ईश्वर से उचित व्यवहार
ईश्वर से उचित व्यवहार
जो काम जिस विधि से किया जाता है उसी विधि से करना चाहिये, तभी सफलता मिलती है। आसन पर बैठते ही सब विचार छोड़ देना। ऐसा हो कि छेड़ना था ईश्वर का चिन्तन-मनन और छेड़ दिया व्यापारधन्धा, पढ़ना आदि अन्य विषय । दिया समय ईश्वर को मिलने का और मुख फेर कर बातें-विचार करने लग गये संसार की संसार के साथ । यह तो बुलाये हुए अतिथि के समान ईश्वर के साथ अनुचित व्यवहार किया, सो कैसे उसे प्राप्त कर सकेंगे?
बालक का व्यवहार जैसे अपने माता-पिता गुरु के साथ होता है वैसा ही व्यवहार जीवात्मा को परमात्मा के साथ करना चाहिएप्रात: काल उपासना में बैठने की तैयारी जगते ही करनी पड़ती है। इस काल में कोई भी सांसारिक बातचीत, चर्चा-विचारणा न करके मौन धारण करनादोनों काल की उपासना से पूर्व छोड़ने योग्य कार्य व विचारों को छोड़ना और करने योग्य को कार्य व विचारों को ही करना। पहले जप, फिर अर्थ विचार, फिर समर्पण । जप में अज्ञान वश भूल से जो विचार उठे उसे पकड़ना और हटा देना। उल्टे संस्कारों के कारण यदि कोई विचार असावधानी से उठा लें तो उसी समय सावधानी पूर्वक उसे हटा दिया जाये। पश्चात् भगवान की तरफ सहयोग के लिए दौड़ेंगे तब निश्चय ही हमें ईश्वर सहाय देंगे।