लखीना बाग ( गीत )


लखीना बाग ( गीत )


गयौ उजड़ि लखीना बाग काटि गये हरे-हरे काटि गये खुद माली


स्वर्ग समान देश था अपना दुनिया मशहूर।


फल और फूल से लदा हुआ था, बिलकुल भरपूर।।


झुकी थी डाली-डाली।। गयौ0


सतयुग में हरिशचन्द्र माली ने खूब करी रखवाली


धर्म के पौधे लगा-लगाकर सीची डाली-डाली।।


बही थीं दूधों की नाली।। गयौ0


त्रेता में श्री रामचन्द्र ने किया बड़ा उपकार।


धर्म बाग की रक्षा के हित झेले कष्ट अपार।।


छाई थी यहाँ पै हरियाली।। गयौ0


द्वापर में दुर्योधन माली मेवा बो गया फूट।


प्रेम के पौधे काट-काट कर, गया ठूठम ठूठ।।


गई थी यहाँ से हरियाली। गयौ0


फिर दूंठों से पत्ते निकले छाई कुछ हरियाली।


जयचन्द माली ने आकर की बिलकुल ही पामाली।।


छायी यहाँ घटा काली।गयौ0


काली घटा देख कर आये दयानन्द ऋषिराज।


वेद मन्त्र के वाणों से सखि ! फेरि सुधारे काज।।


छाई फिर उजियाली।। गयौ०


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