एक कीट का उदाहरण


              किस प्रकार बिना प्राणियों के यत्न के रज और वीर्य का स्वयमेव सम्मेलन तथा प्राणी के पुष्ट और कार्य करने के योग्य हो जाने पर झिल्ली का अपने आप फट जाना आदि अलौकिक रीति से हो जाया करता है? इसके लिए एक उदाहरण दिया जाता है-मैं जब गुरुकुल वृन्दावन में था तो गुरुकुल की वाटिका में बने एक बँगले में रहा करता था। उस बंगले के चारों ओर सुदर्शन के पौधे लगे हुए थे। इस सुहावने पौधे में एक प्रकार का कीड़ा लग जाता था जिससे उसके पत्ते और फूल सब खराब हो जाया करते थे। उस कीड़े की जाँच करने से कि वह कहाँ से आ जाया करता था, निम्न बातें प्रकट हुईं-


               जब इस पौधे में नये पत्ते निकले तो ध्यानपूर्वक देखभाल करने से पता चला कि एक काले रंग की तमाखू की तरह की, कोई चीज कहीं से आकर एक पत्ते पर जम गई और दो चार दिन के बाद किसी अज्ञात विधि से, वह पत्ते के मोटे दल और झिल्ली के बीच में आ गई। देखने से साफ मालूम होता था कि यह वही काली वस्तु है जो पत्ते के मोटे और पतले दलों के बीच में आ गई है। एक सप्ताह के भीतर अब उस वस्तु के एक ओर का पतला पत्ते का दल (झिल्ली) भी इतना मोटा हो गया कि अब वह वस्तु एक गाँठ की तरह पत्ते में मालूम होने लगी। उसका रूप और रंग कुछ दिखाई नहीं देता था। अब वह चीज क्रमशः पत्ते के भीतर लम्बाई में बढ़ती हुई दिखाई देने लगी और दस दिन के भीतर, उसकी लम्बाई लगभग दो इंच के हो गई। ऐसा हो जाने के बाद एक सप्ताह के भीतर पत्ता फट गया और उसमें से एक हरे रंग का कीड़ा जो दो सुनहरी रेखाओं से, तीन हिस्सों में, मनुष्य के हाथों की छोटी उँगली की तरह विभक्त था निकल आया। यही कीड़ा सुदर्शन के पत्तों और फूलों को खा-खाकर खराब कर देने वाला सिद्ध हुआ। इस कीड़े को, एक शीशे की आलमारी में, कुछ पत्तों के साथ रख दिया गया। दस बारह दिन के बाद जब आलमारी खोली गई तो उसमें से तीन तितिलयाँ निकलीं और उड़ गईं। कीड़े का वहाँ चिह्न भी बाकी नहीं रहा। इस परीक्षण से अमैथुनी सृष्टि की कार्य प्रणाली पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।



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