एक उदाहरण
एक उदाहरण
नई वधू आई। घर में उसकी सास थी और थी दादी (बुढ़िया) सास। वधू ने देखा कि दादी सास की चारपाई पौली में डाली हुई है। चारपाई टूटी और अस्त-व्यस्त है। बिस्तर निरे गुदड़े ही हैं और वस्त्र चीथड़े। सबके भोजन कर लेने पर बचा खुचा भोजन उसकी सास टूटे बर्तनों के ठीकरों में दादी सास को देती-बड़े अपमान पूर्ण ढंग से। दादी सास पर वह चीखती और चिल्लाती। नई वधू एक आर्य परिवार की पुत्री थी उसे यह सब अच्छा नहीं लगा। पर करती भी क्या ? उसे एक उपाय सूझा। वह उन टूटे बर्तनों के ठीकरों को अपनी सास की जानकारी में संजोकर रखने लगी। एक दो दिन तो सास ने इसे खेल ही समझाफिर पूछा-बेटी, तू इन ठीकरों का क्या करेगी ? वधू ने संयत स्वर में उत्तर दिया- माँ जी मुझे इनकी आवश्यकता होगी। सास का आश्चर्य बढ़ना स्वाभाविक था। बोली-पुत्री, तुम्हारे घर में क्या कमी है आखिर इन ठीकरों का तुम करोगी क्या ? वधू ने पुनः सहज भाव से उत्तर दिया- 'माँ जी, मुझे कभी इनकी आवश्यकता होगी। अब तक सास की जिज्ञासा चरम बिन्दु पर पहुँच चुकी थीआग्रह करने पर वधू ने कहा- 'माता जी, आपके यहाँ का सत्कार किस प्रकार होता है, यह मैंने आपके व्यवहार से जान लिया है। आपके परिवार की इस परम्परा को मुझे भी निभाना पड़ेगा ही। एक दिन आप दादी सास बनेंगी और मैं सास बनूँगी तब मुझे इन ठीकरों की आवश्यकता होगी। मैं आखिर कहाँ खोजंगी। इसीलिये अभी ये संजोकर रखती हूँ।'
वधू की बुद्धिमानी से सास की आँखें खुल चुकी थीं। अपने भविष्य के निरादृत जीवन की कल्पना कर वह काँप उठी, बस दूसरे ही दिन दादी सास की चारपाई बदली गई, वस्त्र और बिछौने बदलें गये। अब उसे सबसे पहले सुन्दर स्वच्छ वर्तनों में ताजी भोजन और मेवा. मिष्ठान मिलने लगा।
हम यदि इस उदाहरण से शिक्षा लेकर इसे जीवन व्यवहार के सभी पहलुओं में घटायें तो सचमुच हमारे घर स्वर्ग बन सकते हैं। क्या प्रत्येक सास किसी दिन वधू बन कर नहीं आई थी तब वह अपनी सास से कैसे प्यार और व्यवहार की अपेक्षा रखती थी? काश कि वह अपनी पुत्र-वधू को वैसा ही प्यार दूलार दे सके जिसे वधू रुप में कभी वह स्वयं चाहती थी। क्या प्रत्येक वधू को एक दिन सास नहीं बनना है ? सास बनकर वह अपनी वधू से अपने लिये जिस सम्मान को चाहेगी काश, कि आज वह अपनी सास को वह सम्मान दे सके।
क्या हर पिता एक दिन पुत्र नहीं था और क्या हर पुत्र को एक दिन पिता नहीं बनना है ? क्या हर ननद कहीं भावज नहीं है और क्या 'हर भावज कहीं ननद नहीं है ?
कैसी बिडम्बना है कि एक माता जब अपनी पुत्री के साथ उसके ससुराल वालों के दुर्व्यवहार की बात सुनती है तो तडप उठती है पर वही अपनी पुत्र-वधू पर घोरतम अत्याचार करने से नहीं चूकतीकाश, वह सोच पाती कि यह मेरी पुत्र-वधू भी तो किसी की लाड़ली बेटी है। जिस प्रकार मैं चाहती हूँ कि मेरी पत्री को इसकी सास मुझसे भी अधिक प्यार करे, वैसा ही मेरी पुत्र वधू की माँ भी चाहती होगी। तब मुझे अपनी पुत्रवधू को अधिकतम प्यार देकर प्राप्त अवसर का सदुपयोग करना ही चाहिये।
यह व्यावहारिक धर्म न केवल परिवार में वरन् जीवन के सभी क्षेत्रों में समान रूप से पुण्य-प्रापक है । इस सिद्धान्त को मानने वाला कोई दुकानदार ग्राहक को धोखा नहीं देगा। कोई मजदर कामचोरी नहीं करेगा। कोई मालिक मजदूर का हक नहीं मारेगा। इस सिद्धान्त का व्यावहारिक रूप यह है कि अपने को दूसरे की स्थिति में रखकर देखो कि यदि उस जगह मैं होता तो कैसा व्यवहार चाहता, बस जैसा व्यवहार तुम अपने लिये चाहते, वही व्यवहार तुम करो।
इस स्वर्ण सिद्धान्त की पालना से निश्चय ही आज के नरक बने हुए गृहस्थ वैदिक स्वर्ग बन जायेंगे। ऐसे वैदिक गृहस्थ ही सच्चे तीर्थ हैं जहाँ पञ्चदेव पूजा- (१) माता (२) पिता (३) अतिथि (४) आचार्य (५) पति द्वारा पत्नी की तथा पत्नी द्वारा पति की पूजा होती है। वे गृहस्थ धन्य हैं। ऐसे सद्गृहस्थों से ही युग कवि की यह कल्पना सार्थक हो सकेगी-
मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती।
भगवान् भारतवर्ष में गूंजे हमारी भारती॥