महात्मा भगवानदीन की जेल-यात्रा 

महात्मा भगवानदीन की जेल-यात्रा 


(एक दर्शक द्वारा)


      पहली अगस्त को ७ बजे के लगभग हम लोग जेल में गये। आज्ञा प्राप्त करने में कुछ भी दिक्कत नहीं उठाना पड़ी। महात्मा जी बेतूल में आने पर अस्पताल में रखे गये थे। यह स्थान काफी हवादार और लम्बा चौड़ा था। थोड़ी ही देर में महात्मा जी की प्रशान्त मुद्रा सामने दिखाई दी। उस समय जो दशा हम लोगों की हुई उसका वर्णन करना इस छोटे से पत्र में असम्भव है। महात्मा जी केवल एक जांघिया और चादर से शरीर ढके हुए थे। सरकारी कोई भी वस्तु न लेने का उन्होंने प्रण किया है। नल सरकारी है सरकार को उनके लिए पानी देना पड़ता है, इसी कारण पानी भी नल का न लेकर कुंए का पीते हैं। जेल का कुर्ता, कम्बल कुछ भी नहीं लेते। अपने पैसे ही की चादर और चटाई का प्रयोग करते हैंयहां कोई दूसरा आदमी बोलने चालने तक को नहीं आता तथा शरीर दुर्बल और पीला हो रहा था। ऐसा प्रतीत होता है कि बहुत समय से बीमार हैं। जठराग्नि के अत्यन्त निर्बल हो जाने से केवल फलाहार करते हैं। बहुत कुछ कहने से मट्ठा लेना आरम्भ किया है। हम लोग सींखचों के बाहर से मिलाये गये। बातचीत आरम्भ हुई। महात्मा जी ने अपनी सारी कहानी इस प्रकार सुनाई-


      "सिवनी में सजा होने पर मैं सिवनी जेल में आया। उसी दिन मुझे जबलपुर लाया गया। पकड़े जाने पर मेरा वजन ११५ पौण्ड था, पर जबलपुर जाने से पहले १११ पौण्ड ही रह गया था। मैं जबलपुर आ गया, पर उस दिन मुझ से किसी ने भोजनादि की किसी भी बात के लिए नहीं पूछा। दूसरे दिन मेरे सामने जेल का भोजन लाया गया। मैंने जेल का भोजन खाने से इन्कार कर दिया। तीन दिन तक मैंने कोई भोजन नहीं किया। चौथे दिन से जेलर द्वारा यह बतलाये जाने पर कि अब बाहर से भोजन मिलेगा, खाना आरम्भ किया। पर एक कैदी के कहने पर कि खाना जेल ही से आता है और एक जमादार द्वारा कैदी की बात की पुष्टि करने पर मैंने जेलर से पूछा। उसने मुझे फिर यही विश्वास दिलाया कि भोजन बाहर से ही आता है, पर शंका समाधान न होने के कारण मैंने सुपरिण्टेण्डेण्ट से पूछा। उन्होंने सच-सच बतला दिया कि खाना जेल ही का है। यह जान कर मुझे बहुत दुःख हुआ और मैंने माजम न छोड दिया। अब की बार ५ दिन तक कुछ न खाया। शरीर बहुत गिर गया। वजन १०४ पौण्ड ही रह गया, पर भोजन कर लेना असम्भव था। पांचवां दिन परीक्षा का दिन था। ऐसा प्रतीत होता था कि शरीर छुट जायेगा। हजार बहलाने का प्रयत्न करता था किन्तु बेचैनी दूर न होती थी। उसी समय मुझे 'मेकस्विनी' की याद आई। मैं सोचने लगा कि मेकस्विनी ७५ दिन तक जीवित नहीं रह सकता था। कम से कम उसने पानी तो अवश्य लिया होगा। अस्तु। वह दिन कट गया। छठे दिन सपरिण्टेण्डेण्ट साहब ने आकर बहुत कुछ समझाया और यह सीख कर गये कि प्रण किसे कहते हैं और कैसे पालन किया जाता है? अव श्रीयुत केलकर आये और मुझे बाहर का भोजन दिलाने का प्रबन्ध कर गयेखैर, मैंने खाना आरम्भ कर दिया पर दो तीन दिन ही के बाद जेल के अधिकारियों ने मुझे बतलाया कि अब से बाहर का खाना नहीं दिया जायेगा, सरकारी आज्ञा हैतीन दिन तक मुझे फिर खाना नहीं दिया गयामैं भूखा ही रहा। अब तक रस्सी बंटने को दी जाती थी, अब चक्की पीसने की धमकी दी गई। प्रण की परीक्षा के लिए चक्की का दण्ड मैंने सहर्ष स्वीकार किया। सरकारी हुक्म आने पर भी मेरे प्रण की जांच के लिए उन्होंने खाना देना बंद कर रखा। उनके सब प्रयत्न फुसलाना और धमकियां मेरे कठिन दृढ संकल्प के आगे तनिक भी न ठहर सके। सब कोशिशें फिजूल गईंमुझे बाहर का भोजन मिलना शुरू हो गयामेरा वजन ११४ पौण्ड तक पहुंच गया था। चक्की दी जाने पर १०९ रह गया। अत्यन्त प्रयत्न करने पर भी मैं १० सेर आटा नहीं पीस सकता था। पीसते-पीसते जब प्यासा हो जाता था, तो चक्की छोड़ते ही आकर भोजन न करके डटकर पानी पी लेता था। इसी ने मुझे नुकसान पहुंचाया और यही कारण था कि आगे चलकर मेरी जठराग्नि इतनी मन्द हो गई। कुछ दिन तक मुझे सेल (Cell) में रखा गया था, किन्तु स्वास्थ्य खराब होने पर मुझे रहने के लिए (European) यूरोपियन वार्ड में स्थान दिया गया। वहां रहने के थोड़े ही समय बाद मुझे बेतूल भेज दिया गया। अब मेरा वजन १०७ पौण्ड है। यद्यपि मैं वजन में इतना घट गया हूं और कमजोर दिखाई देता हूं जिसका कारण मैं अब तक नहीं खोज पाया हूं और न खोजने के प्रयत्न में ही हूं। मैं समझता हूं मुझमें ताकत उतनी ही बनी हुई है जितनी कि पहले थीयह कहते-कहते उन्होंने अपना हाथ मेरे सामने फैला दिया और कहा कि देख लो मेरा शरीर कितना मजबूत और कितना सख्त है। रस्सी बटने का काम है। एक सेर सन मुझे रोजाना दिया जाता है जिसे कि मैं बड़ी आसानी से झटपट खत्म कर डालता हूं। खाली वक्त मिलता है तो मैं ध्यान लगाता हूं। ध्यान में मुझे आनन्द आता है। नहीं तो किताब ही पढ़ता रहता हूं। किताब मुझे धार्मिक ही दी जाती है। मुझे यहां बड़ा आराम है और हर तरह से आराम देने की कोशिश की जाती है। सरकार तो मुझे सब कुछ देती है किन्तु मैं उसे अस्पश्य समझकर दूर ही रखता हूं। कहीं भी किसी जेल के अधिकारी ने मेरे साथ कोई बुरा व्यवहार नहीं किया और न ऐसा करने की किसी तरह की इच्छा ही प्रकट की। उन्होंने मुझे सहानुभूति की दृष्टि से देखा और मैंने भी देखा कि उस सहानुभूति में अन्तःकरण के प्रति अपराधित्व और तदर्थ पश्चात्ताप की स्वीकारिता की पूरी-पूरी झलक थी |


      मेरे पूछने पर कि आप अपने दो भाइयों के लिए कुछ कहना चाहते हैं? महात्मा जी ने कहा कि “मुझे विशेष कहना नहीं है।" बस यह समय है कि सब पूरी तरह से जुट पड़ें और सदा यह ध्यान रखें कि "Self Government is never demanded, it is earned." हां, उन्होंने कहा लोग इस तरह से मिलकर मुझे तंग न करें। न मुझे किसी तरह के पत्र ही लिखें। मैं नहीं चाहता कि तुम मुझसे मिलने के लिए ऐसी सरकार की इजाजत मांगो जिससे कि तुम असहयोग करने को कहते हो! जेल में रहकर मिलने और पत्र लिखने में क्या आनन्द ? मिलना वह होगा और उसी मिलने में आनन्द भी होगा जब कि हम स्वतन्त्र होंगे। मैं पूरी तरह से आनन्द में हूं और रहूंगा। और क्या चाहते हो? बस, मुझे एकान्त में रहने दो।


      सुन्दरलाल जी और चतुर्वेदी जी की बात छिड़ने पर उन्होंने उनके स्वास्थ्य के विषय में विशेष चिन्ता प्रकट की। सुन्दरलाल जी के बारे में उनके ये शब्द थे-"सुन्दरलाल जी का खूब ख्याल रखना। उसने बचपन में संखिया खा लिया था। अगर उसे आध पाव घी रोज न मिला तो वह मर जायेगाजाकर उस के लिए घी का इन्तजाम जरूर करा देना।"


      उनको सिर्फ तीन घण्टे भोजन पकाने के लिए अपने कमरे से बाहर आने की आज्ञा मिलती है। उनको किसी भी आदमी से मिलने नहीं दिया जाता। ड्रेस के कपड़ों में रखी हुई पीली टोपी से मालूम हुआ यह Third Class की कैदियों की श्रेणी में रखे गये हैं। और कैदियों के समान उनके गले में टिकट नहीं था। पहले उनको कागज पेंसिल मिलने की इजाजत नहीं थी, किन्तु अब वे कागज पेंसिल रख सकते हैं |


      हर बात से महात्मा जी की अनुपम शक्ति टपकती थी। समय आया और लोगों को अपनी आराध्य मूर्ति से बिछुड़ना पड़ा। और देखते ही देखते दाढ़ी विहीन और पीला किन्तु तेजस्वी और प्रसन्न मुखमण्डल विलुप्त हो गया। 


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