कर्णबेध संस्कार


कर्णबेध संस्कार


 


       आर्यों के संस्कारों में जन्म के पश्चात् छटा तथा कुल संस्कारों मे नवम् संस्कार कर्णबध के नाम से जाना जाता है। प्राचीन काल में सभी आर्यों में कर्ण बेधने की परम्परा थी। सभी आर्य ,चाहे वह रखी हों या पुरुष ,समान रूप से संस्कार रूप में कानों को छिदवाते थे। हम देखते हैं कि प्राचीन राजा, साधु, सन्त बालक आदि सभी के कान छेदने के पश्चात् इन्हें सुरक्षित किया जाता था । वह जानते थे कि कानों को छेदने का स्वास्थ्य के लिए विशेष रूप से हित होता है। वह कानों में बडे बडे कुण्डल भी पहनते थे ताकि कान नीचे लटक कर लम्बे हो जावें । इस का भी कुछ प्रयोजन तो रहा ही होगा क्योंकि हमारे महापुरुषों ने कभी जो भी कार्य किया सदैव उन कार्यों का कुछ न कुछ प्रयोजन होता ही था। इस संस्कार के शब्द कर्णबेध से ही स्पष्ट होता है कि कर्णबेधना । प्राचीन काल में बालक बालिका सब के समान रूप से होने वाला यह संस्कार आज केवल सज्जा का विषय बन कर रह गया है तथा आज के वल कन्याएं ही मात्र आभूषण पहनने के उद्देश्य से यह संस्कार नहीं बल्कि यह कर्म करवाती हैं। हमारे महान् वेद वेत्ता ऋषि कोई भी कार्य व्यवहार किसी प्रयोजन से ही करते थेमहर्षि दयानन्द सरस्वती ने भी इसे एक संस्कार के रूप में सोलह संस्कारों में स्वीकार किया हैअतः इस का कोई प्रयोजन न हो ऐसा माना ही नहीं जा सकताअतः आओ इस सरंस्कार के विषय में कुछ विचार करें।


      कुछ लोगों ने कर्णबध संस्कार का समय तीसरे या पांच महीने में लिखा है। वह तो यह भी लिखते हैं कि कानों के बंधने से का आक्रमण नहीं होतायह तथ्य नहीं है अवैदिक है। हम आयुर्वेद के यहां प्रमाण मानते हुए ही कुछ कह सकते हैं। आयुवेद के मनीषी सश्रत का मानना है कि कर्णबेध से बालक की रक्षा होती है। इससे ही स्पष्ट है जाता है कि इस सरकार का मानव के स्वास्थ्य से घनिष्ट सम्बन्ध हैजिरा रो स्वास्थ्य का लाभ हो ,उसे आर्यों ने सदा ही अपनी धार्मिक वि याओं का अंग बना कर जीवन में उतारा है। यह ही कारण हो सकता कि महर्षि ने इसे भी एक संस्कार का भाग मानते हुए इसे सोलः संस्कारों में स्थान दिया है। आज का एक्यूप्रेशर नसों के दबाने के स्वास्थ्य प्राप्ति की बात करता है। कर्णबध भी इसी का ही एक अंग। । इस हेतु कहा जाता है कि कणंबेध का आशय एक ऐसी नस में छि करना है जिससे आंतरिक वृद्धि के कारण हर्णिया जेसे रोगों से बचा ज सके। इस बात को सुश्रुत भी स्वीकार करता है। इस हेतु कभी यो चिकित्सक से यह क्रिया करवाई जाती थी। आज तो गली में घूमने वाले लोग व सुनार इस क्रिया को करने लगे हैं। यह स्वास्थ्य की दृष्टि में उत्तम नही है। इसे योग्य वैद्य से ही करवाना चाहिये। इस हेतु यह भी लिखा है कि कान के जिस स्थान से सूर्य की चमक दिखाई दे, वह स्थान ही भेदन के योग्य है। यह स्थान अत्यन्त महीन होता है। इस कारण इस स्थान को देवस्थान भी कहा गया है |


      इस प्रकार के कर्णबेथ के माध्यम से आज अनेक लोग चिकित्स भी कर रहे हैं। आज भी ऐसे अनेक लोग मिलते हैं , जिन के रोग क निदान कर्णबेध मात्र से ही हो गया है। विशेष रूप से पेट के अनेक का इलाज कान में छेद करके किया जाता है। यह छिद्र कान के परी भाग में किया जाता है टांग के एक भाग को दबाने से पेट दर्द काइलाज भी हो रहा है। इसी प्रकार हाथ के अंगूठे के मध्य भाग को बाने से गले के रोगों का इलाज हो रहा है। ऐसे ही अनेक रोगों के उपचार हो रहे हैं । कर्णबंध के पीछे प्राचीन आचार्यों का निश्चित ही योगदान था । यदिइसका उपयोग न होता तो महर्षि कदापि इसे संस्कारों में स्थान न देते।


      इन सभी बातों से छनकर यह बात सामने आती है कि वैदिक संस्कृति में स्वास्थ्य की दृष्टि से कर्णबध को आवश्यक माना गया हैइसीलिए इसे संस्कारों में स्थान दिया गया हैकर्ण बेध संस्कार को संस्कार पद्धति में दिये अनुसार करते हुए किसी योग्य वैद्य से जन्म के तीसरेअथवा पांचवें वर्ष में किया जाना चाहिये।


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