गूंज उठी मां की पकार-टंकारा में


          "माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः' (अथर्व 12.1.12) आर्य पृथ्वी को मां मानकर उसको पुत्रवत मान देते हैं। इडा सरस्वती मही तिस्त्रो देवीर्मयोभवः (ऋ 1.13.9) माता संस्कृति मातभाषा तथा मातभमि यह तीनों देवियां उसे उल्लास प्रदायिन हैं। वेद प्रश्न करता है वन हवेद प्रश्न करता है कास्य मात्रा न विद्यते (यजु. 13.47) किसका भार नहीं किया जा सकता? स्वयं ही उत्तर भी देता है 'गोस्त मात्रा न विद्यते' (यज 13.48) गौ का परिमाण नहीं किया जा सकता है। गौ नाम से जननी धरनी धेनधनी. इन्द्रियतनी और वाणी आदि आर्य की अनेक परस्पर परक मातायें हैं। धरती माता पर जब दु:ख भार बढ़ता है तो उसकी भगिनी वाणी मां मखर होकर पुकार उठती है। हे देवताओं! हे विधाता! अत्याचारियों को हटाओ, घटाओं, मिटाओं आओ मेरा भार कम करो। देश देशान्तर, द्वीप-द्वीपान्तर के नाम पृथक हो सकते हैं-किन्तु धरती तो सर्वत्र एक ही रहती है। त्रेतायुग में अयोध्या, द्वापर में मथुरा, तो कलियुग में मां की यह पुकारा टंकारा में गूंज उठी थी। 


            त्रेतायुग में धर्म की दुर्दशा देखकर धरती माता व्यग्र हो उठी, उसने गौमाता (वाणी) का रूप धारण कर देवताओं से धर्मरक्षार्थ की पुकार की l


            माज के कर्णधार देवता व मुनि स्वयं झाड़ियों में छिपकर अपनी जान बचा रहे थे। देखिये रामचरित मानसः 


           अतिसय देखि धर्म की ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी। गिरि सरि सिंधु भारनहिं मोही। जस मोहि गुरुअ एक परद्रोही। धेनु रूपधरि हृदय बिचारी। गई तहां जहां सुरमुनि झारी। निज संताप सुनाएसि रोई। काहू ते कछु काम न होई॥


            तब धरती माता ने ब्रह्माजी को पुकार लगाई। वहां विराजमान शंकरजी ने माता को इन शब्दों में धैर्य बंधाया। 


            हरि व्यापक सर्वत्र समाना। प्रेम ते प्रगट होंहि मैं जाना। देसकाल दिसि बिटिसिह माहीं। कहहु सो कहां जहां प्रभु नाहीं। अग जग मय सब रहित बिरागी। प्रेम में प्रभु प्रगटठ मिति आगी॥ मोर वचन सबके मन माना। साधु साधु करि ब्रह्म बखाना॥


            ब्रह्माजी ने शंकर के वक्तत्य की सराहना की और उसका अनुमोदन करते हुए माता को धर्मरक्षा के लिए निम्न सराहना की और उसका अनुमोदन करते हुए माता को धर्मरक्षा के लिए निम्न प्रकार सान्त्वना प्रदान की।


           हरिहऊं सकलभूमि गरुआई। निर्भय होहु देव समुदाई। गगन ब्रह्मवानी सुनि काना। तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना॥ तब ब्रह्मा धरनिहि समुझावा। अभय भई भरोसे जिय आंवा॥ गए देव सब निज-निज धामा। भूमि सहित मन कहुं विश्रामा।


लाखों वर्ष बाद द्वापर युग में जब धर्म पर धुन्ध छाई, तब योगिराज कृष्ण ने गीता में धर्म रक्षा का आश्वासन इस प्रकार दियाः


                                यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
                                अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यम।
                                परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
                                धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युग-युगे॥


             अर्थात हे भारत! जब-जब धर्म की गलानि व अधर्म की वृद्धि होती है तब-तब मैं लोक कल्याणार्थ परमात्मा से मांगकर जन्म लेता हं। साध परुषों की रक्षा और दष्टों का विनाश कर धर्म को स्थापित करता हूं। स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती के गीता भाष्य के अनुसार 'वैसे तो सब ही जन्म अपने कर्मो का फल हैं. किन्त मुक्तात्मा द्वारा परोपकारार्थ जन्म तो मांग कर इस प्रकार लिया जाता है, जिस प्रकार वीर परुष किसी वीरोचित कार्य के लिए सेनापति से मागकर वार शौर्य का अवसर लेते हैं। आधनिक स्वतन्त्र भारत को जा कर " का सामना करना पड़ा है. उनमें भी अनेक ऐसे सेनानियो क नामा से इतिहास चमका है, जिन्होंने स्वयं ही प्रणपूर्वक युझन वरण किया था l


             हजारों वर्ष बाद कलियग में जब अधर्म-अन्धकार, आडम्बर, अन्धविश्वास, आंतक एवम् माताओं की मान-मर्यादाओं का हनन हा लगा, तब अयोध्या-मथुरा की भाति ही टंकारा की धरती माता ने अंगड़ाई ली और प्रभु से पुकार की और मोक्ष लोक स एक प्रमु को बुलाने के लिए आकल हो उठी। ऐसी मुक्तात्माओं का पुत्ररूप म प्राप्त करने के लिए माता-पिता को संघर्षपूर्ण तपश्चर्या का पालन करना पड़ता है। राम को प्राप्त करने के लिए राजा दशरथ को योग्य श्रृंगी ऋषि के ब्रह्मत्व में पुत्र कामेष्टियज्ञ करना पड़ा। गर्भावस्था में माता कौशल्या ने राजकोष के अन्न का त्याग करके स्वयं कला कौश से अर्जित अन्न का उपभोग किया। राजा दशरथ, महर्षि वशिष्ठ एवं माता अरून्धरती के समझाये जाने पर भी उन्हें यह कहकर मौन कर दिया कि मैं एक वीर, तपस्वी महान बालक को जन्म देना चाहती हूं जो आततायिों का संहार कर सके। यह राजकोष के राजस-तामस अन्न से संभव नहीं है। योगिराज कृष्ण के जन्म की कहानी तो माता-पिता की तपश्चर्या ही नहीं, घनघोर यातनाओं से संलिप्त है। अपने ही बहिन-बहनोई दम्पत्ति को कंस ने कारागार में बन्दी बनाकर रखा है. एक-एक करके उनके अनेक पुत्रों को जन्मते ही मार दिया। वे पिता वसुदेव एवं माता देवकी अपने आठवें पुत्र की प्राणरक्षा के लिए कौन से व्रत संकल्प-साधना नहीं करते होंगे? प्रहरी-कर्मचारियों की सहानुभूति-योजनावश नवजात को मथुरा से गोकुल माता यशोदा की गोद में पहुंचा तो दिया गया, किन्तु पीड़ा एक नहीं दो-दो माताओं को झेलनी पड़ी। कृष्ण को बचाने के लिए यशोदा ने अपनी नवजात कन्या का बलिदान तक कर दिया था। कृष्ण जैसी सन्तान को प्राप्त करने के लिए माता-पिता की पात्राता का आकलन कीजिए। यथा-


                              अधुना कश्यपांशस्त्वं वसुदेवः पिता मम।
                              देवकी देवमातेयमदितेरंशसम्भवा॥


           अर्थात् आप कश्यप जी हैं और तपस्या के प्रभाव से इस समय मेरे पिता वसुदेव हैं। ये उत्तम तपस्या वाली देव माता अदिति ही इस समय अपने अंश से मेरी माता देवकी के रूप में प्रकट हुई है। भागवत पुराण-गाथा में कृष्ण के मुख से यह कहलाया गया है। इसका सार तत्व यही है कि भले ही कई जन्म-जन्मानतर लग जायें, किन्त राम-कृष्ण जैसी सन्ताने तपस्वी माता-पिता के घर आंगन की ही 


           विभूति बनती हैं। कलयुग में भी धर्म रक्षार्थ ईश्वर ने एक मकात्मा को पृथ्वी पर भेजा. तो वह गजरात प्रान्तस्थ मौरवी राज्य के टंकारा ग्राम में पिता कषन जी तिवारी, माता यशोदा अमतावेन की गोद में शनिवार फाल्गुन कृष्ण 10, स. 1889 वि. को उत्पन्न हई। दशरथ सम्राट थे. वसुदेव भी राजवश से सम्बन्धित थे. कर्षन जी भी अपने क्षेत्र के अधिपति तुल्य थे। माता कौशल्या, माता देवकी की भांति ही माता यशोद अमृतावन का गर्भकालीन तप-साधना. कम गरुतर प्रतीत नहीं होती है, जिसका पता शिशु के गर्भ जन्म एवं जन्मोत्तर कालीन संस्कार श्रृंखला के आयोजन से लगता है। पिता कर्षण जी केवल धरा मान म हा महान नहीं थे, प्रत्युत उनकी प्राकतिक धर्मनिष्ठा एवं चारित्रिक दृढ़ता भा शाषस्थ थी। शैव मतानयायी पिता शिश को मलनक्षत्र में जन्मने के कारण मूलशंकर कहकर बलाते. जबकि वैष्णव व्रती उसको दयाराम या दयाल कहकर पुकारते थे।


          अपनी बाल सुलभ क्रीडाओं से माता-पिता पुरजन को प्रसन्न को प्रसन्न करत-करत, अपने जन्म के अभिप्रेत को पूरा करने के लिए एक न एक दिन मक्तात्माओं को गह त्यागकर कर्तव्यपथ पर प्रस्थान करना ही पडता है। राम-कष्ण की भाति मलशंकर में यह आग्रह अपने चरम पर परिलक्षित होता हैयह दोनों योद्धा अपने कृतित्व को करते हुए विवाह बन्धन में भी बंधे, किन्तु मूलशंरक ने तो इस बन्धन से पूर्व ही ऐसी दौड़ लगाई कि दौड़ते ही गये और अविद्या, अन्धकार पर चढाई करके ही दम लिया। इन्होंने पांच वर्ष का होते-होते देवनागरी अक्षर, धर्माशास्त्रों के श्लोक सूत्रादि कण्ठस्थ कर लिये। आठवें वर्ष में यज्ञोपवीत संस्कार पूर्ण उत्साह एवं विधि विधान से सम्पन्न हो गया। चौदह वर्ष का होते-होते यजुर्वेद संहिता एवं अन्यवेद के पाठ-पारायण चल निकले। यज्ञोपवीत संस्कार के बाद अब तक माता-पिता में एक प्रतियोगिता चलने लगी। पिता प्रतिवर्ष शिवरात्रि पर पुत्र को रात्रि जागरण व्रत एवं शिव दीक्षा के लिए तैयार करते किन्तु माता रोक देती। इस बार शिव दर्शन का प्रलोभन कहानी सुनाकर पिता ने ऐसा दिया कि मूलशंकर व्रत दीक्षा हेतु राजी हो गये। गृह कलह स्तर तक चलने वाली लड़ाई माता व पिता के मध्यस्थी, युद्धस्थल मूलशंकर का हृदय स्थल बना हुआ था। सन्ध्या को इस हृद् क्षेत्र पर पिता का अधिकार हो गया था और मलशंकर व्रत-दीप के लिए पिता के साथ चले गये थे। मन्दिर में प्रहर-प्रति प्रहर की पूजा में शिव पिण्डी पर चढ़ाई गई भोग सामग्री को मूलशंकर ने चूहों के द्वारा खाते-पीते व दूषित करते देखा और देखा कि भक्त पुजारी पिता सभी यत्र तत्र लोट पोट कर सो गये हैं। रात्रि में ही मूल हृदय पर माता की जीत हो गयी। 


           मूलशंकर ने पिता को जगाकर पूछा कि आपने कथा में सुनाया था, क्या पापियों का नाश करने वाले प्रलयंकर शंकर यही हैं? पिता ने ऊंघटते हा उत्तर दिया-सच्चे शंकर तो कैलाश पर हें, यह तो उनका सकता. मझे प्रतीक मात्र है। अच्छा। पिताजी. अब मैं यहां नहीं रूक सकता. मझे मां के पास जाना है। पिता ने सिपाही के साथ मूलशंकर को घर भेज दिया, किन्त निर्देशित भी कर दिया खाना कुछ नहीं। मन्दिर में पिता निश्चिन्त होकर सो सकते हैं। माता की आंखों में नींद कहां? वह तो यही सोच कर चिन्तातर थीं, कि जो बालक प्रातः उठते ही भोजन के बिना न रहता हो, वह रात्रि-दिन के लम्बे अन्तराल में अनशन पर हो उसकी क्या दशा होगी। मां की सोच सही निकली। आते ही मूलशंकर ने मां से खाने को गंगा और छक कर सो गये। इधर माता न भा पुत्र को निर्देशित किया प्रात: पिता के सामने मत पड़ना, अन्यथा प्रताड़ना पाओगेमां सन्तष्ट थी कि जिसके लिए पिता से युद्ध चल रहा था, मलशंकर का वह हृदय स्थल मेरे अधिकार में है। दा हा वष बातत बीतते सबसे प्रिय चाचा के निधन पर उनका मन शाकग्रस्त हो गया। बहिन के विछोह पर रोये नहीं तो निष्ठुर तक कहा गया, और चाचा के चले जाने पर इतना रोये नहीं-तो निष्ठर तक कहा गया और चाचा के चले जाने पर इतना रोये कि चपाने से भी चुप नहीं हो रह था लगता है कि यहां तक मलशंकर को परमात्मा ने त्रैत का सच दिया था। क्रमश: होने वाली इन तीनों मन्तिक घटनाआ न ईश्वर. जीवन एवं संसार का सम्बोध प्रदान कर दिया था। माता सम्बन्धियों को किशोर मलशंकर में वैराग्य भावना को झलक ल काशी नहीं जाने दिया गया। हा, समापस लगी थी। इसीलिए उत्कट अभिलाषा के बाद भी उन्हें विद्या ग्रहण हेतु काशी नहीं जाने दिया गया। हां. समीपस्थ ग्रामवासी एक सम्बन्धी विद्वान गरु के यहां उन्हें पढने को भेज दिया गया। उन्होंने भा पिता क सामने मलशंकर की कठोर वैराग्य भावना की पुष्टि कर दी।


          गेंद जितनी जोर से दीवाल पर मारी जाती है, वह उतना हा तणा से वापस लौटते है। इसी उहापोह में दो वर्ष और निकाल गया एक ओर कुल कुटुम्ब-दूसरी ओर कुलदीपक मूलशंकर यह उहापहि दाना ही ओर था। माता-पिता को निश्चय करने में देर नहीं लगी। गुरु गृह से मूलशंकर को बुला लिया गया। वे माता के अभिवादन के लिए आवास में अन्दर गये, तो उन्होंने देखा कि वहां तो बाल-बालिका युवती अनेक सजी धजी देवियां माता के पास उनके स्वागत के लिए बैठी हैंमनोरम उत्सव का रसमय गीत-संगीत पूर्ण मोदप्रद वातावरण है। माता की हर्षविभोर मुखाकृति ने बता दिया था, कि मूलशंकर जी-यह आपके विवाह बंधन की तैयारी है। अब नहीं चलेगा वैराग्य भाव अनुराग भाव में आ जाइये। दीवाल पर मारी गई गेंद को पलटने में कहीं देर लगती है? विवाह, लगन, सगाई का समारोह मूलशंकर की विदाई का आयोजन बनकर रह गया। उन्होंने टंकारा ऐसा छोडा कि फिर मुड़े ही नहीं।


         पुत्र के गृह त्याग की वेदना आप पिता दशरथ व माता कौशल्या से पूछिये। पिता की अनचाही विवश आज्ञानुसार जब राम ने अपने वन-गमन की चर्चा राज्याभिषेक प्रतीक्षित माता से की तब-


                                        सा निकृत्तेव सालस्य यष्टिः परशुना बने।
                                        पपात सहसा देवी देवतेव, दिवश्च्युता॥
                                        ताम दुःखोचितां दृष्टवा पतितां कदलीमिव।
                                        रामस्तूत्थापयामास मातरं गतचेतसम्॥ (वा.रा.)


            देवी कौशल्या कुल्हाड़े से काटी हुई सालवृक्ष की डाली की भाति सहसा भूमि पर गिर पडी। मानो आकाश से कोई तारा टटका शिरा पड़ा हो। कटे कदली स्तम्भ के समान भूमि पर पड़ी हुई चेतनाशून्य . पडा हो। कटे कदली स्तम्भ के समान भति सन्त माता को राम ने झट उठाकर बैठाया। यह दशा तो तब थी जब राम को निश्चित चौदह वर्ष की अवधि के लिए बन जाना था। वहां माता-कौशल्या को धैर्य-सान्त्वना प्रदन करने वाले अनेक व्यक्ति थे। माता सुमित्रा ने भी ज्येष्ठ बहिन को न केवल ढाट्स ही बंधाया. इससे भी आगे बढ़कर कह दिया कि आप चिन्ता न करें। राम-सीता के साथ मेरा पुत्र लक्ष्मण भी बन जायेगा। रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास साक्षी देखिये-


                                       धीरज धरेउ कुअवसर जानी। सहज सुहृदय बोलीं मृदु वानी।
                                       तात तुम्हारी मातु बैदेहीपिता राम सब भांति सनेही॥
                                       अवधि तहा जहां राम निवासू। तहहं दिवस जहं भान प्रकाश।
                                       जा प सीय रामु बन जाहीं। अवध तम्हारा काज कछ नाहीं।।


            गृहत्यागी राम के साथ अनुज लक्ष्मण, तथा कृष्ण के साथ अग्रज बलराम हर समर में सहयोगी व मार्गदर्शक बनकर रहे। बाद में सैन्य वाहिनी भी खड़ी होती गयी। जीतकर एक कौशलेश बने तो दूसरे द्वारिकाधीश। किशोर मूलशंकर एक बार घर छोड़कर निकले तो वीरान-सुनसान, अप्रचलित मार्गो पर आगे बढ़े कि उनका पता लगाना अति दुष्कर हो गया। दयाराम व दयाल कहकर पुकारे जाने वाले पुत्र ने पशु-प्राणी, प्रकृति ऐसा कौन है, जिस पर दया न की हो, नहीं की तो केवल अपनी जननी पर ही नहीं की। ऐसी वीर माताओं का जीवन दुधारी तलवार की धार पर चलता है। पहले वे मातायें ऐसी तेजस्वी सन्तान के लिए प्रभु से याचना करती है। उनके पालन पोषण के लिए घोर, तप, साधना के ताप को सहती हैं फिर जब वे अपने कर्तव्य पथ पर माताओं को छोड़कर आगे बढ़ते हैं, तब उन्हें सन्तान-वियोग पीड़ा भी झेलनी पड़ती है। मूलशंकर अपने गन्तव्य पर बढ़ते गये। एक ढोंगी वैरागी ने उनके रेशमी वस्त्र व स्वर्ण अंगूठियां यह कहकर उतरवा ली इन मूल्यवान वस्तुओं में राग रखकर तुम वैरागी कैसे बन सकते हो। आगे बढ़ो तो एक योगी ब्रह्मचारी ने कठोर नैष्टिक ब्रह्मचर्य की दीक्षा देकर इनको शुद्ध चैतन्य बना दिया।


             तीन महीनों के अन्तराल पर एक परिचित से सूचना पाकर पिता ने सिद्धपुर के मेले में साधुओं की मण्डली के मध्य काषाय वस्त्रधारी अपने पुत्र को पकड़ लिया। पिता ने अपने आन्तरिक घृत को भीषण क्रोधाग्नि के रूप में प्रकट करते हुए आज जो नाम सम्बोधन किया उससे शुद्ध चैतन्य की माता की गहनता तड़प का सहज ही पता चल जाता है। उन्होंने कहा था मातृहन्ता (मां का हत्यारा) अपने वत्स के लिए चीत्कार करती मां तो घर पर छूट ही गई थी। इसके बाद वे कभी पिता की पकड़ में नहीं आये। शुद्ध चैतन्य से दयानन्द बनकर वेदमाता, धरती माता, संस्कृत, हिन्दी माता, गोमाता व भारत माता के उद्वार की कहानी, विश्व क्षितिज पर उगने वाले दिनकर से सुनिये जो कह उठता है कि मैं एक ओर कहीं दिन करता हूं फिर भी दूसरी ओर कहीं रात्रि रह ही जाती है। हे दयानन्द दिवाकर तुम तो टंकारा की ऐसी शिवरात्रि में उगे हो जगे हो कि अध-आडम्बर की सभी तमित्रों को अस्तित्वहीन कर दिया है। राष्ट्रकवि दिनकर ने ऐसे बलिदानियों के लिए ही काव्य सुमन बिखेरे हैं।


                                       पीकर जिनकी लाल शिखाएं, उगर रही लू-लपट दिशायें।
                                       जिनके सिंहनाद से सहमी धरती, रही अभी तक डोल।
                                       कलम सिंहनाद से सहमी धरती, रही अभी तक डोल।
                                       कलम आज उनकी जय बोल।


- देव नारायण भारद्वाज 
'वरेण्यम' अवन्तिका कॉलोनी, अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश)



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