हिंसा तथा अहिंसा


हिंसा तथा अहिंसा


      योगदर्शन के भाष्य (व्याख्या) में महर्षि वेदव्यास ने अहिंसा शब्द का अर्थ किया है-सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोहः अहिंसा ज्ञेयाअर्थात् सब प्रकार से सदा सब प्राणियों से वैर-भाव का त्याग अहिंसा कहलाती है। इसलिये किसी भी प्राणी पशु-पक्षी या मनुष्य को पीड़ा देना या न देना ही हिंसा या अहिंसा नहीं होती अपितु उसके पीछे कारण और भावना ही उस कर्म को हिंसा या अहिंसा बनाते हैं, वैर भाव से या बिना कारण ही किसी प्राणी को कष्ट देना या जान से मार देना हिंसा है। युद्ध में शत्रु के प्राण लेना हिंसा नहीं। जंगली दुष्ट पशु जो खेती को खराब करें या जंगली जानवर शेर, चीता आदि जो मनुष्यों को हानि पहुँचाएं उन्हें मारना हिंसा नहीं। खाने के लिए पशुओं को मारना हिंसा और पाप है।


       श्री राम ने ताड़का, बाली, रावण, आदि दुष्टों का संहार किया। श्री कृष्ण ने कंस, जरासंध, शिशुपाल आदि को मारा। ऐसा करके इन्होंने लाखों और करोड़ों लोगों को उनके अत्याचारों से छुटकारा दिलाया। यही सच्ची वैदिक अहिंसा है। राजा का धर्म आततायी, पापी, दुराचारी को दण्ड दे करके सज्जनों की रक्षा करना है। इसी धर्म का श्री राम तथा श्री कृष्ण ने पालन किया था।


      निस्संदेह वेदों का अनर्थ करके यज्ञ के लिए मूक पशुओं का वध करना रूपी क्रूर कर्म देखकर गौतम बुद्ध ने अहिंसा का संदेश दिया था। परन्तु उनकी अहिंसा भी गलत थी। गौतम बुद्ध तथा वर्धमान महावीर की गलत अहिंसा का दुष्परिणाम यह हुआ कि करोड़ों बहादुर नौजवान, केवल अहिंसा का आश्रय लेकर बौद्ध भिक्षुक और जैन श्रावक बनकर कायर, डरपोक, और नपुंसक बन गए। दोनों महानुभावों ने युद्ध का घोर विरोध किया। उनका कहना था कि अपनी ही अन्तरात्मा के साथ युद्ध करो, बाहर का युद्ध नहीं। इसी कारण से देश लम्बे समय तक गुलाम रहा।


      शान्ति के नाम पर आततायी (हमलावर) के पांव तले अपने राष्ट्र को रौंदवा देना कायरता, पाप, हिंसा और अधर्म है। आततायी के दांत खट्टे करना ही अहिंसा तथा वेदोक्त धर्म है। हमेशा शक्ति से ही शान्ति खरीदी जा सकती है, अशक्त और गलत अहिंसावादी बनकर नहीं। संसार में शक्ति की ही पूजा होती है। महाराणा प्रताप, शिवाजी, बन्दा वैरागी, झांसी की रानी की पूजा इसीलिए होती है कि उन्होंने आततायी शत्रुओं का वीरता से दमन किया था। उन भिक्षुओं और श्रावकों की पूजा नहीं होती जिन्होंने अहिंसा के नाम पर विदेशियों को भारत भू को रौंदने से नहीं रोका। उन पण्डों की भी पूजा नहीं होती जो हमलावर महमूद गजनवी से न स्वयं लड़े और न सैनिकों को लड़ने दिया और मान बैठे कि सोमनाथ जी यानि मूर्ति स्वयं म्लेच्छों को मार भगाएगी।


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