ऋषि दयानन्द के अनुसार वैदिक कर्मकाण्ड

ऋषि दयानन्द के अनुसार वैदिक कर्मकाण्ड


           वैदिक कर्मकाण्ड का स्वरूप भी मध्यकाल में विकृत हो गया था। महर्षि दयानन्द ने पाँच महायज्ञों का विधान मानव-धर्म शास्त्र-प्रणेता महर्षि मनु के इन शब्दों में प्रतिपादित किया है-


ब्रह्मयज्ञं देवयज्ञं पितृयज्ञं च सर्वदा।


नृयज्ञं भूतयज्ञं च यथाशक्ति न हापयेत्॥


           प्राचीन वैदिक युग में राजा-महाराजा तथा सर्वसाधारण जन यज्ञों को कितना अधिक महत्व देते थे, महर्षि ने इसका उल्लेख विस्तार से किया है। महर्षि दयानन्द ने 'यज्ञ' शब्द को बड़े व्यापक अर्थों में प्रयुक्त किया है। उनके अनुसार-'यज्ञ' उसको कहते हैं कि जिसमें विद्वानों का सत्कार, यथा योग्य शिल्प अर्थात रसायन जो कि पदार्थ विद्या उससे उपयोग, और विद्यादि शुभ-गुणों का दान, अग्निहोत्रादि जिनसे वायु-वृष्टि-जल-औषधि की पवित्रता करके सब जीवों को सुख पहुँचाना है, उसको उत्तम समझता हूँ।"


                                                                                      - स्वमन्तव्यामन्तव्य


            निरुक्तकार के अनुसार- यज्ञ शब्द 'यज्' धातु से बना है, इसका अर्थ है-(१) देव-पूजा, (२) संगतिकरण और (३) दान। ऋषि के शब्दों में, देवपूजा का अर्थ है-“विद्वानों का सत्कार करना, माता-पिता, आचार्य, अतिथि, न्यायकारी राजा और धर्मात्मा जन, पतिव्रता-स्त्री और स्त्रीव्रत-पति का सत्कार करना 'देवपूजा' कहाती है। इससे विपरीत 'अदेवपूजा' है। इनकी मूर्तियों को पूज्य और इतर पाषाणादि जड़ मूर्तियों को सर्वथा अपूज्य समझता हूँ।


                                                                                      - स्वमन्तव्यामन्तव्य 


         जीवित माता-पिता, आचार्य, अतिथि और परमेश्वर का यथायोग्य कार करने को ऋषि ने पंचायतन पूजा माना है। इनकी श्रद्धापूर्वक सेवा करने का नाम 'श्राद्ध' है। और ऐसे कार्य करने जिससे इन्हें तप्ति या प्रसन्नता हो 'तर्पण' कहलाता है। यह श्राद्ध और तर्पण माता-पिता और गुरुजनों (पितरों) के जीवन-काल में ही सम्भव है, मृत्यु के पश्चात् नहीं। "पितर' रक्षा करने वाले को कहते हैं, यह जीवन-काल में ही सम्भव है। अत: मृतक श्राद्ध को महर्षि दयानन्द मान्यता नहीं देते, वे इसे अवैदिक मानते हैं। 


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