काशी पर चढ़ाई


काशी पर चढ़ाई


       काशी हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थ है। वह मूर्ति-पूजा का गढ़ है। वहाँ बड़े-बड़े पौराणिक पण्डित रहते हैं। जब दूसरे नगरों के पण्डित शास्त्रार्थ में स्वामीजी के सामने न ठहर सके तो उन्होंने काशी के पण्डितों का लिखा हुआ व्यवस्था-पत्र स्वामीजी को दिखलाया। उसमें लिखा था कि मूर्ति-पूजा, तिलक, कण्ठी, मृतक-श्राद्ध और ईश्वर का अवतार सब ठीक हैं। यह देख स्वामीजी को काशी के पण्डितों की विद्वत्ता का पता लग गया। आपने उनकी पोल खोलने का निश्चय कर लिया।


      जिस काशी को महादेव के त्रिशूल पर ठहरी हुई कहा जाता हैजिसके पण्डितों की विद्वत्ता पर सारा मूर्ति-पूजक जगत् अभिमान करता हैजिसमें जितने “कंकर उतने शंकर" हैं; जिसके ऊँचे-ऊँचे मन्दिर और शिवालय मूर्ति-पूजा की बड़ाई प्रकट कर रहे हैं, उसी काशीपुरी में एक लँगोट-बंद दिगम्बर संन्यासी हाथ में वैदिक-धर्म का झण्डा लिये प्रविष्ट हजा। जिस प्रकार भेड़ों के रेवड़ में सिंह की गरज से घबराहट उत्पन्न हो जाती है, उसी प्रकार इस नर-सिंह के वेद-नाद को सुनकर काशी की पण्डित-मंडली में खलबली मच गई। काशी में सब जगह मशहूर हो गया कि एक ऐसा संन्यासी आया है जो गंगा के प्रवाह की तरह संस्कृत बोलता है और मूर्ति-पूजा और अवतार-वाद का खण्डन करता है। सैकड़ो-सहस्त्रों लोग भगवान दयानन्द के पवित्र उपदेशों को सुनने के लिए आने लगे।


       स्वामीजी महाराज के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने का यत्न पण्डितों ने बहुतेरा किया। उनको गुप्त ईसाई, सरकार का भेदिया और नीच कुल में उत्पन्न हुआ कहकर बदनाम करने की बड़ी कोशिश की; परन्तु किसी प्रकार भी उनका काम सिद्ध न हुआ। अन्त को उन्हें स्वामीजी से शास्त्रार्थ करना ही पड़ा। स्वामीजी तो यह चाहते ही थे। पण्डितों की ओर से बड़ी भारी तयारी की गई। काशी के मूर्ति-पूजक राजा शास्त्रार्थ की सभा के प्रधान चुने गये। नियत दिन और नियत समय पर शास्त्रार्थ के स्थान पर लोग एक बहुत बड़ी संख्या में इकट्ठे हो गयेएक और काशी की सारी पण्डित-मंडली बड़े ठाठ-बाट के साथ डटी बैठी थी। उनके साथ उनके सैकड़ों सहायक थेऔर दूसरी ओर उनके सामने केवल एक जगदीश्वर का सहारा रखनेवाला बाल-ब्रह्मचारी सचाई की दाल हाथ में लिये अकेला बैठा था।


      मूर्ति-पूजा पर शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ। दोनों ओर से प्रश्न और उत्तर हुएपरन्तु वेद में मूर्ति-पूजा सिद्ध न हुई। पण्डित लोग समय टालने के लिए चालें सोचने लगेसाँझ हो चुकी थी। एक पण्डित ने दो फटे-पुराने पन्ने स्वामीजी के सामने रखकर कहा कि देखो ये वेद के पन्ने हैं। इनमें मूर्ति-पूजा की आज्ञा है।


     स्वामीजी ने कहा कि पढ़कर सुनाइए। परन्तु वह कहने लगा कि नहीं, आप ही पढ़िए। स्वामीजी उन्हें देख ही रहे थे कि पण्डित-मंडली ने ताली पीट दी-बोल सनातनधर्म की जय! और सारी सभा उठ खड़ी हुई। धूर्त लोग दुष्टता करना चाहते थे परन्तु पुलिस ने रोक दिया। समझनेवाले समझ गये कि काशी के पण्डितों में कितनी पण्डिताई है। स्वामीजी इसके बाद कई दिन तक काशी में ठहरे रहे और बार-बार शास्त्रार्थ के लिए पण्डितों को ललकारते रहे, परन्तु किसी को भी सामने आने का साहस न हुआ। होता भी कैसे? वे तो पहले ही मुश्किल से जान बचाकर आये थे।


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