मां-बेटा और पत्नी का त्रिकोण


             बेटा जब जवान होकर पति का रोल निभाता है. तो ये रोल बहुत ही मुश्किल होता है। 'दो पाटन के बीच' वाली स्थिति में कई बार मां और पत्नी के विवादों में फंसकर वह बेहद असमंजस में आ जाता है। लेकिन उसके लिये कोई गाइडबुक नहीं है। शुरु से आखिर तक समझदारी मां से ही अपेक्षित रहती है। उसे मां बनने की सजा तो काटनी ही है। खून के आंसू भी बहाने हैं और भीतर की चीख बाहर बिल्कुल नहीं आने देनी है क्योंकि वह समझदार जो है। बेटों के बड़े होने पर बाप बेटों में अक्सर टकराव होने लगता है। पुरुषोचित अहम के मारे दोनों 'वन अप' होकर रहना चाहते हैं। कोई भी झुकने को तैयार नहीं ऐसे में मां के लिए दोनों रिश्ते जो उसके दिल के अत्यंत करीब होते हैं संभाल पाना बहुत मुश्किल हो जाता है।


             उधर आजकल की पढ़ी-लिखी, दुनियादारी में अत्यंत कशल, कमाऊ बह उसका जीना मुश्किल किये रहती है। पति उससे बेहद अपनत्व रखते हैं। उसकी परी देखभाल रखते उसकी हर छोटी बड़ी ख्वाहिशें परी करने को तत्पर, उसे दुःख दर्द के साथी हैंलेकिन वे केवल उसके मुंह से बेटे-बहू के खिलाफ बातें सनकर ही सेटिसफाइड रहते हैं मां को बेटे की तरफदारी करते हुए उन्हें जरा सा भी उकसाने पर वे तुरंत भड़क उठते हैं। डिप्लोनेसी और स्वार्थ तो यही कहता है कि वह बस पति की यस वुमन बनी रहे। बेटा सिर्फ उसे उपयोगी रहने तक ही तवज्जह देगा जिस पल उसे लगेगा अब वह उसके किसी काम की नहीं रही. वह उससे मुंह मोड़ लेगा।


              लेकिन वह ऐसा कभी नहीं कर सकती क्योंकि वह एक मां है. मां जिसे इस रिश्ते की पवित्रता के कारण ईश्वरतुल्य माना गया है। आखिर बेटे मां का मन, उसका दर्द क्यों नहीं समझ पाते? क्या कुदरत ने उन्हें ऐसा ही बनाया है,संवेदनहीन एहसाफरमोश।


            युग बदला मान्यताएं बदलीं. लाइफस्टाइल बदल गया लेकिन भावनाएं? वे तो आज भी वही हैं। मन की भीतरी पर्तो में छुपते जज्बात कहां बदल सकते हैं क्योंकि इंसान भी इंसान ही है, हैवान नहीं बन गया।


               ऐसा नहीं है कि आज के युग के बेटे मां के लिए मन में फीलिंग्स नहीं रखते। उन्हें मां की केयर नहीं होती बस होता यह है कि मां और पत्नी को लेकर वे अक्सर कनफ्यूज्ड रहते हैं। 'मम्मॉज ब्याय' का ठप्पा लगने से घबराते हैं। मां बेटा पत्नी के त्रिकोण में बेटे की भूमिका सबसे अहम होती है। उसके जीवन में मां और पत्नी दोनों महिलाएं महत्वपूर्ण हैं। वह दोनों के करीब होता है अगर वह प्रॉपर संतुलन बजकर नहीं चलता तो स्थिति जटिल होती चली जाती है। उसे निष्पक्ष रहना है, बगैर सोचे समझे किसी एक की शिकायत सुनकर तुरंत रिएक्ट नहीं करना है।


                मना कि पत्नी उसकी लाइफपार्टनर है, उसके साथ उसे सारा जीवन बिताना है, हर तरह की भागीदारी निभानी है लेकिन कभी मां ही उसकी सब कुछ हुआ करती थी जिस पर वह अपनी हर छोटी बड़ी जरूरत के लिए निर्भर हुआ करता था, उसे ये भी नहीं भूलना चाहिए। उसके विवाह के बाद मां में जो असुरक्षा की भावना आ जाती है वह स्वाभाविक है उसे मां को यह एहसास दिलाना होगा कि उसकी जगह सीक्योअर है, सुरक्षित है। वह जगह कोई नहीं ले सकता। दूसरी ओर पत्नी के व्यक्तित्व को भी अहमियत देते हए उसे स्वीकारना होगा।


              मां को भी बदली हुई परिस्थितियों के लिए तैयार रहना चाहिए। उन्हें अपने बेटों को पहले से ही आत्मनिर्भर बना देना चाहिए जिसकी की हमारे समाज में खास जरूरत है क्योंकि भारतीय माएं बेटों को अपने पर जरूरत से ज्यादा निर्भर रख के ही खश होती हैं जो आगे चलकर उनके दु:ख का कारण बन जाता है इस तरह वे जयादा पजेसिव और डॉमिनेंटिंग हो जाती हैं।


               अगर बेटा अपने पर निर्भर रहना सीख लेगा तो वह मां और पत्नी पर निर्भर नहीं रहेगा। वह ज्यादा मेच्योअर और बेहतर व्यक्ति होने पर ही अपने इन दो खास रिश्तों को परिपक्वता से संभालते हुए उनमें उचित संतुलन बना पाएगा।


 



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