मांस मनुष्य का भोजन नहीं है


मांस मनुष्य का भोजन नहीं है 


       किसी भी पशु, पक्षी का मांस या मछली, अण्डा आदि मनुष्य का भोजन नहीं है। मांस जहां मनुष्य शरीर के लिए हानिकारक है वहां मन, बुद्धि और आत्मा के लिए भी जहर है। वैदिक साहित्य में मांस खाने की पूरे तौर पर मनाही. की गई है-वैद्यक शास्त्र में भी तथा धर्म शास्त्र में भी।


यो बन्धनवधक्लेशान्प्राणिनां चिकीर्षति।


सर्वस्य हितप्रेप्सुः सुखमत्यन्तमश्नुते॥ १॥


 


नाकृत्वा प्राणिनां हिंसा मांसमुत्पद्यते क्वचित्।


प्राणीवधः स्वय॑स्तस्मान्मांस विवर्जयेत्॥२॥


 


सत्यत्तिं मांसस्य वधबन्धौ देहिनाम्।


प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात्॥ ३॥


 


योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया।


जीवश्च मृतश्चैव क्वचित्सुखमेधते॥४॥


 


अनुमन्ता विशसिता .निहन्ता क्रयविक्रयी।


                    संस्कर्ता चोपहर्ता खादकश्चेति घातकाः॥ ५॥  (मनुस्मृति)


        अर्थजो प्राणियों को बन्धन में डालने, उनका वध करने और उनको पीड़ा पहुँचाने की इच्छा नहीं करता, वह सब प्राणियों का हितैषी बहुत अधिक सुख को प्राप्त करता है।। १॥


       प्राणियों की हिंसा किए बिना कभी मांस प्राप्त नहीं होता। जीवों की हत्या करना सुखदायक नहीं है। इस कारण मांस नहीं खाना चाहिये।॥ २॥


       मांस की उत्पत्ति प्राणियों की हत्या और बन्धन के कष्टों को देखकर सब प्रकार के मांस भक्षण से दूर रहना चाहिये।। ३॥ 


       जो व्यक्ति अपने सुख की इच्छा से अहिंसक निर्दोष प्राणियों की हत्या करता है वह जीते हुए और मर कर भी सुख को प्राप्त नहीं करता।। ४॥


        पशुओं को मारने की आज्ञा देने वाला, मांस काटने वाला, पशुओं को मारने वाला, पशुओं को मारने के लिए मोल लेने और बेचने वाला, मांस पकाने वाला, मांस परोसने वाला और मांस खाने वाला ये सब हत्यारे और पापी हैं।॥ ५॥


        वेद में पशुओं को पालने का तथा उनकी रक्षा करने का अनेक स्थानों पर आदेश है॥


अविर्मा हिंसी: गां मा हिंसी: एकशफंमा हिंसीः। (यजुर्वेद)


अर्थ--ऐ मनुष्य ! तू भेड़, गाय, एक खुर वाले घोड़े आदि पशुओं को मत मार 


प्रजां मे पाहि शंस्य पशून् मे पाहि। (यजुर्वेद)


अर्थ-हे जगदीश्वर ! आप मेरी प्रजा और पशुओं की रक्षा कीजिए


यदि नो गां हंसि यद्यश्वं यदि पूरुषम्।


तं त्वा सीसेन विध्यामो यथा नोऽसो अवीरहा॥ (अथर्ववेद)


अर्थ-हे दुष्ट ! यदि तू हमारे गाय, घोड़ा आदि पशुओं की या पुरुषों की हत्या करेगा, तो हम तुझे सीसे की गोली से बींध देंगे ताकि तू इन्हें फिर न मार सके।'


जीवितुं यः स्वयं च इच्छेत्कथं स अन्यं प्रधातयेत्।


यद्यदात्मनि चेच्छेत् तत्परस्यापि चिन्तयेत्।।


(महाभारत, शान्तिपर्व २५६-२२)


        अर्थ-जो स्वयं जीने की इच्छा रखता है वह दूसरों को कैसे मारता है। प्राणी जैसा अपने लिए चाहता है वैसा ही दूसरों के लिए भी चाहे।


मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः। (ऋग्वेद १-११४-८) 


       अर्थ-हमारी गौओं और हगारे घोड़ों को मत गार


ये आमं मांसं अदन्ति पौरुषेयं च ये क्रविः।


      गर्भान् खादन्ति केशवाः तान् इतः नाशयामसि॥ (अथर्ववेद)


        अर्थ--जो लोग कच्चा मांस खाते हैं, जो मनुष्य का मांस खाते हैं तथा जो गों अर्थात् अण्डों को खा जाते हैं, उन लोगों का समूल नाश कर दिया जाना चाहिये 


        वेदों में खाने पीने के सम्बन्ध में गेहूँ, जौ, चावल आदि अनाज तथा फल, सब्जियां, दूध, घी आदि का ही वर्णन है, मांस का कहीं भी नहीं।


जो रत्त लगे कापड़े, जामा होई पलीत।


जो रत्त पीवहिं माणसा, तिन किऊँ निरमल चीत॥


(माझ की बार, मुहल्ला १-१-६)


        कबीर जी कहते हैं :-


पीड़ सभन की एक सी मूर्ख जाने नाहीं।


अपना गला कटाए के, बहिष्त बसे क्यों नाहीं॥


कबीरा ! सोई पीर है जो जाने पर पीड़।


जो पर पीड़ न जान्हीं, सो काफिर बे पीर॥


      मांस क्रूरता से प्राप्त होता है। इसलिए मांसाहारी मनुष्य क्रूर बन जाता है। उसमें दया आदि उत्तम गुण नहीं रहते। किन्तु स्वार्थवश होकर दूसरे की हानि करके अपना प्रयोजन सिद्ध करने में ही लगा रहता है। जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन। मनुष्य जाति में हिंसा, क्रूरता तथा निर्दयता आदि के आ जाने से सब मनुष्यों तथा प्राणियों के लिए सुख खत्म हो जाता है।


       मांस में यूरिक एसिड आदि कई प्रकार के विष तथा रोगकारक अंश पाए जाते हैंशाकाहार में कोई रोगाणु नहीं रहते, अपितु रोग नाशक होते हैं। मांस आहार उत्तेजना कारक है। मांस खाने से अन्य बुराईयां भी आ जाती हैं।


       एक बार टहलते हुए राजा भोज की दृष्टि एक भिखारी पर पड़ी जो मांस की दुकान से मांस खरीद रहा था। राजा भोज ने भिखारी से पूछा-ऐ भिखारी ! क्या तुम मांस खाते हो ? भिखारी ने उत्तर दिया-शराब के बिना मांस का क्या मजा है।


       राजा-अच्छा तो तुम्हें शराब भी प्रिय है ?


       भिखारी-शराब और मांस वेश्याओं के साथ बैठकर पीता खाता हूँ, अकेला नहीं।


       राजा-वेश्याओं का संग तो धन के बिना नहीं होता, तुम्हारे पास धन कहां से आता है ?


       भिखारी-मैं चोरी करके तथा जुआ खेलकर वेश्याओं के लिए धन संग्रह करता


       राजा ने आश्चर्य से कहा-तुम चोरी करते हो और जुआ भी खेलते होभिखारी की दयनीय दशा पर शोक प्रकट करते हुए राजा ने आगे कहा भ्रष्ट व्यक्ति का इससे अधिक और क्या पतन हो सकता है।


        मांस भक्षण पर महर्षि दयानन्द के विचार-वेदों में कहीं मांस खाना नहीं लिखा। शुभ गुण युक्त सुखकारक पशुओं के गले छुरी से काटकर जो अपने पेट भर सब संसार की हानि करते हैं क्या संसार में उनसे भी अधिक कोई विश्वासघाती अनुपकारी दुःख देने वाले और पापी जन होंगे?


         ईश्वर सब प्राणियों का पिता है और सब प्राणी उसके पुत्र हैं ऐसा भाव दिखला कर महर्षि लिखते हैं-भला कोई मनुष्य एक लड़के को मरवाए और दूसरे लड़के को उसका मांस खिलावे ऐसा कभी हो सकता है ? हे मांसाहारियो ! तुम लोग जब कुछ काल के पश्चात् पशु न मिलेंगे तब मनुष्यों का मांस भी छोड़ोगे या नहीं ? ..


        महर्षि दयानन्द की बेजवान पशुओं की ओर से मनुष्यों के प्रति अपील-धार्मिक सज्जन लोगो ! आप हम पशुओं की रक्षा तन, मन और धन से क्यों नहीं करते? हाय ! बड़े शोक की बात है कि जब हिंसक लोग गाय, बकरे, पशु और मुर्गा आदि पक्षियों को मारने के लिए ले जाते हैं तब वे अनाथ तुम हम को देख के राजा और प्रजा पर बड़ा शोक प्रकाशित करते हैं कि देखो हम को बिना अपराध बुरी तरह से मारते हो और हम रक्षा करने तथा मारने वालों को भी दूध आदि अमृत पदार्थ देने के लिए उपस्थित रहना चाहते हैं, और मारे जाना नहीं चाहते। देखो, हमारा सर्वस्व परोपकार के लिए है और हम इसलिए पुकारते हैं कि हम को आप लोग बचावें। हम तुम्हारी भाषा में अपना दुःख नहीं समझा सकते और आप लोग हमारी भाषा नहीं जानते। नहीं तो क्या हम में से किसी को कोई मार सकता ? हम भी आप लोगों की तरह अपने मारने वाले को न्याय व्यवस्था से फांसी पर न चढ़वा देते ? हम इस समय अतीव कष्ट में हैं क्योंकि कोई भी हमारे बचाने में उद्यत नहीं होता और जो कोई होता है तो उससे मांसाहारी द्वेष करते हैं।


        अश्वमेध, गोमेध और नरमेध का अर्थ महर्षि दयानन्द के शब्दों में-राजा न्याय धर्म से प्रजा का पालन करे, विद्या आदि दान देने हारा यजमान और अग्नि में घी आदि का होम करना अश्वमेध, अन्न, इन्द्रियां, किरण, पृथिवी आदि को पवित्र रखना गोमेध, जब मनुष्य मर जाए उसके शरीर का विधिपूर्वक दाह करना नरमेध कहाता है।


        विदेशी विद्वानों के मांस के विषय में विचार


       जार्ज बर्नड शा की एक कविता का भाव कुछ इस प्रकार है-मांस खाने वाले चलती फिरती कबरें हैं जिनमें मरे हुए जानवरों की लाशें दफन की गई हैं।


      शेख अबुलफजल ने 'आइने अकबरी' के प्रथम भाग में लिखा है-मांस कोई पदार्थ नहीं है। यह वृक्ष की टहनियों पर नहीं लगता। यह जमीन के पेट में से भी नहीं निकलता। यह तो पशु, पक्षियों की लाशों से प्राप्त होता है।


      रूस के सुप्रसिद्ध लेखक तथा विचारक टालस्टाय को एक बूचड़खाने के समीप से गुजरना पड़ा। उन्होंने जो भयानक दृश्य देखा उस का वर्णन उन्हीं के शब्दों में-बाहर से आने वाले पशु वधशाला में प्रवेश करने से बहुत घबराते थे। कारण यह कि बूचड़खाने के प्रवेश द्वार पर ही काटे गए पशुओं के खून की दुर्गन्ध से वे अधीर हो जाते थे। भीतर कट रहे पशुओं का आर्तनाद उन्हें व्याकुल कर देता था। उनकी पूंछों को बहुत बुरी तरह से मरोड़कर उन्हें अन्दर धकेला जाता था। पशु बाहर भागने के लिए यत्न करते थे। इसी दौड़ धूप में उनके शरीरों से रक्तपात होने लगता थाआखिर मारे जाते थे। इस खूनी दृश्य को देखकर दूसरे पशु भी भयभीत होकर कांपने लगते थे। जैसी निर्दयता से अत्याचार, कष्टदायक व्यवहार इन मूक प्राणियों के साथ यहां होता है उसका उदाहरण और कहीं नहीं मिलता।


        डाक्टर जोसिसा फील्ड लिखते हैं-"भूलिये मत । प्रत्येक जीवित प्राणी जीवन के आनन्द और मरने के भय से परिचित हैवह आप की भांति सुख दुःख का अनुभव करता है।"


        पश्चिमी देशों के मांसाहारियों को अब एक नई बीमारी का पता चला है जिसका नाम है 'मैड काऊ डिजीज'वे कहते हैं कि जब गाय को मारने लगते हैं तब भय के कारण गाय का मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है और उस बिगाड़ का प्रभाव उसका मांस खाने वाले मनुष्यों पर भी पड़ता है। ऐसी ही कुस्थिति अन्य पशुओं को मारने तथा उन्हें खाने पर क्यों नहीं होती होगी।


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