ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव


ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव


      ईश्वर निराकार है। उसकी कोई शकल सूरत नहीं है। उसकी कोई मूर्ति भी नहीं बन सकती। इसी कारण वह आंख से देखा नहीं जा सकता। नाक, कान, जिह्वा, लना-दंद्रियां भी उसका अनुभव नहीं कर सकतीं।


       ईश्वर सूक्ष्म से सूक्ष्म तथा सर्वत्र व्यापक है। वह सूक्ष्म इतना है कि सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तु में भी रमा हुआ है। कोई अणु भी उसकी उपस्थिति के बिना नहीं है। सभी जगह व्यापक होने के कारण उसे महान् से महान् भी कहा जा सकता है।


      ईश्वर अन्तर्यामी है। आत्मा शरीर में बहुत सूक्ष्म पदार्थ है परन्तु ईश्वर उस आत्मा में भी विद्यमान है। इसी कारण से ईश्वर को अन्तर्यामी कहा गया है


      ईश्वर अजन्मा, अनन्त और अनादि है-वह कभी उत्पन्न नहीं होता है। जो वस्तु उत्पन्न होती है वह मरती भी अवश्य है। क्योंकि ईश्वर कभी उत्पन्न नहीं होता इसलिए वह कभी मरता भी नहीं। वह सदा रहने वाला है।


      ईश्वर ज्ञानवान् तथा न्यायकारी है। संसार में फैले सम्पूर्ण सद्ज्ञान का स्रोत ईश्वर ही है। वह पूर्ण ज्ञानी है। वेदों के रूप में उसने ही सारा ज्ञान प्राणिमात्र के कल्याण के लिए दिया है। वह सभी जीवों के कर्मों को देखता तथा जानता है। उन्हें उनके कर्मों के अनुसार यथायोग्य सुख व दु:ख के रूप में फल देता है। सभी जीव कर्म करने में स्वतन्त्र हैं परन्तु उन कर्मों के अनुसार फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था से परतन्त्र हैं। यानि किए हुए कर्म का फल भोगने में जीव की मर्जी नहीं चलती। उसे अवश्य फल भोगना ही पड़ता है।


       उत्पत्ति और प्रलय करने वाला भी ईश्वर ही है। सृष्टि की रचना करना, सभी जीवों को उनके कर्मों के अनुसार उत्पन्न करना, तथा सृष्टि का प्रलय करना भी उसी के हाथ में है। .


      ईश्वर आनन्द स्वरूप है। उसके समीप जाने से आनन्द प्राप्त होता है। जैसे सर्दी में ठिठुरते हुए को आग के पास जाने से सुख मिलता है। ईश्वर की जीव से समय या स्थान की दूरी नहीं है। यह दूरी ज्ञान की है। पवित्र मन से उस ईश्वर का ध्यान करने से उसकी समीपता अनुभव होती है। 


      ईश्वर दयालु है। उसने दया करके ही अनन्त पदार्थ हमारे सुख के लिए दे रखे हैं। जैसे वायु, जल, अन्न, सब्जियाँ, फल, औषधियाँ आदि।


     ईश्वर निर्विकार है। उसमें राग, द्वेष, मोह, लोभ, काम, क्रोध, अहंकार आदि विकार नहीं आते।


     ईश्वर अनुपम है। उसके समान दूसरा कोई नहीं है। उपरोक्त गुणों को धारण करने वाला वह अकेला ही है।


    ईश्वर सर्वशक्तिमान् है। उसे अपने दया, न्याय, सृष्टि की रचना, प्रलय आदि काम करने के लिए किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं हैबिना हाथ, पैर सहज में ही अपने सभी काम वह स्वयं ही कर लेता है।


      ईश्वर की प्रेरणा-मनुष्य जब कोई अच्छा काम करने लगता है तो उसे आनन्द, उत्साह तथा निर्भयता महसूस होती है, वह ईश्वर की तरफ से ही होती है। मनुष्य जब कोई गलत काम करने लगता है उसे भय, शंका, लज्जा जो होती है वह भी ईश्वर की तरफ से होती है।


      जो मनुष्य सब का उपकार करने और सब को सुख देने वाले हैं ईश्वर उन्हीं पर कृपा करता है। कोई मनुष्य जगत का जितना उपकार करता है उसको उतना ही सुख ईश्वर की व्यवस्था से प्राप्त होता है।


        ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्। (यजुर्वेद ४०, १)


       अर्थ-इस गतिशील संसार में जो कुछ भी है ईश्वर उस सब में बसा हुआ है


न तस्य प्रतिमाऽस्ति यस्य नाम महद्यशः। (यजुर्वेद ३२, ३)


      अर्थ-उस परमात्मा की कोई आकृति या मूर्ति नहीं है। उसे नापा या तोला नहीं जा सकता। उस परमात्मा का नाम स्मरण अर्थात् उसकी आज्ञा का पालन करना अर्थात् धर्मयुक्त कर्मों का करना बड़ी कीर्ति देने वाला है।


न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुसा पश्यति कश्चनैनम्।


हृदा-हृदिस्थं मनसा च एनमेव विदुरमृतास्ते भवन्ति।


(श्वेताश्वतर उपनिषद्)


      अर्थ-परमात्मा का कोई रूप (आकृति, वर्ण, स्वरूप) नहीं जिसे आंखों से देखा जा सके। उसे कोई भी आंखों से नहीं देखता। वह हृदय में स्थित है। जो उसे हृदय से तथा मन से जान लेते हैं वे आनन्द को प्राप्त करते हैं।


स पर्यगात् शुक्रम् अकायम् अव्रणम्


अस्नाविरम् शुद्धम् अपापविद्धम्।


कविः मनीषी परिभूः स्वयंभूः याथातथ्यतः . . .


अर्थान् व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः॥ (यजुर्वेद ४०, ८) 


        अर्थ-वह परमात्मा सर्वत्र व्यापक है। वह शीघ्रकारी है। उसका कोई शरीर नहीं है। वह छिद्र रहित है तथा उसके टुकड़े नहीं हो सकते। वह नस नाड़ी आदि के बंधन से रहित है। अविद्या आदि दोष न होने से वह सदा पवित्र है। वह कभी भी पाप कर्म नहीं करता। वह सर्वज्ञ है। सब जीवों की मनोवृत्तियों को वह जानता है। वह दुष्ट पापियों का तिरस्कार करने वाला है। वह परमात्मा अनादि स्वरूप वाला है, उसको कोई बनाने वाला नहीं है, उसके माता पिता नहीं हैं। उसका गर्भवास, जन्म, मृत्यु आदि नहीं होते। वह परमात्मा सदा से प्रजा के लिये वेद के द्वारा सब पदार्थों का अच्छी तरह से उपदेश करता है


एष सर्वेषु भूतेषु गूढो ऽऽत्मा न प्रकाशते। 


दृश्यते तु अग्रयया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः॥ (कठोपनिषद्)


        अर्थ-वह परमात्मा सब प्राणियों अप्राणियों में छिपा हुआ है। वह सामने नहीं है। सूक्ष्म दृष्टि वाले लोग अपनी तीव्र और सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा उसे जान लेते हैं


तिलेषु तैलं दधिनीव सर्पिरापः स्रोतः सु अरणीषु चाग्निः।


एवमात्मात्मनि गृह्यते ऽसौ सत्येनैनं तपसायोऽ नुपश्यति॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्) .


        अर्थ-जैसे तिलों में तेल, दही में घी, झरनों में पानी और अरणी नाम की लकड़ी में आग रहती है। और तिलों को पीलने से, दही को बिलोने से, और अरणियों को रगड़ने से ये प्रकट होते हैं। वैसे ही जीवात्मा में परमात्मा रहता है और वह वहीं मिलता है। सत्य और तप से उसे जाना जा सकता है


यथा ऊर्णनाभिः सृजते गृह्यते च यथा पृथिव्याम् ओषधयः संभवन्ति। :


यथा सतः पुरुषात्केशलोमानि तथा अक्षरात् संभवति इह विश्वम्॥ (मुण्डकोपनिषद्)


        अर्थ-जैसे मकड़ी अपने शरीर के अन्दर से जाले बनाती है और फिर उन्हें अपने अन्दर ही समेट लेती है, जैसे पृथिवी से औषधियाँ उत्पन्न होती हैं, जैसे जीवित पुरुष के शरीर में बाल निकलते हैं उसी प्रकार ईश्वर के प्रकृति रूपी शरीर से यह संसार बन जाता है।


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