दुष्टो की दुष्टता
दुष्टो की दुष्टता
श्रीयुत महादेव गोविन्द रानडे पूना में जज थे। उनकी प्रार्थना पर आषाढ़वदी 13 संवत् 1932* को स्वामीजी पूना पधारे। यहाँ आपके अत्यन्त विद्वत्ता-पूर्ण पन्द्रह व्याख्यान हुए। सारे नगर में धूम मच गई। स्थान-स्थान पर उनकी चर्चा होने लगी। अन्तिम व्याख्यान के बाद सायंकाल स्वामीजी का बड़ा भारी जुलूस निकाला गया। महाराज के गले में फूलों की माला पहनाई गई। एक पालकी में वेद रक्खे गये। स्वामीजी को एक सजे हुए हाथी पर सवार कराया गया। बड़ी धूम-धाम से नगर-कीर्तन हुआ।
उधर धूतों ने भी एक मनुष्य का मुँह काला करके स्वामीजी का स्वाँग बनाया और उसे गधे पर सवार करा कर बाजार में घूमने लगे। वे महाराज को गंदी गालियाँ देते थे, उन पर कीचड़ और रोड़े फेंकते थे, और हुल्लड़ मचाते थे। रानडे महाशय उनको पुलिस के हवाले करना चाहते थे, परन्तु स्वामीजी ने उन्हें मना कर दिया।
स्वामीजी वैदिक धर्म का प्रचार करते हुए जब वजीराबाद पहुँचे तो उनका आना सुनकर वहाँ के अच्छे-अच्छे पण्डित नगर छोड़कर दूसरी जगह भाग गये। उन दिनों वजीराबाद में वासुदेव नाम का एक मोटा-ताजा पण्डित आया हुआ था। वह शक्ति के माननेवाले की तरह लंबे-लंबे केश रखता था। लोग उसे सौ रुपया देने का लालच दिखाकर स्वामीजी के सामने शास्त्रार्थ के लिए ले आये।
वासुदेव ने एक श्लोक पढ़कर कहा कि देखिए इस वेद-मंत्र में शालिग्राम और तुलसी की पूजा कही है। स्वामीजी ने उत्तर दिया कि यह तो वेद-मंत्र ही नहीं। वेद का नाम झूठ-मूठ लेकर क्यों अनर्थ कर रहे हो? वासुदेव कुछ भी उत्तर न दे सका। तब दुष्ट लोग शरारत करने पर उतर आये। एक छोकरे ने सीटी बजाना शुरू कर दिया। आर्यसमाज के प्रधान ने उसे ऐसा करने से रोका। बस फिर क्या था, शरारती लोग स्वामीजी पर टूट पड़े। स्वामीजी ज्यों-त्यों करके, अपनी पुस्तकें आदि उठा, अपने डेरे पर आ गये। परन्तु दुष्टों ने उनका पीछा न छोड़ा। वे उन पर ईंटों और रोड़ों की वर्षा करने लगे। स्वामीजी ने दरवाजा बंद कर लिया और उन मूखों की दुष्टता पर हँसते रहे।
स्वामीजी तो डेरे पर आ गये; पर उनका एक नौकर बाहर रह गया। बदमाशों ने उसे पकड़ लिया और बहुत पीटा। जब स्वामीजी को इसका पता लगा तो वे बाहर निकले। निकलते ही वे शेर की तरह इतने जोर से गरजे कि सभी उपद्रवी लोग, स्वामीजी के नौकर को छोड़कर, एक-दम भाग गये।