कुम्भ

कुम्भ 


         भारतीय हिन्दु लोगों में कुम्भ स्नान की परम्परा बहत प्राचीन है। जब ये लोग आर्य कहलाते थे और वैदिक धर्म के अनुयायी थे. तब से ही यह परम्परा प्रचलित रही है। वर्तमान में इसका स्वरूप विकृत हो चुका है, इसलिए यह पहले जैसी फलदायी नहीं रही। वैदिक संस्कृति नदियों के संगमों, वनों और गिरि कन्दराओं में जन्मी, पली और बढ़ी है। वेद का एक प्रसिद्ध मन्त्र है-उपहरे गिरीणां संगमे च नदीनाम्, धिया विप्रो अजायत।। - अर्थात् पर्वतों की गुफाओं और नदियों के संगम पर बुद्धिमान ज्ञानी जन उत्पन्न होते हैंतात्पर्य यह है कि एकान्त, शीतल और शान्त स्थानों में साधना करने पर बुद्धि सूक्ष्म और तीक्ष्ण हो जाती है और कठिन से कठिन विषय को शीघ्र ग्रहण कर लेती है। इसीलिए विद्या व्यसनी बुद्धिमान् लोग कथित स्थानों पर आश्रम बना कर साधना करते हुए तानार्जन करते-करते रहे हैं। ऐसा हमें इतिहास से विदित होता है।


 वैदिक धर्म में ज्ञान को सबसे पवित्र और बहुमूल्य कहा गया है यथा -


1. न हि ज्ञानेनसदृशं पवित्रमिह विद्यते


2. विद्या धनं सर्व धनंप्रधानम्।


3. सर्वेषाम् दानानाम् ब्रह्मदानम् विशिष्यते


       ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती, सब दुःखों का मूल अज्ञान है अतः ज्ञान ही सब सुखों का मूल है। सुख की पराकाष्ठा पर पहुँचना मनुष्य जन्म का उद्देश्य है। .


      कुम्भ का अर्थ है घट अर्थात् घड़ा। मनुष्य शरीर को घट कहा जाता है। दार्शनिकों के ग्रन्थ घट-पट की चर्चा से भरे पड़े हैं। कवियों ने कहा है -


                             मन रे! घट ही में गोविन्द गाइए।


                        ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाहि ।।


      कुम्भ का अर्थ है शब्दों और सुखों को भरने का पात्र । घट एक सीमित खाली आयतन वाला पात्र होता है, जिसमें कुछ भरा जा सकता है। इसमें आप रस भी भर सकते हैं और गर अर्थात विष भी, सोम भी और सुरा भी, ज्ञान भी अज्ञान भी, अच्छा भी बुरा भी। पट का स्वामी इसमें कुछ भी भरने में स्वतंत्र है। जब कोई घट स्वामी इस पात्र का उपयोग शब्द अर्थात् आप्तोपदेश या ज्ञानामृत भरने का मन बनाता है तब यह घट कुम्भ कहलाता है अन्यथा साधारण घट ही रहता है।


       जब बहुत सारे कुम्भ एकत्र हो जाते हैं, तब उसका मिलना कुम्भ मेला कहलाता है। वेद में कहा गया है-- संगच्छध्वं संवदध्वं सं वोमनांसि जानताम् । -- अर्थात् संघटित होओ, सम्वाद करो, सम्मान करो, ज्ञानी बनो। इसके अनुसार सम्पूर्ण देश में भिन्न-भिन्न स्थानों पर ज्ञान सत्र चलते थे और मेले लगते थे, ज्ञान मेले। यही कुम्भ का तात्पर्य था।


        घड़े में जल भरने के लिए सागर चाहिए, वह चाहे नीर सागर हो, चाहे क्षीर सागर हो, या फिर सुरा सागर। नदी में भी घट को भर सकते हैं। सागर या नदी के दोनों किनारों पर लोग रहते हैं। इस पार वालों को यदि उस पार जाना है तो उसके लिए सागर को पार करना होता है। पार होने के दो ही साधन हो सकते हैं। एक तो तैरकर पार करना, दूसरे नाव में बैठकर या पुल बनाकर उसके ऊपर से चलकर भी पार कर सकते हैं।


       वैदिक ग्रन्थों में इस संसार को भवसागर और सरिता भी कहा गया है, नौका और पुल तीर्थ कहे गए हैं। एकवेद मन्त्र में कहा है कि अश्मनवती रीयते संरभध्वं उत्तिष्ठत आ प्रतरता सखायः । अत्रा जहीमो येऽशिवा असन... अर्थात् संसार रूपी पथरीली नदी बह रही है, इसे पार करना है तो अकेले कोई पार नहीं कर सकता। अतः उठो मिलकर एक दूसरे को पकड़ लो और जो अकल्याणकारी पदार्थ सिर पर लाद रखे हैं, उन्हें यहीं इसी पार में पटक दो, छोड़ दो और उस पार के कल्याणकारी धनादि को प्राप्त करो।     


       इसके लिए एक दिव्य नौका का भी वर्णन आता है, जिस पर चढ़कर पार जाने का उपदेश किया गया है - सुत्रामाणं पृथिवीम् द्यामनेहसं


         कुम्भ के मेले में उपदेश और प्रवचन, शंका-समाधान आदि के द्वारा ज्ञानामृत भर दिया जाता था, जो तरने की समझ उत्पन्न कर देता था और कुम्भों के स्वामी अपने सामर्थ्यानुसार इस भवसागर या सरिता को पार करने के प्रयत्न में लगे रहते थे। इस प्रकार लोगों को अज्ञानग्रस्त होने से बचाने का प्रयत्न किया जाता था। इस कारण लोग-जीवन के मुख्य उद्देश्य से भटकने से बचे रहते थे और शुभ कर्म में लगे रहते थे।


       परन्तु कालान्तर में ज्ञानदाता तीर्थ रूप अध्यापक, उपदेशक, संन्यासीगण, पुरोहित और विद्वान् स्वार्थी होते गए और उक्त कार्य एक व्यवसाय या व्यापार बनता चला गया। ज्ञान सबके लिए नहीं रह गया, वह कुछ खास लोगों तक सीमित हो गया जो उत्तम भोजन और धनादि पदार्थ प्रवाचकों को प्रदान कर सकते थेसामान्य निर्धन शूद्रादि और स्त्रियों को ज्ञान देने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गयाकुछ लोगों ने गुरु बनकर अपने सम्प्रदाय बना लिए। अपने-अपने पृथक गुरुमन्त्र, तिलक, कण्ठी-माला, वेशभूषा प्रचलित कर दिए और जन समुदाय की मानसिकता को बाँट दिया। इससे पारस्परिक प्रेम समाप्त हो गया और राग-द्वेष, ईर्ष्या की वृद्धि हो गई। एक समाज नाना वर्गों और उपवर्गों में बँट कर बिखर गया। जहाँ पहले वैदिक प्रवचनों के द्वारा मनुष्य को शुभ कर्म की शिक्षा दी जाती थी, चोरी, हिंसा, व्यभिचार, संग्रहखोरी से दूर रहकर बल और छल से किसी का सुख भाग छीन लेने को पाप कहा जाता था और आचरण के साथ ईश्वर को साक्षी रख कर जीने की प्रेरणा की जाती थी। पाप का फल भोगना ही पड़ेगा, क्षमा नहीं होगा, अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् का सिद्धान्त प्रचारित किया जाता था।


        वहाँ अब यह कहा जाने लगा कि तरने का साधन गुरुसेवा, साम्प्रदायिक तिलक, कण्ठी और गुरुमन्त्र का जप आदि हैं। किसी नदी में तिथि विशेष पर स्नान करने, सम्प्रदाय के कल्पित शास्त्र कथा सुनने आदि से मनुष्य तर जाता है। एक ईश्वर को छोड़ कर अपने-अपने पृथक् ईश्वर बना डाले, जो पाप को क्षमा करने वाले और बिगड़ी बनाने वाले बताए गए। यह कहा गया कि वही एक ईश्वर नाना रूप धारण करके अवतार लेता है और सब पापियों को तार देता है। यही नहीं इन भगवानों का नाम कोई पापी जन यदि हँसी-मज़ाक, गप्पबाजी में भी लेता है तो उसके सब पाप कट जाते हैं इत्यादि।


       वर्तमान में कुम्भ मेलों में इन्हीं धूर्त साधु-सन्तों के अहंकार का प्रदर्शन होता है, प्रवचन के नाम पर लोगों को अपनी-अपनी ओर खींचने और सम्प्रदाय की जनसंख्या बढ़ाने का प्रयत्न किया जाता है। वास्तव में ये सभी सम्प्रदाय घोर अविद्या के गढ़ हैं। ऐसा कोई पाप नहीं छोड़ा जिसे धर्म न बनाया हो, यहाँ तक कि प्रत्येक पाप के भगवान और उनके भोग भी निर्धारित हैं। गाँजा, भांग, शराब का सेवन करने वाले भगवान, चोरी करने वाले, व्यभिचार करने वाले भगवान - तात्पर्य यह है कि सब तरह के भगवान मिलते हैं। अतः भक्त इच्छानुसार अपने लिए भगवान चुन सकते हैं और भगवान के प्रिय पदार्थ का भोग लगाकर प्रसाद खा सकते हैं


       नदी के पानी में पहले नहाने की होड़ में भारी उत्पात और कलह होती है। प्रशासन की व्यवस्था न हो तो भारी मार-काट हो जाए और तीर्थस्थल युद्धस्थल या बूचड़खानाबन जाएइस प्रकार ये कुम्भ अब अज्ञान मेले में परिवर्तित होकर अपना औचित्य खो चुके हैं। सम्प्रदाय का अर्थ भी बदल गया हैपहले सम्प्रदाय किसी विद्या पर आधारित होते थे। जैसे गणित इसमें अंक, बीज, रेखा आदि विज्ञान में जीव विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, भौतिक व रसायन विज्ञानादि में से किसी एक पर अनुसंधान और रक्षण करने वाले सम्प्रदाय होते थे, जिससे समाज में ज्ञान का विद्या का गुणात्मक विकास होता था।


        इन तथाकथित सम्प्रदायों से विद्या का विकास व अनुसंधान समाप्त हो गया। वे विद्या गुरु समाप्त हो गए और ये अविद्या के पुतले गुरु बन कर बैठ गए जिनमें नाममात्र की गुरुता नहीं है। चेले भी छली, कपटी, चोर, व्यभिचारी और झूठे हैं। भ्रष्टाचार की जड़ यहीं पर है। इन गुरुओं में गुरुता होती तो देश में भी गुरुता के दर्शन होते। क्षुद्रता और नीचता से देश अपवित्र न होता। ज्ञान मनुष्य को देवता बनाता है परन्तु ये गुरु लोग मनुष्य को भैंस या भेड़ बनाने में लगे हैं।


        अब कौन समझाए कि नदी के पानी में नहाने से पाप नहीं घुलते, केवल शरीर घुलता है। मन को धोने के लिए सत्य रूपी जल चाहिए और तरने के लिए ज्ञान चाहिए।


                         अभिर्गात्राणि शुध्यन्ति, मनः सत्येन शुध्यति।


                        विद्या तपोभ्याम् भूतात्मा, बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति।।


जल से धोया मल-मल कर तन धोया नहीं कभी कलुषित मन कट जाते भयताप ज्ञान की गंगा _में कर स्नान न पाया यों प्रभु को पहचान न पाया। इति


                                                                                              - वेदप्रिय शास्त्री


                                                                                          (आर्य लेखक परिषद)


 


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