों ने आर्यसमाज की स्थापना के लिए आग्रह किया तो उन्होंने अपना यह भय प्रकट किया था-"कहीं आगे चलकर आर्यसमाज भी एक नया सम्प्रदाय न बन जाय!'


             आर्यसमाज के दस नियम ऋषि दयानन्द की मान्यताओं का दर्पण है। इन दस नियमों में एक भी स्थल पर 'दयानन्द' शब्द नहीं है। आर्यसमाज के तृतीय नियम में महर्षि ने 'वेद का पढ़ना-पढाना सब आर्यों का परम धर्म बताया है' न कि सत्यार्थ प्रकाश आदि का! आर्यसमाज के दस नियम पूर्णतः सार्वभौमिक मानव धर्म के दस सुनहरे सूत्र हैं।


            ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज में व्यक्ति पूजा और गुरुडम के लिए कोई स्थान या अवसर नहीं रखा है। जब उन्हें एक बार आर्यसमाज के 'परम सहायक' सदस्य के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहा तो उन्होंने यह कहते हुए स्वीकार नहीं किया कि यदि 'परम सहायक' हमें कहेंगे तो परम पिता परमात्मा के लिए क्या कहेंगे?


            उन्होंने अपनी मृत्यु के पश्चात् अपनी राख भी किसी किसान के खेत में डालने को कहा तथा उनके नाम से 'समाधि' आदि बनाने का निषेध किया। प्रकट ये आर्यसमाज 'दयानन्द पन्थ' नहीं है। ऋषि ने आर्यसमाज को 'चरित्र निर्माण आन्दोलन' या 'मानव निर्माण आन्दोलन' के रूप में प्रस्थापित किया। उनके निकट वैदिक धर्म सार्वभौमिक मानव धर्म का पर्याय है। आर्यसमाज के दस नियम इसी सार्वभौम मानवधर्म की आधार शिला हैं।


          ऋषि दयानन्द को 'सत्य' सर्वाधिक प्रिय है उनका दृढ़ विश्वास है-'सत्यमेव जयते नाऽनृतम्'। आर्यसमाज के प्रथम पांच सिद्धान्त मूलक नियमों में से प्रत्येक में 'सत्य' शब्द आया है। उन्होंने अपने अमर ग्रन्थ का नाम 'सत्यार्थ प्रकाश' रखा। जब उन्हें विरोध-भय के कारण जोधपुर जाने से भक्तगण रोकने लगे तो उन्होंने कहा था-"यदि लोग हमारी अंगुलियों को बत्तियाँ बनाकर जला दें, तो भी हम सत्योपदेश से मुख नहीं मोड़ेंगे।"


          ऋषि दयानन्द सच्चे समाजवादी थे। आर्यसमाज का नवाँ और दसवाँ नियम इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट न रहकर सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझना ही उन्हें अभीष्ट है। वह रूसी साम्यवाद से भिन्न है। 'अज्ञान, अन्याय' एवं 'अभाव' रूप समाज के इन तीन प्रबलतम शत्रुओं में से कम-से-कम किसी एक को मिटाने के लिए संघर्षरत रहने हेतु 'व्रती' बनकर पूर्ण उत्साह और पुरुषार्थपूर्वक विद्या, बल और धन का अर्जन कर स्वेच्छया इन उपलब्धियों को 'इदन्न मम' की भावना से समाज या राष्ट्र के प्रति समर्पण ही वैदिक समाजवाद है।


           आर्यसमाज के संगठन में उन्होंने 'गुरुगद्दी' आदि की परम्परा को नहीं रखा। धार्मिक क्षेत्र में प्रजातान्त्रिक पद्धति का सर्वाधिक सन्दर प्रयोग ऋषि दयानन्द की महती देन हैयह दसरी बात है कि आगे के आर्यजनों ने उसका सदुपयोग नहीं किया, इतना ही नहीं दुरुपयोग भी किया पर ऋषि दयानन्द की भावना उसके पीछे, झोंपड़ी-झोंपड़ी तक में वेदज्ञान का दीपक जलाने की ही थी।


           आर्यसमाज की संरचना के ऋषि की मूल-भावना "अपने अतीत की हम फिर वर्तमान कर दें।" कभी जो हम थे, आज नहीं हैं, उस गत गौरव को पुनः वापस लाना है। पर ऐसा करते हुए हमें आधुनिक वैज्ञानिक प्रगति तथा अन्य उपयोगी तत्वों को प्राचीनता के व्यामोह में नकारना नहीं है। अतः 'पुरानी नींव नया निर्माण' यह सूत्र उन्होंने हमें दिया।


           हाँ, हमें रंगजी के शब्दों में इतना ध्यान भी अवश्य रखना है-


"वह नहीं नूतन कि जो प्राचीन की जड़ तक हिला दे।


जो पुरातन को नया कर दे, उसे नूतन कहूँगा।"


          गुरुमन्त्र गायत्री के चिन्तन के प्रकाश में हम शाश्वत वैदिक सत्यों के धरातल पर बुद्धिवाद और उपयोगितावाद का प्रयोग करें और "अनृतात् सत्यं उपैमि" की वैदिक सूक्ति से व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व को सजायें। इस क्रम में ही हम अपने पर्व (त्यौहार), संस्कार मनाएँ, साधु-ब्राह्मणों और विद्वानों की पूजा करेंदान-पुण्य करें, तीर्थ-सेवन करें, श्राद्ध-तर्पण करें, जप-तप-साधना करें, समाज व राष्ट्र की अर्चना करें, आश्रम-व्यवस्था और वर्ण-व्यवस्था को अपनाएँ आदि। ऋषि दयानन्द की सम्पूर्ण मान्यताओं का प्राणतत्व है उनका सर्वाधिक प्रिय मन्त्र-


“विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव यद् भद्रन्तन्न आसुव"


          अर्थात् हमारे वैयक्तिक जीवन में, पारिवारिक जीवन में, सामाजिक जीवन में, राष्ट्रीय जीवन में और वैश्व जीवन में, जहाँ भी जो 'दुरित' है, प्रभु हमें उससे आप दूर कीजिए और जो भद्र है उसे जीवन में प्रतिष्ठित कीजिए। हमें इस पञ्चधा जीवन से 'दुरितानि' सभी प्रकार के दुर्गुणों और दोषों को दूर करना ही होगा, तभी ज्योति-केन्द्र 'भद्र' रूप परमदेव की प्राप्ति हो सकेगी।


         महर्षि दयानन्द के मन्तव्यों को इस छोटे से लेख में प्रस्तुत करना वस्तुतः तो 'सागर को गागर' में भरने के तुल्य है। उनके मन्तव्यों को विस्तार से जानने के लिए महर्षि के वेदभाष्य, सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, आर्याभिविनय, पूना-प्रवचनआर्योद्देश्य रत्नमाला आदि महर्षि के साहित्यामृत को पियें और सुख से जियें।


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