महाराष्ट्र का सिंह : शिवराम हरि राजगुरु

महाराष्ट्र का सिंह : शिवराम हरि राजगुरु


दिख रहे थे मल्ल से जो, कसरती जिनका है तन-बदन।


छोड़ा बचपन में घर-द्वार, छोड़े अपने बन्यु-बान्यव।।


वे भटकते अध्ययन के लिए, काशीजी जा पधारे।


राजगुरु थे, शिवा की भूमि के उज्ज्वल सितारे।।


वीर शिवाजी सचमुच, थे वे जलता शोला


वीर वासुदेव बलवन्त, थे ये आग का गोला।।


वीर चाफेकर बन्यु तीन, तीनों ने फाँसी पाई।


वीर राजगुरु ने, भगत-सुखदेव संग फाँसी खाई।


          बच्चा जन्म लेता है और जन्म के बाद रिश्तों से वह धनी-मानी बन जाता है। जैसे माँ-बाप, मामा-मामी, काका-काकी, बहन-भाइयों के रिश्तों से बँध जाता है। रिश्तेदारी की बन्धनों में बालक अजर-अमर बना रहता है। किन्तु प्रारब्धानुसार स्नेह-प्यार में सगे बन्धनों से बढ़कर मनुष्य-हमराज, हमकदम, हमदर्द, हमदम, हमसफर, हम इंतकाल के बल पर मनुष्य की संसार में विविध अमर कहानियाँ भी स्थापित हो जाती हैजो भविष्य में इनकी मिसालें बन जाती हैं। ऐसे ही क्रान्तिकारी सुखदेव पंजाब प्रान्त के लुधियाना जिले केसरदार भगतसिंह लाहौर जिले के तथा राजगुरु महाराष्ट्र के पूना जिले के, ये तीनों अलग-अलग स्थानों के निवासी होकर क्रान्ति की हम-विचारधारा, इनका कर्म क्षेत्र आजादी का होकर एक ही तिथि, वार, वर्ष, एक ही जेलखाने में परस्पर गले मिलकर फाँसी के फन्दों पर लटककर शहादत की एक अभूतपूर्व मिसाल विश्व में प्रस्तुत की, जो भविष्य की पीढ़ियों के लिए अजर-अमर इनकी कुर्बानी की याद दिलाती रहेगी।


        दिनांक २४.८.१९०८ को महाराष्ट प्रान्त के जिला पूना के खेड़ा नामक गाँव में शिवराम हरि राजगुरु का जन्म हुआ था। पिता का नाम हरिनारायण और माता का नाम पार्वतीबाई था। राजगुरु की छ: वर्ष अवस्था में ही पिता का साया उठ गया। अपने बड़े भाई दिनकर के साथ पूना में रहने लगे। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा मराठी भाषा में हुई। राजगुरु की पढ़ाई में विशेष रुचि नहीं थी। इसलिए भाई-भोजाई ने इन्हें घर से निकाल दिया। और वे पूना से नासिक, झाँसी, कानपुर तथा लखीमपुर होते हुए काशी पहुँच गए। हिन्दू धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन किया। संस्कृत के लघु सिद्धान्त कौमदी जैसे कठिन ग्रन्थ को राजगुरु ने कंठस्थ कर लिया था। वे वीर शिवाजी के अनन्य भक्त थे, शिवाजी की गाथाओं के बहुत बड़े प्रशंसक थेलोकमान्य तिलक के जीवन से वे बहुत प्रभावित हुए। राजगुरु ने १६ हिन्दुस्थान रिपब्लिक आर्मी के प्रशिक्षण में भर्ती होकर निशानेबाजी में अव्वल दर्जे की दक्षता हासिल कर ली। तत्पश्चात् चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह, सुखदेव, यतीन्द्रनाथ दास आदि क्रान्तिकारियों के गहरे मित्र बन गए।


          इन क्रान्तिकारियों ने शिव वर्मा, राजगुरु को यह उत्तरदायित्व सौंपा कि दिल्ली में एक गद्दार को मौत के घाट उतारना है जो कि वह प्रतिदिन शाम को घूमने जाया करता है। शिव वर्मा और राजगुरु ने छिप-छिपकर उसकी गतिविधियों का पता लगा लिया। इन दोनों के पास एक ही रिवॉल्वर था, अस्तु शिव वर्मा एक रिवॉल्वर लेने भगतसिंह के पास लाहौर चले गए। इस दरमियान एक दिन शाम को राजगुरु ने देखा कि बहुत सुनसान माहौल था, वही गद्दार अकेला घूमने निकला है। राजगुरु ने उसे मारने का सुअवसर देखा और तेज कदमों के साथ उसके करीब पहुँचकर बहुत ही पास से उस पर गोली दाग दी। जिससे वह जमीन पर धराशायी हो गया। राजगुरु ने सोचा कि कहीं यह जिंदा न रह जाए, अस्तु एक गोली और दागते हए वहाँ से नौ-दो-ग्यारह हो गए। गोलियों की आवाजें सुन पुलिस की दौड़-धूप और सीटियाँ बजने लगी और टार्च की रोशनियाँ अपराधी को पकड़ने हेतु जल उठी। राजगुरु ने सोचा कि मैं सड़क रास्ते से भागता रहा तो मोटर गाड़ियों द्वारा पकड़ा जाऊँगा। अत: रेल लाइन के रास्ते भागने लगा। पुलिस गाड़ियाँ रेल पथ के समानान्तर वाली सड़क से पीछा कर रही थी। तो राजगुरु ने खेतों की ओर भागना शुरू किया।


        वह गन्ने के खेत में पहुँचा, जिसमें हाल ही में पानी से सींचा गया था और कीचड़ हो गया था। जिसमें वह लेट गया ताकि किसी को दिखाई न पड़े। सर्दी के दिन थे, ठंड के मारे वे बेहाल थे। पुलिस भी उसी खेत में आ पहँची, वहाँ पानी और कीचड़ को देखकर केवल टार्च की रोशनी फेंकते और तनिक पत्तों के खड़खड़ाने पर गोली दाग दिया करते थे। राजगुरु दो-तीन घंटे बाद खेत से बाहर निकले। पैदल चलकर एक स्टेशन पार किया, अगले स्टेशन पर उसे मथुरा जाने वाली एक ट्रेन मिल गई। सौभाग्य से वह ट्रेन मथुरा स्टेशन के आउटर पर रुकी, राजगुरु उतरे और यमुना नदी की ओर चल दिए, वहाँ स्नान किया, कपड़े जब तक सूखते, सुबह हो गई। फिर वह स्टेशन पहुंचे और गाड़ी पकड़कर कानपुर जा पहुँचे। जब अखबार में दिल्ली की घटना का विवरण पढ़ा तो पता चला कि दूसरे ही व्यक्ति को मार दिया, वह गद्दार तो जिन्दा है। राजगुरु को बहुत ही पश्चाताप हुआ।


 


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