जातकर्म संस्कार


जातकर्म संस्कार


       यह संस्कार मानव जीवन का जन्मोत्तर संस्कार है। शिशु के जन्म के पश्चात् किया जाने वाला प्रथम संस्कार होने के कारण यह जातकर्म संस्कार है। इस संस्कार में शिशु की जाति का निर्धारण नहीं होता क्योंकि जाति का निर्धारण तो जन्म के साथ ही मनुष्य जाति के रूप में हो गया है। जातकर्म तो कुछ क्रियाओं का नाम है। यह क्रियाएं दो प्रकार की होती हैं। प्रथम वह जिन का शरीर व इन्द्रियों की सफाई से सम्बन्ध होता है। इन्हें कर्म कह सकते हैं तथा दूसरी वह जिन से शिशु को संस्कार देने होते हैं।


    १.जन्म लेने पर किये जाने वाले कर्म " सफाई " "


      जन्म से पूर्व गर्भावस्था में बच्चे के रहने का वातावरण जन्म के पश्चात् के वातावरण से पूर्णतया भिन्न होता है । जन्म पूर्व उस की सारी क्रियाएँ माता के माध्यम से होती हैं। इस समय वह पानी से भरी एक थैली में रहता है। बच्चे के नाक, कान , मुंह, आंख आदि श्लेष्मा से बन्द किये रहते हैं ताकि उसके इन अंगों में पानी न चला जाए। जन्म लेते ही जो प्रथम कर्म किया जाता है, वह है इन अंगों की सफाई जब तक इन अंगों की सफाई न की जाए ,तब तक यह अंग क्रियाशील गहा होते अतः इनकी सफाई करके इन्हें खोला जाता है तथा कान में श्रवण शक्ति आरम्भ हो ,इसलिए कान के पास पत्थरों को टकरा करी आवाज की जाती है। इस समय बच्चे को कय "उल्टी" करवा कर उस नाक व फेफडे भी साफ किये जाते हैं। इस हेतु सैंधव नमक घी में मिलाकर दिया जाता है। बच्चे के शरीर पर से थैली के दूषित पानी के लेवा का प्रभाव समाप्त करने के लिए साबुन के साथ उसे गुनगुने पानी से नहलाया जाता है। अब कान के पास पत्थर से आवाज करके कानों को सुनने की क्षमता दी जाती है। इस प्रकार शिशु की इन्द्रियों को सजग करना या इन्हें प्रयोग के लायक बनाना ही जातकर्म है |


      हावा यह सब क्रियाएं करने के पश्चात् सिरपर घी से स्निग्ध कियाकपडा या रूई रखी जाती है। यह इस लिए कि यहां सिर की तीन अस्थियों के सन्धि स्थान पर तालु होता है। यही वह स्थान है जहां से बच्चे के स्वस्थ होने का पता चलता है। इसे दृढ करने के लिए ही यहल घी युक्त रूई रखी जाती है। यह इसकी रक्षा भी करता है तथा इसेजना पोषण भी देता है। इससे सर्दी आदि से भी रक्षा होती है। इसी प्रकार घी व मधु ( विषम भाग ) को सोने की श्लाका से जिह्वा पर “ओ३म् लिखने का आदेश दिया है। मधु व घी तो उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करता हैतथा भोजन की प्रेरणा देता है। जबकि ओ३म् प्रभु के स्मरण व आशीर्व द स्वरूप लिखा जाता है। जो उसे अध्यात्म के मार्ग पर चलने का द्योतक है |


    २. जन्म के समय के संस्कार


        ऊपर हमने बताया है कि जन्म लेते ही उसकी पांचों इन्द्रियों को साफ करके इन्हें ठीक से कार्य करने के योग्य बनाया जाता है तथा उर भोजन करना चाहिये ताकि स्वस्थ रह राके, इसका परिचय भी उसे दिया जाता है। अब इसे ऐरो संस्कार देने हैं कि वह जीवन पर्यन्त उन्हीं को सम्मुख रख अपने जीवन को एक निश्चित दिशा में चला सके। माता पिता व सन्तान , यह दोनों पक्ष आपसी व्यवहार से सरकार की किया करते हैं। माता पिता बालक की जिहा पर ओम लिख कर यह जिम्मेवारी लेते हैं कि वह अपनी सन्तान को ईश्वरीय "आध्यात्मिक मार्ग पर चलाएगा । बच्चा भी कुछ बड़ा होकर अपने माता पिता की आकांक्षाओं को पूर्ण करने का प्रयास करेगा। यह सरकार उसे ऊंचे से ऊंचा उठाने के लिए है।


      बालक का अध्यात्म की तरफ झुकाव तभी होगा जब उसमें एगे विचार भी होंगे। इसलिए बालक केकान में पिता कहता है "वेदोऽसीति" अर्थात् हे बालक ! तू ज्ञान वाला प्राणी है। जो बात कान में कही जाती है उसका महत्त्व अधिक होता है। अतः बालक जीवन पर्यन्त इस बात को स्मरण रखता है कि उसे ज्ञानी बनने का उपदेश पिता ने दिया है कि में मेहनत कर के पिता की आकांक्षाओं पर खरा उतरूंगा। इस से मौज मस्ती के साथ ही साथ आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करते हुए यथार्थ में विचरण करने की प्रेरणा दी गई है |


      इस प्रकार न केवल जन्म से पूर्व अपितु जन्म लेने के पश्चात् भी आजीवन उसे स्मरण दिलाया जाता है विभिन्न संस्कारों के माध्यम से कि उसने ऊंचे वैदिक आदर्शों को प्राप्त करने के लिए, दूसरों की सहायता व मार्ग दर्शन देने के लिए उच्च वैदिक ज्ञान को प्राप्त करना इससे इसका अपना कल्याण तो होगा ही, अन्य भी इससे लाभान्वित हाग।


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