हवन या अग्निहोत्र (यज्ञ)


हवन या अग्निहोत्र (यज्ञ)


       यज्ञ से जल और वायु की शुद्धि होती है जिससे रोगों का निवारण होता है। मनुष्य को स्वस्थ और सुखी रहने के लिए जल और वायु की स्वच्छता परम आवश्यक है। कहीं दूर जाना हो तो सबसे पहले वहां का जलवायु ही पूछा जाता है, क्योंकि यदि वहां का जलवायु (जल और वायु) ठीक है तो वहां पर स्वस्थ रह सकेंगेआज संसार में जल और वायु की अशुद्धि एक बड़ी भारी समस्या बनी हुई है। वैदिक संस्कृति में यज्ञ (हवन) इस समस्या का सर्वोत्तम समाधान है। पुराने समय में ऋषि, मुनि, राजे, महाराजे तथा प्रजा प्रतिदिन प्रातः सायं यज्ञ किया करते थे।


      अग्नि में भेदन शक्ति-अग्नि में पड़े हुए घी आदि पदार्थ छिन्न-भिन्न तथा हल्के होकर हवा में मिलकर दूर-दूर फैल जाते हैं और हवा को शुद्ध करते हैं। जो भाप आदि जल का भाग होता है वह भी हवा के सहारे ऊपर उठकर बादल बन जाता है। फिर वर्षा के रूप में भूमि पर वापिस आता है। वर्षा के इस शुद्ध जल में फल, सब्जियां, वनस्पतियां आदि भी रोगनाशक होती हैं। घर में केसर, कस्तूरी आदि रखने से तथा चन्दन आदि घिस के लगाने से उसका एक अंश भी लाभ नहीं होता |


      चार प्रकार के पदार्थों से होम करना चाहिए। (एक) सुगन्ध वाले-केसर, कस्तूरी, अगर, तगर, सफेद चन्दन, इलायची, जायफल, जावित्री आदि। (दूसरे) पुष्टिकारक-घी, फल, कन्द, चावल, गेहूं, उड़द आदि (तीसरे) मीठे-शक्कर, शहद, छुआरे, दाख आदि। (चौथे) रोगनाशक-सोमलता अर्थात् गिलोय आदि औषधिया।


       समिधा (लकड़ी-चन्दन, पलास (ढाक), पीपल, बड़, गूलर, आम आदि का हो जिनके जलने से दुर्गन्ध और धुआं अधिक न हो।


      यज्ञकुण्ड का प्रयोजन-जैसे तापने (सेंकने) के लिए अंगीठियां आदि बनाई जाती हैं ताकि आग इधर उधर न बिखरे तथा थोड़े ईंधन से ही अधिक सेक हो सके इसी कारण से हवनकुण्ड बनाया जाता है ताकि पदार्थ शीघ्र ही भिन्न-भिन्न परमाणु होकर वायु के साथ आकाश में फैल जाएं।


      वेदी बनाने का प्रयोजन है कि वायु अधिक न लगे तथा उड़ता हुआ पक्षी या उसकी बीठ इत्यादि न गिरे। 


      यज्ञ करते समय. पहनने के वस्त्र-गर्मी में रेशमी और सर्दी में ऊनी वस्त्र पहनकर यज्ञ करने का शास्त्रों में विधान है। इसलिये कि रेशम और ऊन के वस्त्र को आग लग जाने पर थोड़े स्थान पर ही लगकर बुझ जाती है। गर्मी में रेशम के वस्त्र पहनने से पसीना भी कम आता है।


      होम न करने से मनुष्य को पाप लगता है। मनुष्य के शरीर से दुर्गन्ध निकलकर जितना जल वायु अशुद्ध करके रोग उत्पत्ति करता है तथा प्राणियों को दुःख देता हैउतना ही पाप लगता है। केवल अपने शरीर से ही नहीं अपितु अपने सुख के लिए रखे पशु इत्यादि से भी जो दुर्गन्ध उत्पन्न होता है उसके पाप का भागी मनुष्य ही होता है। इसलिये उस पाप के निवारणार्थ उतना या अधिक सुगन्ध जल और वायु में फैलाना चाहिये। 


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