जीवन-संग्राम

जीवन-संग्राम


महि महे तवसे दीध्ये नृनिन्द्रायत्था तवसे अतव्यान। 


यो अस्मै सुमतिं वाजसातौ स्तुतो जने समर्यश्चिकेत॥


ऋषिः-संवरणः प्राजापत्यः॥ देवता-इन्द्रः॥ छन्द:-त्रिष्टप


विनय-जीवन का संग्राम बड़ा विकट हैमैं क्षुद्र हूँ, अत्यन्त निर्बल हूँ, परन्त हे दहा तुम तो महान् हो, बलवान् हो, सर्वशक्तिधाम हो और तुम्हारी शक्ति का आश्रय पा निर्बल भी महाबली हो सकता हूँ। इसलिए मैं आज “अतव्यान्'' होकर भी महान का पाने के लिए महत्त्वपूर्ण 'आरम्भ' करने लगा हूँ। तेरा ध्यान करके मैं आज अपनी सस शक्तियों को जगाता हूँ, अपनी छिपी हुई 'नर' शक्तियों को, नेतृत्व की शक्तियों को उबद्ध करता हूँ, ध्यान द्वारा अपने पौरुषों को प्रदीप्त करता हूँ, अपने-आपको प्रकाशित करता हूँ। इस प्रकार महान् बल को धारण करके मैं अपनी विजय-यात्रा पूरी करूँगा, परन्तु हे इन्द्र! यह सब मैं तुम्हारा अवलम्बन पाकर ही कर सकूँगातुम 'समर्थ' हो, इस संसार-समर में विजय प्राप्त करानेवाले हो। उस श्रेष्ठ मति को तुम्हीं जानते हो और तुम्हीं दे सकते हो जिसके द्वारा इस घोर जीवन-संग्राम में विजय-प्राप्ति होती हैमैं जानता हूँ कि भक्ति से अभिमुख हुए तुम नित्य सुमति देनेवाले पथप्रदर्शक बन जाते हो। इसलिए इस दीन जन पर भी कृपा करोतुम्हारा नाम लेकर, तुम्हारे लिए, मैं आज इस प्रकार महान् कार्य प्रारम्भ करने लगा हूँ, महान् बल पाने के लिए अपने पौरुषों को प्रदीप्त करने का महान् कार्य प्रारम्भ करने लगा हूँ| 


शब्दार्थ-महि=महत्त्व के साथ      महे तवसे =महान् बल के लिए मैं       नृन्-अपना शक्तियों को, पौरुषों को       दीध्ये =प्रदीप्त करता हूँ, ध्यान द्वारा प्रदीप्त करता हूँ,      इत्था= इस हत्या इस प्रकार      तवसे इन्द्रा=बलस्वरूप इन्द्र को [पाने के] लिए       अतव्यान्=मैं निर्बल [अपना  को प्रदीप्त करता हूँ]       यः= जो इन्द्र        स्ततः भक्ति से अभिमख किया गया            समय समर्यः=करानेवाला, संग्राम में हितकारक       अस्मै जने= इस निर्बल जन के लिए      वाजसातौ=जीवन संग्राम में        सुमतिम्=उत्तम मति को    चिकेत =जगाता है     


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