कबीर की पीर (स्वर्ग से)


 "कबीर की पीर (स्वर्ग से)"


साधो! लागे मन नहीं हरि चरणन में।


हर चौराहा चक्रव्यूह है, फूटें बम क्षण-क्षण में ।।१।।


शैशव सोये संगीनन में, आग लगी यौवन में।


लाशों के अम्बार लग गये, नानक के आँगन में ।।२।।


सुहाग-सेज पर सजी सजनिया चाह-मिलन थी मन में।


जो आयो यो बाँध के सेहरो, आयो बँध्यों कफन में ।।३।।


कोई कहे माँ को मस्तक काढूँ, कोई चिपट्यो चरणन् में।


खुखरी-कृपाण उछाले दागें, राकेट नील गगन में ।। ४।।


संत वेश में असुर विराजे, हाथ रंगे चन्दन में।


कर्णधार मंत्रणा करे, कैकई के राज भवन में ।।५।।


साधो! सिरहाने साँप सिराण्यों क्यों खोयो स्वप्नन में।


विष-दंतों को तोड़ आहुती, दे दो दग्ध हवन में ।।६।।


जन-जन हो जाओ सावधान, भारत के भव्य भवन में।


संत फेंक दो कण्ठी-माला, कूदो समरांगण में ।।७।।


 


 


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