गौ पालन


गौ पालन 


       यह हमारे प्यारे-२ गोपाल कृष्ण हैं। श्री कृष्ण के इस नाम से कौन परिचित नहीं है ! योगेश्वर श्री कृष्ण को गायें कितनी प्रिय थीं यह उनके निम्न कथन से स्पष्ट हो जाता है-


गावो मे चाग्रतः सन्तु, गावो मे सन्तु पृष्ठतः।


गावो मे हृदये सन्तु, गवां मध्ये वसाम्यहम्॥


       अर्थात् गाय मेरे आगे है, गाय मेरे पीछे है गाय मेरा हृदय हैमैं गाय में ही निवास करता हूँ


'मैया मैं नहिं माखन खायौ'


'मैया कबहिं बढ़े मेरी चोटी'


तथा


हरि अपने आगे कछु गावत।


कबहुँ लखें प्रतिबिम्ब खम्भ में लबनी लिए खवावत।


हाथ उठाइ काजरी धौरी गैयन टेरि बुलावत॥


      आदि न जाने कितने पदों में महात्मा सूर के बाल कृष्ण का गौ माता प्रेम साकार हो उठा है। कौन सा हृदय-हीन है जो उस पर रीझ-रीझ न उठेगा, झूम-झूम न उठेगा।


      मुस्लिम कवि रसखान को भी तो लिखना पड़ा-


जो पशु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नन्द की धेनु मझारन।


       पवित्र वेद के अनेक मन्त्रों में विस्तार से गौ की महिमा और उपयोगिता का वर्णन है एक मन्त्र में गौ को-


         'माता रुद्राणाम् दुहिता वसूनाम् स्वसा आदित्यानाम् अमृतस्य नाभिः" कहा है। अर्थात् गौ हमारी माता है, बहिन है, पुत्री है। कैसा पवित्र सम्बन्ध है यह ! लघुकाय किन्तु अत्यधिक महत्वपूर्ण 'गोकरुणा-निधि' नामक अपने अमर ग्रन्थ में करुणा सागर देव दयानन्द ने गोपालन एवं गौरक्षा के महत्व पर बड़े ही प्रेरक विचार दिये हैं।


        सच में गाय वैदिक संस्कृति की आत्मा है, किसी आदर्श गृहस्थ की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी जिसमें गौ न हो। विवाह में पिता 'कन्यादान' से भी पूर्व 'गो दान' करता है। एक नये गृहस्थ के लिए दहेज में अन्य सामग्री देने से पूर्व सर्व प्रथम पिता अपनी कन्या को 'गौ' देता है।


        गृहणी की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए विवाह संस्कार के एक मन्त्र में 'शन्नोभव द्विपदे शं चतुष्पदे' द्वारा पति एक ऐसी पत्नी की कामना करता है जो द्विपदे-घर के स्त्री पुरुषों के साथ 'चतुष्पदे' घर के पशुओं गौ आदि के प्रति भी स्नेह और आदी रखने वाली हो।


        वैदिक स्वर्ग की झाँकी सं0 ६ में पीछे हम दैनिक अग्निहोत्र। की आवश्यकता पर विचार कर चुके हैं, इससे वैदिक स्वर्ग में गौ की अनिवार्यता स्पष्ट है, क्योंकि बिना गौ घृत के अग्निहोत्र कैसे सम्भव है ? फिर वैदिक स्वर्ग (आदर्श गृहस्थ) के सदस्यों के लिये यह आवश्यक है कि वे सात्विक भोजन-शुद्ध अन्न एवं घृत, दुग्ध आदि का सेवन प्रचुर मात्रा में करें। इसके लिए भी गौ आवश्यक हैं।


      वह कैसा स्वर्णिम युग था जब यहाँ के चक्रवर्ती सम्राट तक गौ चराने में गौरव का अनुभव करते थे और गाय को अपना जीवनाधार मानते थे। प्रस्तुत चित्र में हम महाराजा दिलीप को नन्दिनी (गौ) को चराते हुए देख सकते हैं | 


      आज वही माता सी गौ मारी जा रही है। हा, हन्त! पवित्र वेदों का आदेश है- “यदि नो गाँ हिंसि ......तत्वा सीसेन विध्यामा" अर्थात् गौ हत्यारे को सीसे की गोली मारो। प्रभु हमारे राष्ट्र नायकों को सुबुद्धि दें। राष्ट्रकवि गुप्तजी ने ठीक ही लिखा है कि -


जारी रहा क्रम यदि यहाँ यों गोवंश के विनाश का


तो अस्त समझो सूर्य भारत-भाग्य के आकाश का।


जो तनिक हरियाली रही वह भी न रहने पायेगी।


यह स्वर्ण भारत-भूमि बस मरघट मही बन जायेगी।


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