कुछ याद उन्हें भी कर लो

         आर्यसमाज के महान् इतिहासकार पं. इन्द्र विद्यावाचस्पति 'आर्यसमाज का इतिहास' में लिखते हैं, "1910 के पश्चात् से हरियाना प्रान्त आर्यसमाज का विशेष कार्य-क्षेत्र बन गया है। यहाँ के निवासियों में से अधिकतर लोगों के दो पेशे हैं-कृषि और युद्धवे या तो खेती करते हैं अथवा पुलिस या सेना में भर्ती हो जाते हैं। उनके लिए रूढ़ियों को तोड़ना आसान है। श्री स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज के प्रति हरियाना निवासियों की बहत गहरी श्रद्धा थी।"


         पाठकगण ! हरयाणा के आर्यनेताओं व प्रचारकों के बारे में तो आप जानते ही हैं इसके साथ ही आप अनेक ने आर्यों को भी जानते होंगे जिन्होंने अपने उज्ज्वल चरित्र के बल पर धर्म ध्वजा को थामे रखाऐसे उज्ज्वल चरित्रों के गुणगान होने चाहिएँ, इससे गुणों में प्रीति होती है और सामान्य व्यक्ति को भी उज्ज्वल जीवन जीने की प्रेरणा मिलती है। महिनाभर पहले हम मातण्ड (सोनीपत) गाँव में गए। वहाँ के महाशय बलबीर जी बड़े श्रद्धालु आर्य हैं। उन्होंने चौपाल का जीर्णोद्धार होने पर यज्ञ व प्रचार के लिए हमें बुलाया था। दीवार पर स्वामी दयानन्द का चित्र व गायत्री मन्त्र देखकर हमें बड़ी प्रसन्नता हुई। महाशय बलबीर ने उत्तम परम्पराओं का संरक्षण किया। कार्यक्रम के बाद में उन्होंने बताया कि हमारे गाँव में पुराने समय में एक चौ० अमीलाल बड़े सुदृढ़ आर्यसमाजी हुए हैं।


           उनके समय में एक बार एक थानेदार किसी केस के सिलसिले में गाँव की चौपाल में आयाथानेदार ने शराब व मुर्गे की माँग की। चौ. अमीलाल को जब यह पता चला तो थानेदार के पास पहुंचे और उसे लताड़ते हुए कहा, “खबरदार! यह आर्यों की चौपाल है, यहाँ यह सब नहीं चलने देंगे।" थानेदार को उनकी बात माननी पड़ीआज तो चौपालों में स्थान-स्थान पर शराब की खाली बोतलें, बीड़ियाँ पड़ी मिलती हैं। सारा दिन ताश खेले जाते हैं ।


         इसी प्रकार महाशय बलबीर ने बताया कि एक बार क्षेत्र के किसी चौधरी का झगडा एक मुसलमान से हो गया। र चौधरी के गडासे की चोट मुसलमान को लगी। गोहाना के न्याय अधिकारी ने चौधरी को गोहाना क्षेत्र से निकाले का हुक्म दे दिया। अनेक प्रयास हुए, हुक्म वापिस नहीं हुआअन्त में पंचायत हुई। पंचायत में भी जब अधिकारी नहीं माना तो चौ० अमीलाल खड़े हुए और कहा, "ठीक है, हम आपका हुक्म मानते हैं। लेकिन आपको यह व्यवस्था लिखकर देनी होगी कि यदि किसी मुसलमान से किसी हिन्दू को ऐसी चोट पहुँचती है तो उस मुसलमान पर भी यही नियम लागू होगा।" चौ. अमीलाल के यह कहते ही होश ठिकाने आ गए और उन्होंने अपना आदेश वापिस ले लिया ।


        कुछ महिला पहले दिवंगत देवी सरूपा (स्वरूपा) की स्मृति में गांव बादली गुलिया (झज्जर) जाने व प्रचार करने की इच्छा उत्पन्न हुई। अभी 22 सितम्बर को मेरी पूज्या दिवंगत माता जी की स्मृति में यज्ञ के बाद एक प्रसंग ने मेरी उस इच्छा को दृढ़संकल्प में बदल दिया ।


        मेरी माताजी के गुणों का स्मरण करते हुए मेरे पिताजी ने बताया कि वे कभी भी पराई चौखट पर खड़ी नहीं देखी गई और उनके इसी गुण के कारण मैं महिनों बाहर रहने पर भी निश्चिन्त रहता था। अगले दिन ही मैंने एक दिवंगत देवी सरूपा की स्मृति में गांव बादली जाने का निश्चय किया और हमारी टीम 28 सितम्बर को गांव बादली पहुँची और चौपाल में  बहुत ही प्ररणापरक प्रचार रहा।


          पाठकगण ! आप में से अनेक जानते होंगे कि यह वही देवी सरूपा थी जिनसे आचार्य भगवान्देव का विवाह संस्कार हुआ थाआचार्य भगवान्देव (स्वामी ओमानन्द) द्वारा ब्रह्मचर्य अपनाकर वैदिक धर्म व आर्ष-विद्या का प्रचार करने का व्रत लेने के बाद इस देवी ने भी व्रत लिया कि वह भी पुनर्विवाह न करते हुए आजीवन पितृकुल में ही रहेगी। उस देवी ने भी यह कर दिखाया। यज्ञ के पश्चात् आर्यसमाज के अधिकारी सेवानिवृत्त सूबेदार श्री श्रीभगवान् जी ने बताया कि 1947 के विभाजन के बाद जो दंगे, प्रदर्शन हुए, वैसी ही एक घटना में गांव के एक व्यक्ति को गोली लग गई। गांव के सब व्यक्ति इधर-उधर भाग गये। उस समय देवी सरूपा उस व्यक्ति को कंधे पर उठाकर गांव में ले आई। एक बार उस देवी का बल परीक्षण करने के लिए उनके परिवार के पहलवान बालकों को नादानी सूझी। उस देवी को जो गोबर का टोकरा उठाना था, उन्होंने पहले ही वहाँ जाकर गोबर के नीचे टोकरे में अनेक ईंटें भर दी। वे यह देखकर हैरान हुए कि वह देवी उस टोकरे को भी सहजता से ले गई। इन सब की स्मृति में हम यही कहेंगे कि धर्म ध्वजा हाथों में नहीं, अपितु व्यक्तित्व से ऊँची उठाई जाती है।


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