इज्या-बीज


इज्या-बीज


      इज्या शब्द का सर्वविदित अर्थ यज्ञ है। यज्ञ का मुख्यार्थ संगतिकरण है। संगतिकरण कम से कम दो तत्त्वों में होता है। यज्ञ में अग्नि और आज्य दो तत्त्व हैं। उनमें संगतिकरण का माध्यम समिधा है और अन्तेवासी अपने हाथ में समिधा लेकर आया ही है जो इस बात का प्रतीक है कि हे आचार्यप्रवर! मैं अपने अन्नमय, प्राणमय और मनोमय इन तीनों को समिधा बना लाया हूँ और हम परस्पर एक-दूसरे को चमकाएँगे और बढ़ाएँगे। यही है इज्यागत समर्पण-बीज, जिसका गुरुकुल-क्षेत्र में वपन किया जा रहा है।


उपनयन


       हम पिछले पृष्ठों में उपनयन-विषयक पर्याप्त चर्चा कर चुके हैं। यह वह बीज है कि जो ब्रह्मचारी को आचार्य के समीप पहुँचाता है। समित्पाणि होकर आना ही इस बात का प्रतीक है। अत: आचार्य उसे समीप ही नहीं लेता अपितु उसे अपने उदर में लेता है।


नियम


        कुमार को दीक्षित होने के लिए यह आवश्यक है कि पूर्व-आचार्यों द्वारा बनाए हुए नियम-बीजों का अपने धर्म-क्षेत्र और कुरु-क्षेत्र में वपन करे। उपनयनसंस्कारोपरान्त पिता पुत्र-ब्रह्मचारी को उपदेश देता है जिसका आरम्भ आश्वलायनगृह्यसूत्र, गोभिलगृह्यसूत्र में विस्तारपूर्वक वर्णन है जिसका प्रारम्भ अधोलिखित शब्दों में है-


        ब्रह्मचार्यसि पुत्र!॥१॥अपो ऽशान॥२॥ कर्म कुरु॥३॥ दिवा मा स्वाप्सीः॥४॥ आचार्याधीनो वेदमधीष्व॥५॥ [आश्व० १।२२।२॥]


        द्वादश वर्षाणि प्रतिवेदं ब्रह्मचर्यं गृहाण वा ब्रह्मचर्य चर॥६॥


        [तु० आश्व० गृ० १।२२ । ३,४॥ पा०गृ० २।५।१३-१५]


        आचार्याधीनो भवान्यत्राधर्माचरणात्॥७॥ क्रोधानृते वर्जय॥८॥


        मैथुनं वर्जय॥९॥ उपरि शय्यां वर्जय॥१०॥ कौशीलवगन्धाञ्जनानि वर्जय॥११॥


[गो० गृ० ३।१ । १५१-९]


        इत्यादि नियमों का पालन करें। [इसका विस्तृत वर्णन संस्कारविधि में पठनीय व दर्शनीय है, पाठकवृन्द वहीं पर देखें।]


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