हम ऋणी हैं


         सन् १८२५ में टंकारा के जीवापुर मोहल्ले में कर्षन जी तिवाड़ी के घर एक पुत्र ने जन्म लिया। पृथ्वी पर जो असाधारण होते हैं वे बाल्यकाल से ही असाधारण मार्ग पर चलना आरम्भ कर देते हैं। शिवरात्रि को पिण्डी पर चढ़े हुए चूहों को देखकर १३ वर्ष के बालक ने यथार्थ महादेव को देखने का व्रत लिया। १४ वर्ष की बहन के वियोग के प्रथम शोक से मृत्यु क्लेश से बचने का उपाय खोजने का संकल्प किया। प्यारे चाचा के देहान्त से सांसारिक वस्तुओं की निःसारता का पाठ पढ़ लिया। सन् १८४६ में चुपचाप वैभव सम्पन्न घर को छोड़ दिया। शैला में ब्रह्मचर्य आश्रम की दीक्षा लेकर अगस्त १८४६ में शुद्ध चैतन्य हो गये। शृंगेरी मठ से आ रहे विद्वान् पूर्णानन्द सरस्वती से चाणोद- कर्णाली में नर्मदा के तट पर सन् १८४७ में संन्यास की दीक्षा लेकर शुद्ध चैतन्य दयानन्द सरस्वती हो गये।


         श्री देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय अपने जीवन के लगभग पन्द्रह वर्ष ऋषि की जीवनी लिखने हेतु लगाने के सम्बन्ध में कारण बताते हुए महर्षि दयानन्द चरित की भूमिका में लिखते हैं-


          १. "मनुष्य यदि तू शान्ति का इच्छुक है तो तुझे आर्ष-ज्ञान की महिमा समझनी होगी और आर्ष-ज्ञान की महिमा को समझने के लिए तुझे दयानन्द को भी समझना होगा।"


         २. "घोरतम प्रतिकूलताओं के होने, घोरतम प्रलोभनों के दिये जाने और समय-समय पर शत्रुओं के हाथों अपने प्राण-नाश के यत्न किये जाने पर भी मूर्ति-पूजा के विरुद्ध प्रचण्ड संग्राम उपस्थित करके उन्होंने (स्वामी दयानन्द ने) भारत की आचार्यमण्डली में अपने लिए विशेष स्थान बना लिया है।...जैसे मूर्तिपूजा आर्य संस्कृति की प्रधानतम वैरिणी है, वैसे ही वे मूर्ति-पूजा के प्रधानतम वैरी थे।"


          ३. यदि इन...हिन्दुओं का पुनरुत्थान होगा तो ब्रह्मचारियों के द्वारा ही होगा। यदि आर्यों का प्रनष्ट गौरव फिर कभी वापस चमकेगा तो ब्रह्मचर्य की ही महिमा से चमकेगा।...वे ब्रह्मचर्य को सर्वोच्च आसन पर स्थापित करके इस देश का महान् उपकार कर गये हैं।


          ४. "उन्होंने कौपीनधारी संन्यासी होते हुए भी इस बात को स्पष्ट रूप से जान लिया था कि जब तक स्वदेशी जनों में बल नहीं बढ़ेगा, स्वदेश में जातीयता प्रतिष्ठित नहीं होगी, जाति के अन्दर एकता-बन्धन दृढ़तर न होगा, तब तक धर्म-संस्कार, शास्त्र-संस्कार, देशोन्नति, सामाजिकोन्नति आदि कुछ भी न हो सकेगा।"


        श्री देवेन्द्रनाथ, जो आर्यसमाजी नहीं थे, ऋषि की इन चार विशेषताओं से-अपने कष्ट भूल जाते हैं, धनाभाव भूल जाते हैं, प्रवास की असुविधाएँ भूल जाते हैं, अस्वास्थ्य भूल जाते हैं, कठिनाइयों से विचलित नहीं होते हैं, अपने परिश्रम को सार्थक मानते हैं तथा जीवन के पन्द्रह वर्ष महर्षि जीवन चरित लिखने हेतु समर्पित कर देते हैं। मथुरा में गुरु विरजानन्द को जीवनदान देने की घटना तक ही लिख पाते हैं, पक्षाघात हो जाता है और देहान्त हो जाता है। यही नहीं, उन्होंने सन् १८९४ में ही दयानन्द चरित नाम से बंगला भाषा में पुस्तक प्रकाशित की थी, जिसका अनुवाद १९३१ में पं. घासीराम जी एम.ए. ने किया था। देवेन्द्र बाबू निर्धन पुरुष थे, उन्हें अपनी पुस्तकों की बिक्री से ही थोड़ी सी आय थी। पण्डित जी लिखते हैं, "वे दयानन्द के पीछे वास्तव में पागल से थे। उन्हें दिन-रात दयानन्द की चिन्ता घेरे रहती थी।"


         सन् १८४८-१८५१ की अवधि में स्वामी जी सिनोर, चाणोद तथा अहमदाबाद रहे। यहाँ उन्हें दो योगी मिले जिनके नाम शिवानन्द गिरि तथा ज्वालानन्द पुरी थे। दुग्धेश्वर के मन्दिर में इन दोनों योगियों ने महर्षि को योग-विद्या के रहस्य के सम्बन्ध में शिक्षा दी। स्वामी जी इन दोनों के बारे में स्वयं लिखते हैं-"योग-विद्या की जो कुछ भी क्रियागत शिक्षा थी वह मैंने उन्हीं दोनों साधुओं से पायी है और मैं उनके कृतज्ञता-पाश में बद्ध रहा हूँ।"


         स्वामी विरजानन्द जी महाराज ने स्वामी जी महाराज को स्पष्ट कह दिया था, पहले अपने खाने व रहने का व्यवस्था करो फिर आकर विद्याभ्यास करो। अपरिचित मथरा में किससे कहें, कौन खाने-रहने का भार अपने ऊपर लेगा? ब्राह्मण अमरलाल जोशी ने सहर्ष भोजन का प्रबन्ध कर दिया। स्वामीजी स्वयं लिखते हैं, "आहार और गृह आदि की मुक्तहस्त से सहायता करने के कारण मैं अमरलाल का नितान्त आभारी हूँ।" देवेन्द्र बाबू लिखते हैं, "अमरलाल ने इस निःसहाय संन्यासी की सहायता करके अपने को अमर कर लिया था।...अमरलाल त धन्य है। दयानन्द दिवाकर में जो तेजः पुञ्ज था उसके सञ्चय में तेरा भी भाग है और जिन्होंने उस दिवाकर के प्रकाश से अपने हृदयाविष्ट तिमिर-राशि को छिन्न-भिन्न किया है, तू भी उनकी श्रद्धाञ्जलि का अधिकारी है।" 


        जून १८६८ में कर्णवास के मेले में राव कर्णसिंह के हाथ से तलवार छीनकर स्वामी जी ने तोड़ दी या केवल राव कर्णसिंह ने तलवार पर हाथ रखा था, या म्यान से निकाल ली थी-इस पर चरित लेखकों की अलग-अलग राय हो सकती है, परन्तु इस पर सब एक मत हैं कि ठाकुर किशन सिंह महाराज की रक्षा के लिए खड़े हो गये थे तथा राव कर्णसिंह अपने दुष्ट संकल्प में सफल नहीं हो सका था। 


        अपने दुष्ट संकल्प में सफल नहीं हो सका था। १६ नवम्बर १८६९ को काशी के आनन्द बाग में लगभग ५० हजार जन उपस्थित थे। स्वामी दयानन्द ने अकेले ही काशी के पण्डितों को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा था-किसके बल पर? एक ईश्वर-विश्वास के बल पर, सत्य पर, श्रद्धा के बल पर। २७ पण्डितों ने शास्त्रार्थ में योग दिया था, परन्तु जब अकेले स्वामी दयानन्द से हारने लगे तो बखेड़ा किया। स्वामी दयानन्द पर ढेले, गोबर, मिटी फेंकी जाने लगी, परन्तु पं. रघुनाथ प्रसाद कोतवाल ने उन्हें खिड़की के भीतर करके किवाड़ बन्द किये तथा गुण्डों को बलप्रयोग कर खदेड़ दिया। महर्षि दयानन्द चरितकार लिखते हैं, "यदि वे महाराज की रक्षा नहीं करते तो इसमें सन्देह नहीं कि महाराज क्षत-विक्षत हुए बिना न रहते। समस्त भारतवासी ही नहीं वरन् संसार के सब मनुष्य सदा के लिए इस कर्त्तव्यनिष्ठ न्यायशील कोतवाल के आभारी रहेंगे। वह मूर्तिपूजक था, परन्तु उसने एक क्षण के लिए भी पक्षपात नहीं किया और वह अणुमात्र भी अपने कर्तव्य से पराङ्मुख नहीं हुआ।"


        पूना में स्वामी जी के५४ व्याख्यान हुए। १५ व्याख्यान मुद्रित हुए, जिन्हें हम व्याख्यान-मञ्जरी पुस्तक के रूप में जानते हैं। ५ सितम्बर १८७५ को स्वामी जी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने हेतु अभिनन्दन यात्रा निकाली गयी। दूसरी ओर गर्दभ-यात्रा निकालने का प्रबन्ध विरोध-पक्ष के लोगों ने किया। स्वामी जी के जुलूस पर ईंट, पत्थर, कीचड़ फेंकना आरम्भ किया। मकानों की छत से ईंट पत्थर बरसने लगे। पुलिस ने कुछ नहीं किया। १७ सितम्बर १८७५ को दो व्यक्तियों को ६-६ माह का कारावास का दण्ड देते हुए डब्लू.आर. हैमिल्टन सिटी मजिस्ट्रेिट ने अपने निर्णय में लिखा था, "यह बात सुनने में चाहे कठोर लगे, मेरा विश्वास है कि सारी पुलिस ब्राह्मणों के प्रभाव में थी और इसी कारण उसने अधिक लोगों को नहीं पकड़ा।...मैं पुलिस पर भीरुता का दोष नहीं लगाता, परन्तु मैं यह कहता हूँ कि उसने अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया और उसके ऐसा न करने का कारण स्पष्ट है। मैं इसे अपना कर्त्तव्य समझूगा कि उसके व्यवहार को जिला मजिस्ट्रेट के नोटिस में लाऊँ।"


         सन् १८७७ में स्वामी जी लाहौर गये। उन्हें दीवान रतनचन्द के बाग में ठहराया गया। स्वामी जी के व्याख्यान होने लगे। पौराणिकों में तो खलबली मची ही, ब्राह्मसमाज वाले भी विरुद्ध हो गये। दीवान रतनचन्द ने स्वामी जी महाराज को कोठी छोड़ने को कहा। स्वामी जी ने तुरन्त बाग छोड़ दिया। ऐसी स्थिति में खान बहादुर रहीम खाँ ने प्रसन्नतापूर्वक अपनी कोठी महाराज को रहने के लिए दे दी। महर्षि दयानन्द चरितकार लिखते हैं, "इस उदारता के लिए आर्यसमाज उनका ऋणी रहेगा।" २४ जून १८७७ को आर्यसमाज लाहौर की स्थापना हुई तथा आर्यसमाज लाहौर की स्थापना डॉ. रहीम खाँ की कोठी में ही हुई थीनवम्बर १८७९ में दानापुर में पं. चतुर्भज पौराणिकराज ने विधर्मियों से मिलकर महाराज को क्षति पहुँचाने का प्रयास किया। पौराणिक होते हुए भी उस समय सूबेदार सिंह, सौदागर सिंह व जयराज सिंह ने दुष्टों को ललकारा तथा स्वामी जी को सकुशल गाड़ी में बैठाकर उनके ठहरने के स्थान मिस्टर जोन्स के दीफालाज ले आये। इसके बाद भी ये व्याख्यानों में उपस्थित रहते थे कि कोई दुष्ट कुचेष्टा का साहस न करे।


         २९ सितम्बर १८८३ को स्वामी जी को जहर दिया गया। डॉ. सूरजमल के बाद डॉ. अलीमरदान खाँ का इलाज चला। राजपुताना गजट १२ अक्टूबर १८८३ से आर्यजगत् को रोगी होने का समाचार मिला१६ अक्टूबर को स्वामी जी ने आबू पर्वत के लिए प्रस्थान किया१७ को रोहट रुके१८ अक्टूबर को पाली पहुंचे। यकृत व अन्तड़ियों में शोथ व अत्यधिक पीडा थी। जिला अलीगढ के ठाकुर भूपाल सिंह पाली से महाराज के साथ हो लिए। २१ अक्टूबर को स्वामी जी आबूरोड पहुँचे। मीरा जिला शाहपुरा पंजाब के रहने वाले डॉ. लक्ष्मण दास ने आबू पर्वत के रास्ते में महाराज को अचेत अवस्था में देखादवाई दीकुछ आराम हुआ। महाराज के साथ आबू पर्वत आ गये। चिकित्सा प्रारम्भ की। स्वामीजी सचेत हो गये, हिचकियां बन्द हो गयीं, दस्त भी कम हो गये। डॉ. लक्ष्मणदास ने छुट्टी लेनी चाही, नहीं दी गयी। त्यागपत्र दिया, मन्जूर नहीं हुआ। अजमेर आने पर स्वामी जी की चिकित्सा की। स्वामी जी ने शाल आदि देने चाहे, नहीं लिये। डॉ. सा. ने कहा-"महाराज यदि मेरे पास धन होता तो मैं इतना धन आपके एक-एक लोम पर न्यौछावर कर देता।"


       अलीगढ़ के भक्त भूपाल सिंह की सेवा के विषय में महर्षि दयानन्द चरित में लिखा है, "जिस सहृदयता से ठाकुर भूपाल सिंह ने महाराज की सेवा की उस सहृदयता से तो कोई पुत्र भी अपने पिता की नहीं करेगा। वे ही महाराज का मल-मूत्र उठाते थे और मल से सने हुए वस्त्र धोते थे, परन्तु तनिक भी घृणा व ग्लानि नहीं करते थे। इस सेवा के लिए आर्यसमाज उनका सदा आभारी रहेगा।" ३० अक्टूबर १८८३ को दीपमालिका के दिन स्वामी जी ने देह त्याग दी। आर्यजाति अनाथ हो गयी।३१ अक्टूबर को वेदपाठ के बाद अरथी उठी, रामानन्द ब्रह्मचारी, गोपालगिरि संन्यासी, पण्डित वृद्धिचन्द और मुन्नालाल वेद मन्त्र पढ़ते चल रहे थे, पीछे प्रतिष्ठितों का समूह था। मलूसर में वैदिक विधान से अन्त्येष्टि कर दी गयी। उन्नीसवीं सदी की स्थितियों को ध्यान में रखते हुए जब इन भद्रजनों के त्याग, ऋषि प्रेम, न्यायप्रियता, साहस, सेवा को देखते हैं तो मस्तक उनके प्रति श्रद्धा से झुक जाता है। ऋषि के प्रति सुकृत करने वाले महानुभावों के हम ऋणी हैं, इनके प्रति कृतज्ञ हैं।


 


तपेन्द्र वेदालंकार
(आई.ए.एस. रिटा.)


 



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