ईश्वर की भक्ति


ईश्वर की भक्ति


      ईश्वर भक्ति, स्तुति, पूजा, जाप, नाम स्मरण, गुणगान, कीर्तन आदि जो भी हम करते हैं वह ईश्वर के लिये नहीं है। हमारे कुछ भी करने से ईश्वर को लाभ, हानि, सुख, दुःख नहीं होता और न ही वह प्रसन्न, अप्रसन्न होता है। हमारे किसी काम का भी ईश्वर के ऊपर कोई प्रभाव नहीं होता।


      ईश्वर सारे संसार को खिलाता है। संसार के सभी पदार्थ उसके अंदर हैं, और वह सब पदार्थों में है। इसलिये ईश्वर को खिलाने वाली बात ठीक नहीं बनती। कोई ऐसा स्थान नहीं है जहाँ ईश्वर विद्यमान नहीं है। वह सब कुछ देखता है, और सब कुछ सुनता है। यहां तक कि वह सभी के मनों की बात को भी जानता है क्योंकि वह मनों में भी उपस्थित है। इसलिये ईश्वर को सुनाने के लिये न ऊँची बांग देने की जरूरत है, न घंटी बजाने की और न ही लाउडस्पीकर लगाने की। ईश्वर सुगन्धदुर्गन्ध से परे है, इसलिये उसके लिये धूपबत्ती लगाने का कोई मतलब नहीं। ईश्वर की कोई शक्ल सूरत नहीं, इसलिये उसे कपड़े पहनाने, तिलक लगाने या साज श्रृंगार करने की कोई आवश्यकता नहीं। 


      हम जो कुछ भी करते हैं सब अपने लिए करते हैं। ईश्वर हमारे कामों के अनुसार हमें अच्छा या बुरा फल देता है। कुछ कामों का फल उसी समय मिल जाता है और कुछ कामों का फल बाद में उचित अवसर आने पर मिलता है। जो फल हमें बाद में मिलता है उसे हम किस्मत कह देते हैं


      ईश्वर भक्ति का अर्थ है ईश्वर के गुणों को याद करना तथा उन गुणों को अपने जीवन में अपनाना। ईश्वर न्यायकारी है, वह सदा पक्षपात रहित होकर न्याय ही करता है। वह किसी की भी सिफारिश नहीं मानता। वह अन्याय कभी नहीं करता। ईश्वर सत्यकर्ता है। वह सदा ठीक काम ही करता है, गलत काम कभी नहीं करता। ईश्वर ज्ञानवान् है। सारा सच्चा ज्ञान ईश्वर के पास है। वह किसी बात में भी अज्ञानी नहीं है। ईश्वर पवित्र है, अविद्या आदि दोष उसमें नहीं हैं। ईश्वर दयालु है, उसने दया करके हमारे उपभोग के लिये हजारों पदार्थ दे रखे हैं। इत्यादि। हमें भी न्यायकारी, सत्यकर्ता, ज्ञानवान्, पवित्र, दयालु बनना चाहिए। यदि हम ईश्वर की भक्ति तो करते हैं परन्तु उसके गुणों को नहीं अपनाते तो हमारा भक्ति करना बेकार है तथा वह स्थिति उस गधे के समान है जो अपनी पीठ पर लादकर धान को ढोता तो है पर वह उसे खा नहीं सकता


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