गर्भाधान संस्कार


गर्भाधान संस्कार


       संस्कारों का अभिप्रायः मानव केनवनिर्माण से है। यह संस्कार दो प्रकार के होते हैंवंशानुगत संस्कार या जन्मस्थ संस्कार। इस कोटि के संस्कारमाता पिता की परम्पराओं से प्राप्त होते हैं। दूसरेपर्या वर्णीय संस्कार होते हैंयह संस्कार वातावरण से प्राप्त होते हैंइच्छित पर्यावरण प्राप्त कर माता पिता के सरंकारों को भी बदला या प्रभावित किया जा सकता है। ऐसा हमारा मानना है। प्रथम प्रकार के संस्कार वह हैं जो जन्म से पूर्व किये जाते हैं। इनमें गर्भाधान , पुंसवन व सीमन्तोनयन संस्कार सम्मिलित हैं शेष सभी संस्कार जन्म के बाद होते हैं। जहां तक गर्भाधान संस्कार का प्रश्न है , यह संस्कार मानव के निर्माण से सम्बन्ध रखता है |


      गर्भाधान संस्कार जाति की वृद्धि के लिए होता है। इस का माध्यम माता पिता होते हैं। इसी कारण साधारणतया कहा जाता है कि जैसे माता पिता होंगे वैसे ही उनकी सन्तान होगी। इस का भाव यह है कि माता पिता की सोच, परम्परा, प्रवृतियों आदि का प्रभाव उनकी सन्तान पर अवश्य पडता है। यही कारण है कि बुरी प्रवृति वाले माता पिता की सन्तान भी उन्हीं के अनुरूप होती है जबकि अच्छी आदतों के माता पिता की सन्तान भी उनका नाम रोशन करने का कारण बनती है |। तिहागणदाही अत्यधिक देखने को मिलते हैं कि बुरे पतक प्राव वाले बच्चे भी अच्छे निकलते हैं। इसका क्या कारण हो शकता है। इस बात का उत्तर महर्षि दयानन्द सरस्वती ने दिया है कि संकाय ग मान्य कपैतृक प्रभाव पर डांकुश लगा कर उन्हें बदला जा सकता है। यहां पर महर्षि दयानन्द सरस्वती की इसी बात का ही उल्ट फेर करते हुए आधुनिक वैज्ञानिकों ने इसे विज्ञान का आधार देते हुए कहा है कि मानव स्वभाव का कारण जीन्स होते हैं, जो वंशानुगत परम्परा से आते हैं। इन्हें बदलने के लिए मानव में नए प्रकार के जीन्य का प्रवेश कराना पडेगा । एक प्रकार के जीन्स से एक ही परिवर्तन होता है। यदि अनेक परिवर्तन लाने हैं तो हमें अनेक जीन्स का प्रवेश उस में कराना होगा। डा0 हरगोविन्द खुराना ने इसी विषय पर कार्य किया है तथा इस प्रकार के जीन्स की खोज करने में सफलता पाई है।


      कछ लोगों का यह मानना है कि माता पिता के रज वीर्य के योगदान के प्रभाव को सन्तानों से मिटाया नहीं जा सकता । यदि ऐसा होता तो महर्षि ने संस्कारों के महत्व पर कभी बल न दिया होता। यह तो भारतीय परम्परा आरम्भ से ही चली आ रही है, जिसके अन्तर्गत कहा जाता है कि बच्चों को अच्छे संस्कार देकर अच्छा बनाने का मार्ग खोलो । यदि एज वीर्य ही सब कुछ होते तो विश्व की सिरमौर भारतीय संस्कृति कभी भी संस्कारों पर बल न देती । जीव विज्ञानी भी मानने लगे है कि मानव निर्माण कला की नींव रखी जा चुकी है। इसी के आधार पर उच्च कोटि के मानव का निमोण होने जा रहा है। इसके माध्यम से हम स्वेच्छा से कवि , चित्रकार, विद्वान् आदि जैसे मानव की आवश्यकता समझें, वैसा ही कर सकते है। अतः मानव के निर्माण में वंशानगत परम्पराएं किसी भी प्रकार मार्ग नहीं रोकतीं। मानव इस वंश परम्परा रूपी बहती नदी का मार्ग बदलने की शक्ति रखता हैइसके लिए परिश्रम की आवश्यकता है। 


      महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इसी बात को स्पष्ट करने के लिए ही सस्कार पद्धति का निर्माण किया है। उनका यही सन्देश है कि संस्कारों से मानव के वंशानुगत प्राप्त परम्पराओं को बदल कर उसे जैसा चाहे बनाया जा सकता हैइसको हम टार्जन के उदाहरण से भी स्पष्ट कर सकते हैं, जो था तो मानव पुत्र किन्तु किसी कारण से वह जंगली पशुओं के हाथ में पड गया। अब वह पशुओं की भान्ति ही रहने, खाने, पीने व विचरण करने लगा। यदि माता पिता का रज व वीर्य ही सब कुछ होता तो वह कभी भी मानवीय आदतों को न छोड पाता किन्तु यहां तो सरकार प्रभावी दिखाई देते हैं। जिनके कारण वह मनुष्य रूपी कोई भी कार्य न कर सकता था । बस यह ही संस्कारों का परिणाम हैअतः महर्षि ने मानव नव निर्माण का स्वप्न संस्कारों के माध्यम से लिया । तभी तो उन्हों ने गर्भाधान को भी संस्कार पद्धति के अन्तर्गत एक स्वतन्त्र संस्कार स्वरूप स्थान दिया । बच्चे की परिस्थितियों को बदलने से ही उसे उन्नत बनाया जा सकता है। अतः संस्कार पद्धति में वर्णित गर्भाधान संस्कारविधि स्वरूप महर्षि ने हमें एक ऐसी प्रक्रिया प्रदान की है, जिसके प्रयोग से हम मन चाही सन्तान पैदा करने में सक्षम हो जाते हैं। वृहदारण्यक उपनिषद् ने भी गर्भाधान संसकार पर बहुत बल दिया है। इससे भी स्पष्ट होता है कि संस्कार व्यक्ति के निर्मा ण की क्षमता रखते हैं। 


      गर्भाधान संस्कार का मनुष्य के विवाह से विशेष सम्बन्ध है | 


यह विवाह ही है जो भावी पीढी के जन्म का कारण बनता है। यदि हमारी सामाजिक परम्पराओं में विवाह नामक संस्था न होती तो हमारी अवस्था भी पशुओं से कम न होती। अतः यह विवाह संस्कार ही तो है जिसने हमें मानव कहलाने का अधिकार दिया है। भारत में मुस्लिम राज्य के दिनों में हमारी विवाह संस्था पर संकट आया । इसी के परिणाम स्वरूप ही बाल विवाह, बहु विवाह के रूप में हमारी वैवाहिक परम्पराएं दूषित हुई। इससे हमारी जाति को बहुत हानि उठानी पड़ीऐसे समय में विवाह हो जाना जबकि प्रजनन शक्ति ही पैदा नहीं हुई, तो विवाह का औचित्य ही क्या रह जाता है, किन्तु तो भी लम्बे समय तक यह परम्पराएं चलीं। महर्षि ने इसका खुल कर विरोध किया तथा कहा कि सोलह वर्ष से पूर्व कन्या तथा पच्चीस वर्ष से पूर्व बालक का विवाह किसी भी अवस्था में न हो। किशोरावस्था में जीवनीय शक्ति तो आ सकती है किन्तु इसे मजबूती युवावस्था में ही मिलती है। जब तक यह मजबूती नहीं आती तब तक इनसे होने वाली सन्तान भी मजबूत नहीं बन पाती। इस कारण ही महर्षि ने पूर्ण युवावस्था को प्राप्त होने से पूर्व विवाह की अनुमति नहीं दी । महर्षि ने एतदर्थ सुश्रुत के उदाहरण देते हुए अपने विचारों को स्थिरता दी है। उन्होंने कहा है कि इससे पूर्व विवाहितों की सन्तान जन्म से पूर्व ही न ट हो जावेगी अथवा दुर्ब ल या अल्पजीवी होगी।


      महर्षि ने गर्भाधान संस्कार के लिए ऋतुदान शब्द का विशेष रूप से प्रयोग किया है। इस शब्द का अभिप्रायः समझे बिना यह सब व्याख्या अधूरी ही रह जाती है। साधरणतया प्रजनन की क्षमता का प्रदर्शन कन्याओं में उस समय होता है जब उसके गर्भाशय से रक्त का : प्रवाह बाहर को आने लगता है। यह स्राव तीन चार दिन होता है । यह गर्भाधान के समय का सूचक होता है। इसी समय को ऋतु व स्राव को कतनाव कहते हैं। इस समय स्त्री में गर्भधारण करने की क्षमता तो आ जाती है किन्तु उत्तम सन्तान के लिए इसका पुष्ट होना भी आवश्यक है। यही रक्त गर्भ स्थापित होने पर बन्द हो कर शिशु के पालन में तथा जन्म पर यही रक्त बालक के दूध का कारण बनता है। जब वह दूध पीना छोड देता है तो समय आने पर पुनः गर्भस्राव आरम्भ हो जाता है जो जीवन के लगभग पचास वर्ष की आयु पर्यन्त होता है | 


      स्ट स्त्री शरीर में तो गर्भस्राव से विवाह के लक्षण आ जाते हैं किन्तु पुरुष के लिए चरक का कहना है कि २५ से ४० वर्ष आयु ही वह समय है जिसमें जीवनीय शक्ति के उच्च गुण होते हैं । यह समय ही उसके लिए उपयुक्त है। यदि इस आयु में संयम पूर्वक गृहस्थी की जावे तो शास्त्र इसे भी बह्मचर्य स्वीकार करते हैं । युवा ऋतुगामी स्त्री तथा पच्चीस से चालीस वर्ष के मध्य के पुरुष ही सन्तानोत्पति के सक्षम होते हैं। इससे पूर्व ब्रह्मचर्य व पश्चात् वानपस्थाश्रम होता है, जिनमें सन्तोनोत्पत्ति नहीं हो सकती । अतः दोनों के मध्य का यह काल ही सन्तोन्पत्ति का काल है।


      केवल महर्षि ने ही नहीं अपितु चरक व मनु स्मृति ने भी यही कहा है, जिसके उद्धरण संस्कारविधि में देते हुए कहा गया है कि स्त्री व पुरुष केवल ऋतुकाल में ही सन्तानोत्पत्ति के उपाय करें। वह भी केवल अपनी स्त्री या अपने पति से, अन्य से नहीं । यदि ऐसा न करेंगे तो आयु की हानि होगी। इसमें भी कहा है कि रजोदर्शन के सोलह दिनों में प्रथम चार दिन वर्जित हैं। शेष काल वही है जिसमें स्त्री में एतदर्थ हाती है यह अवस्था केवल स्त्री में होती है। इसी का पालन पुरुष को भी करना चाहिये । गर्भ धारण कर दम्पति जैसी सन्तान चाहते हैं स्त्री को चाहिये कि अपने आप को वैसे वातावरण में ही रखेशूरवीर बनाने के लिए वीरों की कथाएं करे, सुने, वीरों के ही चित्र देखे तथा हर समय वीरो के जीवन का ही चिन्तन करे।


      वैदिक संस्कृति में इस संस्कारको अत्यन्त धार्मिक महत्ता प्रदान की गई है। यह इस संसार में नई आत्मा के प्रवेश का एक मात्र मार्ग है । मानव के नव निर्माण के लिए वैदिक महापुरुषों ने सर्वप्रथम इसी संस्कार पर अपना ध्यान केन्द्रित किया । बलि ष्ठ शरीर व उत्तम आत्माओं को बुलाने के लिए गृहस्थ की इस क्रिया की ओर हमारे महापुरुषों का ध्यान जाना आवश्यक भी था क्योंकि इसी से पवित्र होने पर ही उत्तम आत्माओं का इस संसार में आगमन होता है। सरकार विधि धार्मिक व पवित्र कार्यों का ही एक गुलदस्ता हैइस रंस्कार से पवित्र यज्ञ जो संसार को गति देने वाला होता है , को गृहस्थ लोग आरम्भ करते हैं। इस यज्ञ का परिणाम समग्र विश्व के लिए होता हैइसे पवित्र क्रिया का नाम देने वाले इसे एक सामाजिक कर्तव्य मानते थे । यही कारण था कि बीजारोपण के समय ही उत्तम सन्तान की कामना के लिए यह यज्ञ किया गयास्वस्थ शरीर व स्वस्थ मन का गर्भाधान पर विशेष प्रभाव होता है। तभी तो चरक जैसे आयु - वेदाचार्य ने कहा है कि जैसी सन्तान की इच्छा हो ,गर्भस्थ रत्री गर्भकाल में वैसे विचार,वातावरण,


      व्यवहार व कथा प्रसंग में रत रहे। यह तो सर्वविदित ही है कि अभिमन्यु ने गर्भावस्था में ही चक्रव्यूह भेदन की कला जान ली थी, जो कि गर्भावस्था में पति पत्नि की चर्चा का विषय बनी थी। ऐसे भी महर्षि हए हैं जिन्होंने गर्भावस्था में ही उच्चकोटि का ज्ञान पा लिया था अष्टावक्र भी इनमें से एकथे । इसी प्रकार गर्भस्थ अवस्था के ज्ञान से ही बहुत से क्रूर लोग भी इस धरती पर आए। एक माता गर्भावस्था में सैनिकपरेड देखते हुए विजय गान सुना करती थी ,उससे पैदा हुआ बालक नैपोलियन नामक महान् योद्धा बना।


      इन सभी दृष्टांतों से यह बात स्पष्ट होती है कि गर्भाधान संस्कार धार्मिक होने के साथ ही साथ सृष्टि की अभिवृद्धि का कारण भी है। यदि गर्भाधान संस्कार को महर्षि के बताए ढंग से पूर्ण वैदिक रीति से किया जावे तथा जैसी संन्तान की कामना हो गर्भस्थ स्त्री अपने आपको उसी वातावरण में रखे । पति-पत्नी में उन्हीं विषयों पर ही चर्चा हो परिवार में किसी प्रकार का कोई क्लेश न हो तो निश्चित ही कामधेनू के समान इच्छित सन्तान पैदा होगी। जिस से संशारकी सुख समृद्धि तो होगी ही ,परिवार, माता पिता व सन्तान का नाम भी सर्वत्र गौरव के साथ लिया जावेगा । अतः सभी का यह कर्तव्य बन जाता है कि विवाह संस्कार के पश्चात् घर लौटने पर सर्व प्रथम गर्भाधान संस्कार यज्ञ अपने परिवार में अवश्य करें। 


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