काशी की फतह

काशी की फतह


                                                                पंडित चमूपति एम॰ए॰


चला जब न स्वामी पै जादू ज़बां का।
न तकरीर का तेग ने तोड़ा टांका॥
किया ज़हर ने काम जब शीरो नां का।
गया सिक्का जम जोगिये नुक्ता दां का॥


यह सक्ता था छाया हुआ पण्डितों में।
न था फर्क कुछ पण्डितों और बुतों में॥


कोई जाके काशी लिखा लाया पतरी।  
कि जायज़ है, वेदों में पूजा बुतों की॥
वोह पतरी ऋषि की जब आंखों से गुजरी।
कहा-हम ने काशी की ली देख शेखी॥


गये शेर की तरह फौरण गरज कर।
कि लो एक धावे में यह गढ़ हुआ सर॥


हिले बेख़तर वआज से काशी वाले।
यकायक उठे कांप सब बूढ़े बाले॥
गये पण्डितों से न ओसां सम्भाले।
जहालत ने थे अकल पर पर्दे डाले॥


जिन्हें पूजते थे सभी कह के शङ्कर।
किया उनको साबत ऋषिवर ने कङ्कर॥


यह रुदाद राजा के कानों में पहुंची।
कहा आज है नाक काशी की कटती॥
जो त्रिशूल पर शिव के काशी खड़ी थी ।
वोह धक्के से है एक साधु के हिलती॥


बुला भेजा नगरी के सब पण्डितों को।
कि भूदेवयो ! अब तुम बचाना बुतों को॥


कहा पण्डितों ने है मनजूर राजन!
करो जिस तरह हम को मामूर राजन॥
हमें दान दे देना भरपूर राजन।
करें शीशाय कुफ्र हम चूर राजन॥


मगर हम तो हैं और कुछ पढ़ने वाले।
दयानन्द वेदों के लेगा हवाले॥


हमें कर अता पन्द्रह दिन की मोहलत।
करें वेद की मिल के ता खूब किरअत॥
वोह साबत करें फिर बुतों की करामत।
दयानन्द की तोड़ दें साफ हुज्जत॥


रहा पन्द्रह दिन यह काशी का नकशा।
कोई बात गढ़ता कोई वेद पढता॥


हुआ बहस का वक्त जब, पण्डित आय।
बड़ा जमघटा साथ चेलों का लाय॥
गुरु पालकी में थे आसन लगाय।
थे नारों से शिश आसमां को उठाते॥


इधर पलटी काशी की सजधज थी सारी।
उधर एक साधु था कोपनीधारी॥


है साधु खड़ा पूछता धर्म क्या है?
निशां उसका क्या क्या मनु ने कहा है॥
ज़बां पर वहां सब की ताला लगा है।
है झक झक ही करता जो लब खोलता है॥


जो पूछा, अधर्म आप किस को कहेंगे?
तो निकला ने लफ्ज एक पण्डित के मुंह से॥


चली बुत परस्ती पै तकरीर जब वां।
तो लाया न उस पर कोई साफ बुरहा॥
लगे झांकने आसतीने फुका दां।
दलायल पै स्वामी की थी बज्म हैरा॥


वरक एक टूटा किसी ने दिखाकर।
कहा वेद का देखना स्वामी ! मन्तर॥


ऋषि ने नज़र थी अभी उस पै डाली।
वहीं पीट दी उठ के राजा ने ताली॥
यह तरकीब धोके की अच्छी निकाली।
रही बात काशी की सबसे निराली॥


वोह गुण्डे के आय थे रिशवत उड़ा कर।
लगे फेंकने हर तरफ ईंट पत्थर॥


किसी ने शरारत से जूता उछाला।
किसी के कटा कान से साफ बाला॥
किसी ने किया मुंह शराफत का काला।
लिया गोबर और सर पै जातों के डाला॥


गरज़ एक अन्धेर बरपा था हर सू।
खड़ा मस्त कोने में था मौजी साधु॥


थे कुछ बहस में अहले अख़बार आय।
वोह सच्ची ख़बर बहस की वां से लाय॥
हवा ने बहुत बर्की घोड़े उड़ाय।
हकीकत के पैगाम आलम ने पाय॥


दलीलों पै काशी को जिसने उछाला।
दयानन्द स्वामी ! तिरा बोल बाला॥


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