हम संध्या कैसे करें


         आत्म कल्याण हेतु अध्यात्मस्थ प्रभु प्रेमी एवं स्वाध्यायशील पाठकवृन्द! गत अंकों में जहाँ आप मन्त्रों के अर्थों को जानते और मननपूर्वक समझते आ रहे हैं, वहां भावार्थ के अनुसार आचरण करते हुए वास्तविक संन्ध्या रस से आनन्द लाभ कर रहे होंगेऐसा मेरा विश्वास है। इससे आपकी व्यक्तिगत उन्नति के साथ जीवन में निखार आने से आपके सच्चरित्र के कारण समाज में प्रतिष्ठा (यश) प्राप्ति भी होगी। बल्कि आपके कारण समाज/संस्था का सम्मान भी बढ़ेगा। या यों समझना चाहिए कि सज्जनों की संगति से प्रभावित हो (प्रेरणा पा) कर अन्य जन भी उस दिशा में बढ़ने का प्रयत्न करेंगे।


            प्रसंगवश दूसरे मन्त्र के षष्टांश (छठे भाग) ओ३म् हृदयम् का अर्थ एवं भावार्थ हृदयंगम कीजिए।


           जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि, इस मंत्र में शरीर के अनेक अंगों के नाम हैं और नाममात्र इन्द्रियों के नाम हैं। जबकि मंत्र का नाम इन्द्रियस्पर्श' है। तथापि इन सब में उन (अंगों) के कामों का अर्थ ही महत्व रखता है। लीजिए अर्थ करने के लिए "यशोबलम्' की कुंजी से इसे स्पष्ट करें। हे प्रभो ! मेरा हृदय बल और यश भोजन वाला हो। ध्यान दीजिए, हृदय के अर्थ में अनेक शब्द प्रयुक्त होते हैं। जैसे-मन, चित्त, दिल। किन्तु हृदय का अर्थ है-मंजूषा, संदूकची या डिब्बा। उसमें गुण संभालकर रखने से वह बलवान और यशस्वी बन सकता है।


              हृदय नामक अंक तब बढ़ेगा जब इसमें धैर्य और सन्तोष गुण होंगे। और यश मिलेगा तब, जब इसमें उदारता और नम्रता नामक गुण होंगे। कारण यह, कि हृदय हमारे शरीर में अनुभूमि एवं संवेदना का उपकरण भी है दुख और सुख उसकी अनुभूमि के विषय हैं। दुखों के मूल में विपत्ति निर्धनता तथा दैन्य स्थिति होते हैं। ऐसी दशा में धैर्य और सन्तोष धारण करने के अतिरिक्त और कोई चारा ही नहीं। मानो, इन अथवा अन्य समस्याओं का सामना करने की क्षमता (व्यायाम) से हृदय का बल बढ़ता रहता है। सुखों के मूल में सम्पत्तियां (धन, पुत्र परिवार एवं अन्य साधन) आधारभूत होते हैं। ऐसी दशा में उदारता और नम्रता (अभियान का अभाव) ही यश की प्राप्ति का कारण होते हैं। इसका भावार्थ हुआ- 


              हे प्रभो ! मैं धैर्य और सन्तोष गुणों से मेरा हृदय बलवान बने तथा उदारता और नम्रता गुणों से मेरा हृदय यशस्वी बना रहे।


            मंत्र के सप्तांश “ओ३म् कण्डः" का अर्थ यशोबलम्' की कुंजी से खोलने पर होगा'मेरा कण्ठ बलवान और यशस्वी हो।' और भावार्थ के लिए थोड़ा चिंतन-मनन करने पर आप (भी) इस परिणाम पर पहुंचेंगे, कि मेरा कंठ (स्वरयन्त्र) स्वस्थ-विकार रहित, अर्थात् बलयुक्त रहे। उच्चारण भाषण में सक्षम बना रहे । मर्यादित उच्चारण-न चिल्लाना और न गुनगुनाना बल्कि मध्यस्तर से बोलना ही बलवान कंठ का चिह्न है। रही बात इस (कण्ठ) के यश प्राप्ति की।सो आप ही इसका उत्तर दें कि जमाने में किसके कण्ठ (स्वर या मधुर आलाप) की प्रशंसा हो रही है। आप सहसा कह उठेंगे कि “लता मंगेशकर” के गले (कंठ) ने तो कमाल कर दिया। इस वृद्धावस्था में भी हव कोकिल-कंठ ही कहलाती है। किस प्रकार से उसने सादा भोजन (चटपटे, मसालेदार खाद्य पदार्थों से परहेज करने) के कारण कंठ को स्वस्थ (बलवान्) तथा सुरीली आवाज से यशस्वी बना रखा है। सार यह कि मधुर गीत गाने से कंठ को यश मिलता है । 


           भावार्थ यह कि हे प्रभो ! मेरा कण्ठ सात्विक (सादा) आहार मर्यादित उच्चारण से बलवान तथा मधुर गीतों के माध्यम से यशवाला बना रहे। 


           बलवान तथा मधुर गीतों मंत्र के अष्टमांश (आठवों भाग) ओ३म् शिरः का उच्चारण करते ही यशोबलम् की कुंजी से इसका अर्थ कर लेंगे, कि मेरा सिर बल और यश वाला हो।' सिर का ध्यान करते ही सिर में स्थिर बुद्धि की कल्पना कीजिए। उस बुद्धि के बल की प्राप्ति और यश की वृद्धि के साधन का चिंतन करने से भावार्थ स्पष्ट होगा, कि “मेरी बुद्धि निर्णायक और निश्चयात्मक हो।” संभवतः आप निर्णय और निश्चय के अर्थ में अंतर न समझते हों। इसी उद्देश्य से स्पष्ट करने लगा हूं। यह तो आप जानते और मानते ही हैं, कि बल प्राप्ति के लिये व्यायाम (बार-बार अभ्यास) की आवश्यकता है। अतः बुद्धि को बलयुक्त बनाने के लिए "तर्क" एवं प्रश्नोत्तर का अभ्यास करना चाहिये। परिणमास्वरूप आप निर्णय पर पहुंच जायेंगे। क्या ठीक है? क्या गलत है? बुद्धि में मंथन करने से जो निष्कर्ष होगा, वही निर्णय होगा। यह है-बुद्धि के बल की प्राप्ति का साधन। परन्तु विडम्बना यह है, कि साधारण जन निर्णय तो कर लेते हैं, किन्तु तदनुसार आचरण नहीं करते। इस प्रकार उस बद्धिबल का क्या लाभ? यह तो वैसी बात है जैसे कोई बलवान् (पहलवान्) न तो आत्मोद्धार करे और न परोपकार करे। उसे तो डरपोक ही कहा जाएगा।


           अतः निर्णय उक्त निर्णय को 'क्रियात्मक रूप देना ही निश्चय' कहलाता है। सचमुच उत्तम निर्णय करने वाली बलशाली बुद्धि की प्रशंसा कौन करेगा? जब तक उसका क्रियात्मक रूप 'सुंदर परिणाम' (फल) नहीं देखेगा? अतः किसी द्वारा किए गए कार्य को देखकर ही उक्त व्यक्ति के निर्णय का अनुमान लगाया जा सकेगा l 


             भावार्थ यह कि हे प्रभो ! मेरे सिर में स्थित बुद्धि द्वारा निर्णायक अर्थात् बलशाली और उसे चरितार्थ करके निश्चयात्मक भी हो। 



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