मानव जीवन की महत्ता


            मानव सृष्टि का श्रेष्ठतम तथा सृष्टि का शिरोमणि एवं अदभुत प्राणी है । जो सृष्टि के सम्पूर्ण प्राणियों में बुद्धिमान तथा विवेकवान
है । संसार के सभी प्राणियों पर शासन एवं अधिकार जमाने वाला है । यही नहीं यह भौतिक वस्तुओं की जहाँ अनुसंधान करता है वहीं उनको परिमार्जित एवं नया रूप देकर मानव उपयोगी बनाता है । जो मानव जीवन को सुखमय तथा आनन्दमय बनाते हैं । ईश्वर प्रदत्त अनेक औषधियों को मानव ने जहाँ स्वयं के लिए उपयोगी बनाया है वहीं अन्य प्राणियों के कल्याणार्थ भी निर्मित किया है । जिससे मानव तथा अन्य प्राणी वर्ग भी स्वस्थ तथा निरोग रह सकें मानव परमात्मा की सर्वोत्तम देन है । सभी प्राणियों को केवल भोग योनि में ईश्वर ने भेजा है उन्हें केवल भोग करने का अधिकार प्राप्त है परन्तु मनुष्य को भोग तथा कर्म करने का अधिकार है । वह सत्कर्म कर अपने तथा अन्य प्राणियों के जीवन को सुखमय बनाने के लिए है । वेद में मानव के लिए संदेश है- कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीवेषेशतम् समाः। यजु० ॥ सत्कर्मो को करते हुए सौ वर्ष जीने की कामना करो । प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि सम्पूर्ण जीवन कर्म करता रहे आलसी, अकर्मण्य जीवन न जिए तथा निठल्ला और निकम्मा जीवन न बिताए ।


             मानव का शरीर अन्य प्राणियों से भिन्न परमात्मा ने बनाया है मानव शरीर की संरचना भी अन्य प्राणियों से अद्भुत तथा अनोखी है । शरीर से ही सुखों को भोगा जाता है, यदि शरीर स्वस्थ नहीं है तो सभी भोग-पदार्थ, धन-दौलत व्यर्थ है इसीलिए दुनिया की सबसे बड़ी सम्पत्ति स्वस्थ शरीर है शरीर रोगी होने पर सभी श्रेष्ठ वस्तुयें भी आकर्षणहीन तथा निरर्थक लगती है । संसार की यात्रा शरीर से ही करनी है, इस शरीर को धर्म का साधन और दैवी नाव भी कहा गया है यह दुर्लभ मानव योनि अनेक जन्मों के पुण्यों के बाद बड़े सौभाग्य से प्राप्त होती है । सृष्टि मानव के बिना अपूर्ण और महत्वहीन है । मनुष्य ही सृष्टि का सौंदर्य है इसी से ही संसार की उपयोगिता है ।


          सुन्दर संसार को परमात्मा ने मानव के लिए कर्मक्षेत्र बनाया है, मानव जीवन से ही जगत है। मनुष्य शरीर पाना सबसे बड़ी उपलब्धि है । जीवन की कीमत उनसे पूछो जो रोगी है, अपंग है, विकलांग हैं । मानव के एक-एक अंग की कीमत अमूल्य है । मनुष्य योग के अभ्यास तथा ज्ञान, कर्म और उपासना के साधना से मोक्ष प्राप्त कर सकता है यह अन्य प्राणी नहीं कर सकते । मनुष्य की संरचना तथा अन्य पशु-पक्षी की संरचना भी प्रभु ने अलग तरह की किया है । संसार में किसी भी पशु-पक्षी का शिर मनुष्य के समान ऊपर की ओर नहीं हैं । सभी का शिर नीचे की ओर होता है । इसका कारण शायद यह है कि पाप कर्म करने वाले का शिर नीचे तथा पुण्य कर्म करने वाले का शिर ऊपर ऊँचा होता है। मनुष्य शरीर में श्वास-प्रकिया सृष्टि का अद्भुत चमत्कार है ।


             मानव शरीर सम्पूर्ण प्राणियों की शरीरों से विलक्षण तथा अद्भुत रचना प्रभु ने बनाया है । मशीनरी ऐसी कि लाखों नस-नाड़ियों से संचालित होती है ईश्वर ने इसे श्वासों के सरगम से जोड़ दिया है। श्वास बन्द हो जाय तो शरीर का सारा खेल समाप्त हो जाता है । आज तक विश्व के कोई विशेषज्ञ डाक्टर पूरी तरह से इस शरीर विज्ञान को नहीं समझ सके हैं । महाकवि व्यास जी ने महाभारत में कहा है- नही मानुषात श्रेष्ठतरं हि किंचित् l


                          “जगत में मनुष्य शरीर तथा जीवन से श्रेष्ठ कुछ भी नही है ।"
             मनुष्य देह संसार में दुर्लभ तथा श्रेष्ठ सभी अन्य योनियों से है । यह अमूल्य मानव-जीवन प्रभु द्वारा दिया गया आत्मा का स्वर्णिम वरदान है । शरीर आत्मा का मन्दिर है इसमें ईश्वर का निवास है वह सर्वज्ञ, सर्वव्यापक प्रभु इसकी सदैव देख-रेख में लगा रहता है । लोग ईट-पत्थर से मन्दिर बनाते है उसे साफ-सुथरा व सुगन्धित रखते हैं परन्तु हम हैं कि प्रभु प्रदत्त जागृत चेतन शरीर-मन्दिर को अनेक बुराइयों- काम, कोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, हिंसा से तथा दोषों से भरकर इसकी पवित्रता को नष्ट कर देते हैं । इसकी पवित्रता तथा स्वच्छता यदि बनी रहे तो यह एक श्रेष्ठ पहचान से जानी जाती है। किसी कवि ने कहा है-


तूने मुझको जग में भेजा, देकर निर्मल काया l
आकर के संसार में मैंने इसको दाग लगाया ।l


             उस परमात्मा की प्रशंसा तथा धन्यवाद करो और स्मरण करो आत्मा के संयोग से ही शरीर की पवित्रता तथा मूल्य है । यह जीवन यदि व्यर्थ मे गवाँ दिया तो आगे क्या पता यह जीवन मिले या न मिले । जब से सृष्टि का सृजन हुआ है जीव आवागमन के चक्र में चक्कर लगा रहा है । हम लोग न जाने कितनी योनियो से होकर यात्रायें की है परन्तु मानव जन्म का अवसर कभी-कभी प्राप्त होता है। संत कवि तुलसीदास ने बड़े मार्मिक ढंग से जीवन की महत्ता का वर्णन किया है - बड़े भाग मानुष तन पावा । सुर दुर्लभ सग्रंथहि गावा । -मानस० जन्म-जन्मान्तर के पश्चात् उत्तम कर्मो से पुण्यशाली लोंगो को मानव जीवन प्राप्त होता है l सभी जीव को यह जीवन दुर्लभ है । संसार में चौरासी लाख योनियों का जाल बिछा हुआ है अनन्त जीव भोग चक्र में चवकर लगा रहे है । जल, थल तथा नम में असंख्य जीवन भोग चक्र में घूम रहे हैं । इनमें अनेक जन्म लेते हैं मरते रहते हैं । मच्छर, मक्खी, कीड़े-मकोड़े जैसे जीवों का जीवन अति अल्प होता है । समस्त योनियों में मानव जीवन ही श्रेष्ठतम् है । वेद में मानव जीवन की दिव्यता तथा श्रेष्ठता का सन्देश मिलता है- अष्ट चक्रा नव द्वारा देवानामं पूरयोध्या । अथर्व मानव शरीर को वेद ने अयोध्या नगरी से सम्बोधित किया है अर्थात इसको कोई अन्य शरीरधारी पराजित नहीं कर सकता इसमें दिव्य देवों का निवास होता है । इसमें आठ चक्र तथा नौ द्वार हैं यह शरीर परमात्मा का बनाया मन्दिर है । मानव शरीर अदभुत शक्तियों का भण्डार है, इसको विशेष बुद्धि, इन्द्रियाँ और विवेक प्राप्त है और सोचने, समझने और निर्णय लेने की शक्ति प्राप्त
है । मानव मस्तिष्क के विलक्षण और आश्चर्यजनक क्रिया कलापों के समक्ष संसार की सभी वस्तुयें निकृष्ट प्रतीत होती हैं इस सृष्टि में मानव बुद्धि तथा हाथों की कुशलता एवं कला ने आश्चर्यजनक कार्य का उदाहरण प्रस्तुत किया है । मानव के अनेक अद्भुत, विलक्षण व चमत्कारी आविष्कारों ने संसार को अनोखा चमत्कारी रूप दे दिया है । जब हम देखते हैं कि कितने जीव-जन्तु गन्दी नालियों में पड़े हैं अनेक जीव तरह-तरह के दुःखों और क्लेश-पीड़ा में अपना कर्मफल भोग रहे हैं और अंधकार पूर्ण लोकों में तथा अनेक योनियों में जीवन जी रहे हैं । समुद्र की तरफ देखिए वह तो सृष्टि का सबसे कष्टसाध्य ईश्वर का कारागार है जिसमें अनन्त जीव दिन-रात अथाह पानी में ही रहते खाते-सोते अपना जीवन गुजार रहे हैं । उनसे तुलना करो कि मनुष्य जीवन की क्या महत्ता है, क्या मूल्य है ? संसार के सभी मनुष्यों को प्रभु का धन्यवाद इसलिए करना चाहिए कि उसने हमें समस्त योनियों में श्रेष्ठ मानव जीवन प्रदान किया है, नहीं तो हम न जाने किन योनियों में कहाँ-कहाँ भटक रहे होते परमात्मा का हम पर यह महती कृपा तथा उपकार है, उसने हमें दुर्लभ मानव जीवन से अलंकृत किया। हमारा भी इसी के साथ यह कर्तव्य है कि हम मानवीय मूल्यों के अनुसार आचरण करें तथा सत्कर्मो द्वारा जीवन को सफल बनायें । हमें अपने कर्तव्यों का निर्वहन पूर्ण निष्ठा से करना चाहिए । तभी मानव जीवन की सार्थकता है।


            अनेक योनियों एवं जन्मों के पश्चात् जीव मानव तन पाने का अधिकारी बना । यदि मानव शरीर पाने के बाद भी आत्मा पाप कर्म करती है तो उसे पाप के फल को भोगने के लिए भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेना पड़ेगा । दुःख सागर में गोते खाने पड़ेंगे । संसार में इसीलिए जितना महत्व तथा मूल्य मानव-जीवन का है उतना किसी अन्य प्राणी का नहीं है । क्योंकि मानव जीवन पाने के बाद अपने पाप कर्मो के कारण फिर अन्य तुच्छ योनियों में जाना पड़े तो यह मानव जीवन का कितना बड़ा अपमान और पतन का मार्ग है । बहुत से अज्ञानी व्यक्ति अपने इस मानव जीवन जो अमूल्य है उसे व्यर्थ में गवाँ देते हैं। बचपन उनका कब आया, जवानी कब आई और कब चली गई । फिर वृद्धावस्था का आगमन आ और दुर्लभ मानव जीवन बातों-बातों में व्यर्थ निकल गया ।


            संसार में लाखों-करोड़ों लोग जन्म लेते है और जीवन भोगते-भोगते चले जाते हैं, इन्हीं में कोई-कोई व्यक्ति सार्थक, उपयोगी और सुन्दर जीवन जी कर संसार में अपनी कीर्ति स्थापित कर मनुष्यों के कल्याण के मार्ग प्रशस्त कर देते हैं । उनका नाम शताब्दियों तक याद किया जाता है । महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने शताब्दियों की कुरीतियों अंधविश्वासों तथा आडम्बर, पाखण्डों को समाप्त करने का संकल्प लिया। उन्होंने मानव के कल्याणार्थ मानव को सत्य तथा सार्थक जीवन जीने का संदेश दिया । उन्होंने बहुत सी बुराइयों, अंधविश्वासों तथा पाखण्डों को जड़ से नष्ट किया और मनुष्य को मनुष्य बनने का उपदेश दिया । उनका स्पष्ट मन्तव्य था कि मनुष्य को तर्क और विज्ञान की कसौटी पर जो सत्य हों उसे ही ग्रहण करो । इसी सदंर्भ में ऋषि ने कालजयी कृति 'सत्यार्थप्रकाश' की रचना किया । जो सभी मानव तथा मत-मतान्तरों के लोगों को भी स्वाध्याय करने योग्य है । जिसके अध्ययन से आखें खुल जाती है, अज्ञानता का तिमिर नष्ट हो जाता है । ईश्वर एवं धर्म के सच्चे स्वरूप का ज्ञान प्राप्त हो जाता है अधर्म तथा सभी मत-मतान्तरों की सच्चाइयों तथा बुराइयों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है । माप्राप्त नव को भावी जीवन जीने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।


           मानव जीवन की उपयोगिता उस समय होती है जब मानव अपने जीवन को लोकहित एवं परमार्थ में लगा देता है । जीना तो सभी चाहते हैं कोई मरना नहीं चाहता । अपंग, दुखी तथा विकलांग व्यक्ति भी जीना चाहता है दूसरे जीवों से तुलना करके देखने पर मानव जीवन का मूल्य पता लगता है परमात्मा ने मानव योनि की जो विशेषताएँ, शक्तियाँ, साधन और वरदान दिया है उस प्रकार किसी अन्य को नहीं । मनुष्य योनि में ही जन्म-जन्म के पाप कर्मो को धोने का अवसर मिलता है । यह अवसर बीत जाने पर कुछ हाथ नहीं लगेगा । यह जीवन एक परीक्षा है और संसार परीक्षा-स्थल । यदि मानव तन पाकर भी पशुओं-पक्षियों की तरह जीवन व्यतीत किया तो यह जीवन जीना नहीं है । इसे ही हम नरक व अज्ञानी का जीवन कहते हैं । जीने की कला स्वामी दयानन्द जी ने अपने ग्रंथो में लिखा है । सभी को उसे अपने आचरण में लाना चाहिए तथा मानव जीवन को सार्थक बनाना चाहिए मानव जीवन तभी सफल और आनन्दित होगा जब हम 'मनुर्भव' के सिद्धान्तों और विचारो को जीवन में उतारेंगे।


मं.ज. 2553/2 निराला नगर, शिवपुरी
सुल्तानपुर (उ.प्र.)


 



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