झांसी की रानी लक्ष्मीबाई

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई


       विद्रोह में बहुत सी घटनाएं हैं। इतनी घटनाएं हैं कि उन्हीं की एक परी कहानी बन सकती है। इसलिए हम केवल कुछ मोटी-मोटी घटनाएं ही पेश करेंगे। १८५७ के विद्रोह में बहुत से वीर सामने आए। पर सबसे अधिक प्रभाव शायद रानी लक्ष्मीबाई का पड़ा। इसका कारण यह है कि वह एक महिला होते हुए भी उसने पिछड़े हुए युग में इतनी वीरता दिखाई।


       महारानी लक्ष्मीबाई एक साधारण घराने में उत्पन्न एक साधारण लडकी थी। उसके पिता पेशवा के सेवक थे। पर जब पेशवाई खत्म हो गई, तो वह काशी में आकर बस गए। महारानी का बचपन का नाम मनुबाई था और कोई-कोई उन्हें प्रेम से छबीली भी कह दिया करता था। बाद को वह अपने पिता के साथ बिठूर गई, जहां पेशवा बाजीराव के गोद लिए हुए पुत्र नाना साहब रहते थे। दोनों में भाई-बहन का रिश्ता हो गया और दोनों खेल-कूद अस्त्र-शस्त्र चलाना, घुड़सवारी एक साथ करते थे। इस प्रकार दोनों के विचार भी एक तरह से बनते रहे।


       मनुबाई की शादी झांसी के गंगाधर राव के साथ हुई। १८४२ में गंगाधर राव झांसी की गद्दी पर बैठे थे। पहली रानी के मर जाने पर उन्होंने मनुबाई के साथ शादी की। यही मनुबाई बाद में रानी लक्ष्मीबाई के नाम से प्रसिद्ध हुई।


       सन १८५७ में महारानी लक्ष्मीबाई के पुत्र उत्पन्न हुआ, पर वह तीन महीने के अन्दर ही मर गया। इसके बाद गंगाधर राव का स्वास्थ्य गिरने लगा। बड़ी कठिनाई से तीर्थयात्रा, पूजापाठ आदि करके बच्चा उत्पन्न हुआ था उसके मर जाने पर गंगाधर राव निराश हो गए। तब उन्होंने कम्पनी की सरकार को एक खरीता भेजा, जिसमें यह प्रार्थना की कि मेरा स्वास्थ्य गिर रहा है। मैं शायद ज्यादा दिन नहीं जीऊो ब्रिटिश सरकार से मेरी जो सन्धि हुई है, उनके अनुसार मैंने एक पांच वर्ष के लड़के आनन्दराव को गोद ले लिया है। यह लड़का मेरे ही वंश का है। सरकार इसे मेरा वारिस स्वीकार कर ले। जब तक मेरी रानी जिन्दा है. वह राज्य की मालिक और पुत्र की माता मानी जाए और राज्य की व्यवस्था उसके हाथ में रहे। पर गंगाधर राव की मृत्यु के बाद गवर्नर जनरल ने आनन्द राव को गंगाधर राव का वारिस नहीं मानायहां तक कि रानी का भी कोई अधिकार नहीं माना गया और झांसी का शासन एक राजनैतिक एजेन्ट एलिस को सौंप दिया गया।


          कहते हैं, इन्हीं दिनों जब लक्ष्मीबाई ने यह घोषणापत्र सुना, तो उनकी आंखों से आंसू आ गए और उन्होंने कहा-मैं अपनी झांसी, नहीं दूंगी।


          गंगाधर राव की सम्पत्ति पर भी ब्रिटिश सरकार ने कब्जा कर लिया। किला और उसके साथ का महल अंग्रेजों के हाथों में चले गए। केवल शहर का महल रानी को रहने के लिए दिया गया। रानी ने उमेशचन्द्र बनर्जी को अपने मामले के लिए विलायत भेजा था, पर उसका कोई नतीजा नहीं हुआ। लोग दुखी थे कि रानी के साथ ऐसा दुर्व्यवहार हुआ |


          इन्हीं दिनों मेरठ और दिल्ली में विद्रोह हुआ और झांसी पर भी इसका असर पड़ाजब झांसी में विद्रोह हुआ तो कुछ अंग्रेज मारे गए और दोनों तरफ से कुछ लड़ाई हुई। पहले रानी खुल कर विद्रोह में नहीं आई, पर बाद में वह आ गई। लोगों में बड़ा उत्साह था और लक्ष्मीबाई को यह आशा थी कि बाहर से नई फौजें आएंगी। तात्या टोपे २० हजार फौज लेकर झांसी की रक्षा के लिए आए भी। घमासान लड़ाई हुई, पर दुर्भाग्य से तात्यां हार गए और उनकी फौज लौट गई। इस हार से लोगों में कुछ निराशा फैली, पर ऊपर से सब लोग शान्त रहे।


          विद्रोहियों के कब्जे में झांसी का जो किला था, उस पर बड़े जोरों से अंग्रेजों का आक्रमण हुआ, इंच-इंच भूमि के लिए लड़ाई हुई। पर जीत अंग्रेजों की ही हुई, क्योंकि उनके पास बड़ी सेना थी। इसके अलावा कुछ साथियों ने धोखा भी दिया।


           झांसी पर विद्रोहियों की विजय हुई थी और काफी दिनों तक विद्रोहियों का झण्डा झांसी के किले पर फहराता रहा, पर यह झांसी की सबसे बड़ी घटना नहीं है। सबसे बड़ी घटना है महारानी की वीरता और अंग्रेज सेना से लड़ते-लड़ते शहीद होना। उसका कुछ ब्यौरा इस प्रकार है


झांसी का युद्ध


          महारानी ने जब देखा कि अब कोई आशा नहीं है, तो वह भाग कर दूसरी जगह मोर्चा लेने को बढ़ी। उनका पीछा ब्रिटिश सेना ने किया। जब यह देखा गया कि महारानी खतरे में हैं, तब उनके ४० अनुयायी पीछे लौट पड़े और अंग्रेज सेना से लड़ाई करते रहे ! ये सारे ४० आदमी लड़ते हुए मारे गए।


          ४० आदमियों ने प्राण दे दिए, नतीजा यह हुआ कि महारानी पकड़ी जा सकीं और वह साफ निकल गईवह घोड़े पर कालपी पहुँच की सब विद्रोही इकट्ठे थे। पर वहाँ भी शत्रु की फौज पहुंच गई मई को कालपी तथा उसके इर्दगिर्द के सारे इलाके पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। जब कालपी में भी हार हो गई, तो विद्रोहियों में चिन्ता ला हई। विद्रोहियों में निराशा फैल रही थी। ग्वालियर से कुछ सहायता की आशा थी इसलिए सब लोग उस तरफ चले। महारानी ने देखा कि भागते ही रहना है और वह भागती रही, पर वह भागती जाती थी और लड़ती जाती थी। अवश्य इस लड़ाई का कोई असर नहीं हो रहा था। शत्रु सेना बल थी। आखिर बड़ी लड़ाई ग्वालियर में हुई। पर वहाँ भी विद्रोही जीत नहीं पाए। सेना में भगदड़ मच गई। रानी फिर वहाँ से निकल गई।


          महारानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु कैसे हुई इस सम्बंध में बहुत तरह की कथाएं हैं। एक अंग्रेज मैकफर्सन के अनुसार फूलबाग के तोपखाने के पास महारानी लक्ष्मीबाई शहीद हुई। कहा जाता है कि वह घोड़े से उतर कर पानी पी रही थीं कि यह खबर आई कि शत्रु के घुड़सवार आ गए। महारानी के साथ उस समय लड़ते-मरते केवल १५ साथी रह गए थे। इन्हीं के साथ महारानी लड़ाई में कूद पड़ीं। उनका पुराना घोड़ा उनके पास नहीं था। जो घोड़ा था, वह ठीक से काम नहीं कर रहा था। एक नाला फांद कर पार करना था। पर घोड़ा उसे पार नहीं कर सका और महारानी के बाजू में एक गोली लगी। फिर सिर पर तलवार का एक हाथ पड़ा। फिर भी वह घोड़े पर चढ़ी चलती रहीं। वह थोड़ी ही देर में वहाँ गिर पड़ी। विद्रोहियों ने उनकी दाह क्रिया उसी बाग में कर दी |


          हर्बर्ट हैमिल्टन ने यह लिखा है कि महारानी घोड़े पर थीं और उनके साथ उनकी मुसलमान नौकरानी भी थी, जो हर वक्त उनके साथ रहती थी। उन दोनों को गोली लगी और दोनों गिर पड़ीं। महारानी इसके बाद भी लगभग २० मिनट तक जीवित रहीं। वहां से वह फूलबाग ले जाई गई जहाँ उनकी दाहक्रिया की गई। 


          किंवदन्ती ने इसके साथ एक साधु का आश्रम जोड़ दिया है। कहा जाता है कि उस साधु ने महारानी को शहीद होते हुए देखा तो उसके पास उस वक्त कोई लकडी आदि नहीं थी और शत्रु आ रहे थे इसलिए उसने अपनी कुटिया में महारानी की लाश रखी और उसमें आग लगा दी |


         इस प्रकार सभी तरह से यह पता चलता है कि महारानी लड़ते हुए मारी  गई और उनकी लाश शत्रू  के हाथ नहीं लगी। महारानी युद्ध क्षेत्र में  एक वार सैनिक की भाँति शहीद हई। उस समय उनकी उम्र कवल २० के करीब थी। 


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