गृहाश्रम में प्रवेश करने वाले तरुण से!


गृहाश्रम में प्रवेश करने वाले तरुण से!


       मेरे पुत्र ! मेरे तरुण साधक ! तुम्हें वैदिक मार्ग की इस विशेषता को हृदयगंम करके आचरण में लाना है। तुम्हारा घर और तुम्हारा कार्यालय तुम्हारी सर्वोत्तम साधना स्थली होतुम जो भी ककार्य व्यापार करो वह तुम्हारे राष्ट्र का गौरव बढ़ाने वाला हो वह तुम्हारे समाज को शक्ति देने वाला हो और तुम्हारे निकट वही प्रभु-पूजा का सर्वोत्तम उपादान हो |


      मेरे पुत्र! कवि श्रेष्ठ रामकुमार वर्मा के शब्दों में तुम कहो-


आज मेरी गति तुम्हारी आरती बन जाय


श्वास ही मेरा विनय की भारती बन जाय।


      शत-शत प्रलोभनों के बीच भी जिस दिन तुम आजीविका के भ्रष्ट और अपवित्र साधनों को ठुकरा सकोगे, उस दिन तुम्हारी साधना अपने चरम बिन्दु पर चमक उठेगी |


      -तो याद रहे मेरे पुत्र ! मन्दिर, मस्जिद, गिरजे और गुरुद्वारे तुम्हारे धर्म पालन के स्थान नहीं होंगे, तुम्हारे धर्म का से माता-पिता के प्रति सेवा भाव, भाई बहिनों के प्रति आन्तरिक पत्नी के प्रति मधुर व्यवहार, पुत्र-पुत्रियों के प्रति वात्सल्य मा पड़ौसी के प्रति सद्भाव और दु:खी विपन्नों के आँसू पोंछने में प्रकट होगा।


      मेरे तरुण साधक ! मत भूलो प्रेम की गंगा ही को शिर धारण कर और उसे जन-जन के कल्याण के लिये प्रवाहित कर रहकर ही तु 'शिव' बन सकोगे, और इस परम पवित्र गृहस्थ यां की साधना कर सकोगेसत्य, न्याय और प्रेम की त्रिवेणी नहाकर ही तुम अमरता पा सकोगे। ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ अतिथियज्ञ और बलिवैश्व यज्ञ इन पाँचों यज्ञों का सश्रद्ध अनुष्ठा तुम्हें नित्य करना हैसाथ ही यह भी भूलो नहीं कि क्रोध उत्तेजना पर विजय करोड़ो यज्ञों के समान पुण्य दायक है।


      अत: ५ यमो (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और ५ नियमों (शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय ईश्वर-प्रणिधान) पालन और महर्षि मनु प्रोक्त धर्म के दश लक्षणों को जीवन उतारने के लिये तुम्हें सतत जागरुक रहना होगा।


      मेरे तरुण तपस्वी ! गृहस्थ योग की सम्यक् साधना सबर बड़ा तप हैकिसी कल्पित मुक्ति की तलाश में गृहस्थ के पवि दायित्व से भाग खड़े होना वीरता नहीं, कायरता है। ऐसी किस सस्ती मुक्ति की तलाश तुम्हें नहीं करनी है। कर्त्तव्य के शत-सहर बन्धनों के बीच ही तुम्हें अपनी मुक्ति खोजनी है। और वह तुर मिल जायेगी इसके लिये तुम्हें अपनी सिर्फ इतना करना होगा कि इन विविध कर्त्तव्य कर्मों को तुम मोह बुद्धि से न करके कत्तल बुद्धि से ईश्वरार्पित बुद्धि से (ईश्वर की आज्ञा पालन के रुप में सम्पादित करोयह 'पद्म पत्रमिवाम्भसा'- 'जल में कमलवत्' रहने की साधना सर्वश्रेष्ठ साधना है। जनकादि राजर्षि याज्ञवल्क्यादि महर्षि और राम-कृष्णादि महापुरुष सभी गृहस्थी ही थे। गृहस्थ योग की उक्त साधना द्वारा उन्होंने जीवन-सिद्धि प्राप्त की थी। हाँ निश्चय ही यह राह कटीली है, कठिन है, पर मेरे पुत्र, वेदमाता का आश्वासन है- 'मा गहा विभीत' गृहस्थ योग की साधना से डरो नहीं।


      क्या कहा, राम कृष्णादि की पूजा ? हाँ, अवश्य करो मेरे पुत्र ! किन्तु तुम्हें अपने इन राष्ट्र नायकों के चित्र की नहीं चरित्र की पूजा करनी होगीश्रीराम की पितृ भक्ति, उनका भ्रातृ प्रेम, उनका एक पत्नी व्रत, उनकी उदारता उनका मैत्री भाव, उनका सा दयाधर्म और क्षमा भाव, अपनाओअपने इन महान् पूर्वजों के चारु चरितों को अपनाकर ही तुम अपने गृही जीवन में वैदिक स्वर्ग को साकार कर सकोगे। और तब 'एक दीप दूसरा जलावे' के क्रम में मेरा यह महान् भारत ही नहीं सम्पूर्ण धरती ही स्वर्ग बन जायेगीउस दिन यग कवि मैथिली शरण गप्त के शब्दों में मेरे राम का यह अमर घोष सार्थक हो उठेगा-


संदेश नहीं मैं स्वर्गलोक से लाया |


इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया॥


 


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