लाला हरदयाल

अमेरिका में गदर पार्टी के संस्थापक


लाला हरदयाल


      देश के लिए लाला हरदयाल का त्याग एवं योगदान अनुकरणीय एवं महत्त्वपूर्ण था। दिल्ली निवासी हरदयाल बचपन से ही प्रतिभासम्पन्न थे। ये अपनी श्रेणी में प्रथम रहते और एक बार पढ़ने से ही इन्हें विषय कण्ठस्थ हो जाता था। इन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से एम.ए. परीक्षा उत्तीर्ण की। जिसमें ये प्रथम स्थान पर रहे। अंग्रेज सरकार ने इस प्रतिभाशाली छात्र को सरकारी छात्रवृत्ति देकर आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय लंदन में पड़ने भेज दियाउस समय लंदन में 'इंडिया हाउस' की स्थापना कर आर्यसमाजी देशभक्त श्याम जी कृष्णवर्मा समाचार पत्र निकाल कर भारत की स्वतन्त्रता के लिए वातावरण बना रहे थे। कुछ समय बाद भाई परमानन्द भी आर्य समाज तथा भारत की आजादी के लिए प्रचार-प्रसार करने हेतु वहां पहुच कर इंडिया हाउस में रुके। लाला हरदयाल इंडिया हाउस आने लगे। दोनों आर्यसमाजी देशभक्तों की संगति और देशभक्ति का लाला जी पर गम्भीर प्रभाव पड़ा और उनके विचार बदल गये।


      सरकार ने लाला हरदयाल को छात्रवृत्ति देकर भेजा तो इसलिए था कि वहां शिक्षा पाकर एक प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति अंग्रेजी सरकार का भक्त पैदा होगा। किन्तु, हो गया ठीक इसके विपरीत। लाला हरदयाल अंग्रेजी सरकार के विरोधी बन गये और सरकारी छात्रवृत्ति भी यह कहकर ठुकरा दी कि "जिस जाति ने मेरे देशवासियों को संगीन के बल से परतन्त्र कर रखा है, उससे किसी तरह की वृत्ति लेना मैं पाप समझता हू | "


      एक विद्यार्थी के रूप में हरदयाल का यह त्याग अद्भुत था। यदि वे चाहते तो आक्सफोर्ड में पढ़कर आने के तुरन्त बाद जज, कलेक्टर, सेनाधिकारी, गवर्नर जैसे उच्च पद को पा सकते थे किन्तु उन्होंने आजादी के समक्ष इन सबको तुच्छ समझा। अब उनके लंदन, पेरिस और बर्लिन के क्रान्तिकारियों के साथ सम्बन्ध बढ़ने लगे। उनका लक्ष्य देशसेवा बन गया।


      सन् १९०८ में अपनी पढ़ाई छोड़कर हरदयाल भारत आ गये और यहां राजनैतिक जागृति में लग गये। १९०९ में इन्होंने अपने मकान चेलपरी में एक राष्ट्रीय विद्यालय खोला जिसमें क्रान्तिकारी मास्टर - तथा अन्य देशभक्त पढाया करते थे। ये अंग्रेजी शिक्षा का विरोध करते और स्वदेशीयता का प्रचार-प्रसार करते। लाला जी के प्रभाव से इनके साथी लाला हनुमन्तसिंह ने, जो विदेशी माल के प्रतिष्ठित व्यापारी अपना लाभकारी व्यापार छोड़ दिया और केवल स्वदेशी वस्तुओं का व्यापार करने लगे। गुप्तचर आपके पीछे पड़े हुए थे। अपनी गिरफ्तारी की प्रबल संभावना देखकर आप भारत छोड़ पुनः लंदन चले गये।


      सन् १९११ में भाई परमानन्द सेन फ्रांसिस्को (अमेरिका) में थेभाई जी ने लाला जी को भी वहां बुला लिया और अपने एक मित्र डाक्टर की सहायता से एक हॉल किराये पर लेकर इनके हिन्दू संस्कृति पर भाषण कराये। फिर वर्कले विश्वविद्यालय का संस्कृत का एक प्रोफेसर इनका प्रशंसक बन गया। उसके प्रयासों से लाला जी चैम्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत तथा भारतीय दर्शन के प्रोफेसर नियुक्त हो गये। वहां पढ़ाते हुए आपने वेतन नहीं लिया, उससे आपका सम्मान और बढ़ गया।


      लाला जी ने अमेरिका में बसे सभी भारतीयों को संगठित कर 'गदर पार्टी' की स्थापना की। 'गदर' नाम का एक समाचार पत्र भी निकालना शुरू किया। अपना स्वतन्त्र प्रेस लगाया जिसका नाम 'युगान्तर आश्रम' रखा गया। 'गदर' पत्र के माध्यम से अमेरिका तथा अन्य यूरोपीय देशों में भारतीय स्वतन्त्रता के लिए अभियान छेड़ा गया। यह पत्र अमेरिका कैनेडा आदि में तो व्यापक स्तर पर वितरित होता ही था, भारत में भी गुप्तरूप से बंटता था। इसके साथ ही पार्टी के लोग जगह-जगह सभा करके अंग्रेजी सरकार की आलोचना किया करते थे। गुप्तचर पुलिस 'गदर पार्टी' का पीछा करती और सब नेताओं की रिपोर्ट अंग्रेज सरकार को भेजती। २५ मार्च १९१४ को लाला हरदयाल को अंग्रेज सरकार के प्रभाव के कारण अमेरिका में गिरफ्तार कर लिया गया। अमेरिकन समाचार पत्रों में जब यह समाचार छपा तो इनकी जमानत लेने के लिए अदालत में भीड़ लग गयी। यहां तक कि अमेरिकी साहूकार रुपयों की थैलियां लिये अदालत में उपस्थित थे। अदालत ने इनको जमानत पर छोड़ दियाउसके बाद गदर पार्टी और पत्र की सारी जिम्मेदारी उसके प्रमुख सम्पादक पं. रामचन्द्र को सौंपकर ये स्विटजरलैंड चले गये। अन्य अनेक क्रान्तिकारियों को भी अमेरिका में या तो गिरफ्तार कर लिया था या देशनिकाला दे दिया था।


      फिर लाला जी जर्मनी आ गये। जर्मनी के भूतपूर्व सम्राट कैसर से भी इनकी भेंट हुई थी। प्रायः सभी जर्मन-मन्त्री और अधिकारी इनका सम्मान करते थे। ये कई यूरोपीय भाषाएं धारा-प्रवाह रूप से बोल लेते थे। जर्मन-युद्ध के समय वहां लाला जी को उप परराष्ट्र मन्त्री (उप विदेश मन्त्री) बनाया गया। वान जीमरमैन विदेश मन्त्री थे। जर्मनी में भी इन्होंने 'बर्लिन सोसायटी' नामक संस्था बनायी, जो भारत, ईरान, मिश्र आदि देशों में अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति का वातावरण उत्पन्न करती थी। इसी सम्बंध में वे एक जर्मनी के दूत बनकर तुर्की के सुलतान से भी मिले थे। बंगाल में जर्मनी के सहयोग से रची जाने वाली सशस्त्र क्रान्ति के समय भी हथियार भिजवाने में इनका योगदान था किन्तु वह योजना सिरे नहीं चढ़ सकी | 


      जर्मन-युद्ध में जर्मन के हार जाने के बाद वहां इंग्लैंड, फ्रांस, अमेरिका आदि मित्र राष्ट्रों द्वारा समर्थित सरकार आ गयी। तब लाला जी की स्थिति बहुत संकटपूर्ण हो गयी। जिस अंग्रेज सरकार के विरोध के कारण और उसे उखाड़ने में योगदान करने के लिए वे जर्मनी गये थे, वही सरकार वहां भी स्थापित हो गयी। नवम्बर १९१९ में लाला जी ने स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों से जर्मन मन्त्री से बर्लिन छोड़ने की अनुमति मांगी तो उसने स्पष्ट इन्कार कर दिया। उसे आभास हो गया कि अब यहां उन्हें कैद कर दिया जायेगा। एक दिन वे योजना बनाकर जर्मन वेश में वहां से भाग निकले और स्काटहोम (स्वीडन) पहुंच कर उसी जर्मन मन्त्री को तार दिया कि "आप को धन्यवाद है, मैं कुशलतापूर्वक स्वीडन पंहुच गया हूं।" जर्मन-मन्त्री सिर धुनकर रह गया। इतने चतुर और कुशल राजनीतिज्ञ थे लाला हरदयाल !


      वे कुछ समय तक गुप्त रूप से रूस में भी रहे। इंग्लैंड में जब रेम्जे मैकडानल्ड प्रधानमन्त्री बने तो उन्हें वहां स्वतन्त्रतापूर्वक रहने की अनुमति मिल गयी। मैकडोल्ड इनके मित्र थे। वहां रहकर इन्होंने पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। लंदन में इनके विरुद्ध कोई मुकदमा नहीं चलाया गया किन्तु भारतीय अंग्रेज सरकार का रवैय्या प्रतिशोधपूर्ण ही रहा। १९३७ में भारतीय सरकार ने घोषणा की थी कि "लाला हरदयाल के भारत आने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है, किन्तु उनके भारत आने पर मुकदमा चलाया जायेगा।" लाला जी १८३८ तक इंग्लैंड में रहे। १९३८ के अन्त में उनसे 'सरकार के विरुद्ध किसी कार्य में सम्मिलित न होने का वचन' लेकर उन्हें भारत आने की अनुमति दे दी गयी। 


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